भारतवर्ष में युद्ध में भी नियमों का अर्थात धर्म का पालन करने की बहुत ही प्रशंसनीय परंपरा रही है। इस परंपरा की जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है। पर जब सामना उन मुस्लिमों से हुआ जो युद्ध में नियम या धर्म की परंपरा को जानते तक नहीं थे उनका प्रत्येक आक्रमण अधर्म और अनीति का परिचायक था तब उनके सामने युद्ध में धर्म निभाने की आवश्यकता नहीं थी।
सावरकर जी की मान्यता थी कि ऐसे अधर्मी और अनैतिक लोगों को वैसा ही प्रत्युत्तर देना अपेक्षित था जैसा वह कार्य कर रहे थे। कहने का अभिप्राय है कि सावरकर जी दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करने के पक्षधर थे।
‘सावरकर समग्र’ के खंड 6 में उन्होंने भारत के लोगों की इस बात की कड़ी आलोचना की है कि वे ‘सद्गुण विकृति’ का शिकार बने रहे और जब अनैतिक और अधर्मी मुस्लिम भारत में अप्रत्याशित अत्याचार कर रहे थे तब हमारे पूर्वज कई बार नीति नियम और धर्म में बंध कर रह गए , जो कि राष्ट्र हित में उचित नहीं था।
उन्होंने लिखा है कि “युद्ध में संकटग्रस्त शत्रु पर आक्रमण न करें, रथियों के साथ रथी ही युद्ध करें , खड्ग वालों के साथ खड्ग वाले ही युद्ध करें , नि:शस्त्र शत्रु के साथ वह सशस्त्र होने तक युद्ध न करें, मूर्छित शत्रु पर उसकी चेतना लौटने तक आघात न करें इत्यादि नियमों से युक्त रणनीति महाभारत काल में उचित रही होगी। कारण दोनों युद्ध्यमान पक्ष उसी का पालन करते थे। दोनों पक्ष एक ही रणनीति के पूजक थे। परंतु इस रणनीति का प्रयोग पात्रापात्र विवेकानुसार ही करना चाहिए, गीता की यह अमूल्य शिक्षा भूलने के कारण सदगुण विकृति से दुर्बल, कायर और बुद्धि भ्रष्ट हुए हिंदुओं ने राक्षसी रणनीति वाले मुसलमानों के साथ भी उसी मूलत: सात्विक परंतु असमय और अस्थान होने के कारण केवल आत्मघातक सिद्ध रणनीति से युद्ध करने का व्यसन नहीं छोड़ा। टीपू के उपर्युक्त उदाहरण के बाद भी दिल्ली की एक सहस्र वर्षों की मुसलिम राजसत्ता का अंश शाही के रूप में दक्षिण में छटपटा रहा था, उस निजाम से मराठों की इस हिंदू- मुस्लिम महायुद्ध की अंतिम टक्कर हुई और वह मुस्लिम सत्ता भी रणभूमि में हिंदुओं के पाँवों तले कुचल डाली गई। तब भी, उस युद्ध में भी इस सद्गुण विकृति का जो एक लज्जास्पद उदाहरण घटित हुआ , उसे इस विषय का समारोप करते हुए यहाँ पर बताना उचित होगा।”
सावरकर जी इतिहास के विषय में अपनी इसी स्पष्ट बाध्यता के कारण कभी भी मुसलमानों में लोकप्रिय नहीं हो पाए। कांग्रेस ने मुसलमानों के वोटों को हथियाने के लिए उनका तुष्टीकरण करते हुए इतिहास को तोड़ मरोड़ कर लिखा । जिस समय देश अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहा था उस समय भी सावरकर मुस्लिम शासन में हिंदुओं पर हुए अत्याचारों की बखिया उधेड़ रहे थे। वे यह स्पष्ट बता रहे थे कि मुसलमानों ने अतीत में किस प्रकार हिंदुओं पर अनेक अत्याचार किए हैं ? यदि उन पर अब भी विश्वास किया गया तो भविष्य में भी वह इसी प्रकार के अत्याचार करेंगे।
