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Dr D K Garg
वेद में नदी नाले के नाम ,और कोई इतिहास नहीं है ,वेद तो अपौरुषेय हैं। आर एस एस से जुड़े एक पूर्व सांसद का कहा है कि ऋग्वेद के एक राजा सुदास का राज्य सरस्वती नदी के तट पर था। तो क्या वेदों की रचना राजा सुदास के बाद हुई है? क्या वेद मंत्रों की रचना ऋषियों ने की है? यह एक उदाहरण मात्र है।
वेद ईश्वरीय ज्ञान है। ईश्वर नित्य है। उसका ज्ञान भी नित्य है। उसके ज्ञान में कमी या बढ़ोतरी नहीं हो सकती। हर सृष्टि के प्रारम्भ में ईश्वर मनुष्यों के कल्याण के लिए यह ज्ञान देता है। यह ईश्वर का सम्पूर्ण ज्ञान नहीं है, मनुष्यों के लिए सम्पूर्ण है। वेद ऋषियों के हृदय में प्रकाशित होता है। ऋषि मंत्रों को बनाने वाले नहीं हैं, वे मंत्रों के द्रष्टा हैं। उन्होंने उनके अर्थ जाने हैं। वेद सार्वकालिक और सार्वभौमिक है। इसमें सांसारिक वस्तुओं पहाड़ों, नदियों, देशों, मनुष्यों का नाम नहीं हो सकता है। वेद सांसारिक इतिहास और भूगोल के पुस्तक नहीं हैं। इतिहास और भूगोल बदलते रहते हैं, वेद बदलते नहीं हैं। वेद में अनित्य इतिहास नहीं हो सकता है। भारतीय परम्परा में यह सर्वतंत्र सिद्धान्त है। यदि वेद में सांसारिक वस्तुओं के या व्यक्तियों के नाम या इतिहास होंगे तो वेद शाश्वत नहीं हो सकता।
वेद में नदियों के नाम भौतिक रूप में प्रवाहित नदियों के नाम नहीं है अपितु गुणवाचक है। वेद में सरस्वती, गंगा, यमुना, कृष्ण आदि ऐतिहासिक शब्द आते हैं। पर ये ऐतिहासिक वस्तुओं या व्यक्तियों के नाम नहीं हैं। वेद में इनके अर्थ कुछ और हैं। लेकिन उलटी सीधी कहानिया रचकर वास्तविकता से दूर कर दिया है।
इस बात को जान लेना आवश्यक है कि वेद शाश्वत हैं। सांसारिक वस्तुओं के नाम वेद से लेकर रखे गए हैं, न कि इन नाम वाले व्यक्तियों या वस्तुओं के बाद वेदों की रचना हुई है।
गंगा ,यमुना सरस्वती
गंगा ,यमुना सरस्वती ये तीनो शब्द एक साथ वेद मंत्र में आये है। इसलिए एक भ्रम पैदा हुआ है। मुख्य रूप से ऋग्वेद के सप्तम मण्डल के 95-96 सूक्तों में सरस्वती का उल्लेख है। इनके अलावा भी वेद में अनेक मंत्र हैं जिनमें सरस्वती का उल्लेख है। लेकिन यह सरस्वती किसी देश में बहने वाली नदी नहीं है।
इमं मेे गंगा यमुने सरस्वति शुतुद्रि स्तोमं सचता परुष्ण्या।
असिक्न्या मरुद्वृधे वितस्तयार्जीकीये शृणुह्या सुषोमया।। (ऋ0 10ध्75ध्5)
भावार्थ:
(गङ्गे) हे गमनशील समुद्र तक जानेवाली नदी ! (यमुने) हे अन्य नदी में मिलनेवाली नदी ! (सरस्वति) हे प्रचुर जलवाली नदी ! (शुतुद्रि) हे शीघ्र गमन करनेवाली या बिखर-बिखर कर चलनेवाली नदी ! (परुष्णि) हे परुष्णि-परवाली भासवाली-दीप्तिवाली इरावती कुटिलगामिनी (असिक्न्या) कृष्णरङ्गवाली नदी के स्थल (मरुद्धृधे) हे मरुतों वायुओं के द्वारा बढ़नेवाली फैलनेवाली नदी (वितस्तया) अविदग्धा अर्थात् अत्यन्त ग्रीष्म काल में भी दग्ध शुष्क न होनेवाली नदी के साथ (आर्जीकीये) हे विपाट्-किनारों को तोड़-फोड़नेवाली नदी (सुषोमया) पार्थिव समुद्र के साथ (मे स्तोमं सचत-आ-शृणुहि) मेरे अभिप्राय को या मेरे लिये अपने-अपने स्तर को सेवन कराओ तथा मेरे लिये जलदान करो ॥
उपरोक्त मंत्र से स्पष्ट है की ये तीनो शब्द किसी विशेष नदी के लिए नहीं है अपितु गुण वाचक शब्द है:
ऽ गंगा -गमनशील समुद्र तक जानेवाली नदी
ऽ यमुना -अन्य नदी में मिलनेवाली नदी
ऽ सरस्वती-प्रचुर जलवाली नदी