खर्डा के युद्ध का लज्जास्पद उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि इस सहस्र वर्षीय हिंदू- मुस्लिम ( जो लोग भारतवर्ष में हिंदू मुस्लिम सांप्रदायिक दंगों की कहानी को दस – बीस या पचास वर्ष की मानते हैं या मानते ही नहीं हैं ,उन्हें सावरकर जी के इन शब्दों पर विशेष रूप से विचार करना चाहिए और यह मानना चाहिए कि भारत में हिंदू मुस्लिम सांप्रदायिक दुर्भाव की कहानी हजार वर्ष से अधिक की है अर्थात उस समय से जिस समय से इस्लाम ने यहां पर आकर अपने आपको शासक घोषित किया था। ) महायुद्ध का अंतिम निर्णायक युद्ध साधारणतः इ.स. १७९५ में खर्डा में हुआ। उस युद्ध में हिंदू छत्रपति के सेवक मराठों ने निजाम की मुस्लिम सत्ता को पूरी तरह रौंद डाला; परंतु उस तुमुल युद्ध में ही मराठों पर सद्गुण विकृति के असाध्य रोग का दौरा पड़ा। यह दौरा यदि कुछ अधिक समय तक बना रहता तो हिंदुओं पर बाजी पलटकर उस युद्ध में मुसलमान ही मराठों को पराजित करते। युद्ध में हिंदू-मुसलमान दोनों सेनाओं की भिड़ंत होने पर रणनीति के दाँव-पेंचों में कुशल मराठों ने निजाम की सेना को ऐसे निर्जन और निर्जल स्थान पर घेर लिया कि उस विशाल मुस्लिम सेना को दाना-पानी भी मिलना असंभव हो गया। ऐसे संकट की स्थिति में, विशेषतः पानी के अभाव में सारे मुसलमान सैनिक व्याकुल हो गए। वे सैकड़ों मुस्लिम सैनिक गंदे गड्ढे का ऐसा दुर्गंधयुक्त पानी भी लाचार होकर पीने लगे, जैसा पशु भी नहीं पीते। स्वयं ‘निजाम बहादुर’ की आँखों में पानी आ गया, परंतु उन्हें पीने के लिए पानी नहीं मिल रहा था। जिस समय मुस्लिम सेना ऐसे विकट संकट में फँसी थी, उसी समय मराठों की तोपों की गड़गड़ाहट से सारा वातावरण गूँज उठा।
उसी समय हिंदुओं की इस पुरातन, उदार, पागलपन की नीति का अकस्मात् दौरा पेशवाओं के मंत्रिमंडल पर पड़ा कि रणभूमि में मूर्च्छित पड़े दुष्ट शत्रु को भी वह उसकी मूर्च्छा दूर होने तक आघात नहीं पहुँचाना चाहिए, बल्कि उसकी चेतना लौटाने के लिए उसे आवश्यक सहायता देनी चाहिए। जब उनका प्रमुख शत्रु निजाम स्वयं प्यास से व्याकुल होकर तड़प रहा था, तब उसे जीवित पकड़कर उसकी समस्त मुसलिम सेना का सर्वनाश करने का स्वर्ण अवसर प्राप्त होने पर भी, शत्रु पर शास्त्रोचित दया करना ही वीरों का सच्चा भूषण हैं, इस सद्विचार से प्रेरित पेशवा ने अपने मंत्रिमंडल की सहमति से अपनी सेना के लिए बड़े जतन से रक्षित जल में से निजाम के परिवार को पर्याप्त जल पिलाने की व्यवस्था की! और यह भी ऐन युद्ध काल में हिंदुओं ने स्वयं निजाम के साथ उसकी सारी सेना को कैंची में पक्का फांसा था, पर वह भी ‘क्षमा वीरस्य भूषणम्’ इस सद्गुण विकृति के सूत्रानुसार ही किया था।”
अब थोड़ा विचार कीजिए। यदि उस समय हिंदुओं की यह उदारता उनके आड़े ना आ रही होती तो युद्ध का परिणाम क्या होता? दूसरा यह भी विचार कीजिए कि जैसी स्थिति में उस समय मुसलमानों की सेना फंसी थी , वैसी ही स्थिति में हिंदुओं की सेना फंस गई होती तो क्या इस्लाम के नाम पर युद्ध कर रहे मुस्लिम हिंदुओं पर किसी प्रकार की दया दिखा सकते थे ?
मेरा मानना है कि कदापि नहीं। ऐसे अवसर का लाभ उठाकर मुसलमानों की सेना निश्चित रूप से हिंदुओं की सेना को गाजर मूली की भांति काट डालती और फिर अंत में अपनी विजय पताका फहराकर उनके संपूर्ण क्षेत्र पर अधिकार जमा लेती।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)
मुख्य संपादक, उगता भारत