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लेखक :- ब्र० महादेव
पुस्तक :- देश भक्तों के बलिदान
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा

      भारतवर्ष के राष्ट्रीय इतिहास में वीरवर भगतसिंह का जीवन और बलिदान युग - युगान्तरों तक तथा कोटि - कोटि पुरुषों को सत्प्रेरणा देता रहेगा । 
      आप किशोर अवस्था से ही क्रांतिकारी आन्दोलन के अत्यन्त सम्पर्क में थे । इसका कारण आपके परिवार की क्रांतिकारी परम्परायें थी । आपके पितामह सरदार अर्जुनसिंह जी जन्म से सिख होते हुए भी आर्यसमाज के सक्रिय कार्यकर्ता और प्रचारक थे । यह उस युग के लिए एक असाधारण बात थी । क्योंकि उस समय आर्यसमाज और सिक्खों में बड़ा विरोध था । अत : ऐसे समय जबकि प्रतिपक्षी के प्रति तीव्र घृणा और द्वेष की लहर बह रही हो , केवल इसलिए कि प्रतिपक्षी के समाज में राष्ट्रोद्धार की भावनायें दिखाई दे रही हैं । अपने ग्राम परिवार और प्रात्मीयों का विरोध सहन करते हुए भी उसका समर्थक बन जाना कैसे उत्कट साहस का कार्य था । इसका अनुमान सरलता से लगाया जा सकता है । 

     श्री अर्जुनसिंह जी कोई भी इस प्रकार का अवसर खाली न जाने देते थे जबकि सिख जनता पर आर्यसमाज के वैदिक सिद्धान्तों की सच्चाई का प्रभाव डाला जा सकता हो । इस विषय में आपका उत्साह किस प्रकार का था और आप में कहां तक वैदिक धर्म में श्रद्धा थी , उसका अनुमान निम्न घटना से लगाया जा सकता है । 

     एक बार विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिए आपको अपने ग्राम से लगभग ६० मील दूरी पर जाना पड़ा । संयोगवश जब आप उत्सव में पहुंचे , ठीक उसी समय कोई पुरोहित सिख - आर्य समाज के सिद्धान्तों की , विशेषत : अमर ग्रंथ सत्यार्थप्रकाश की कटुलोचना कर रहा था । आपने तुरन्त ही उस पुरोहित को चुनोती दी कि वह जो सत्यार्थप्रकाश के उदाहरण उपस्थित कर रहा है , वे सत्यार्थप्रकाश में नहीं हैं और पुरोहित सत्यार्थप्रकाश को बदनाम करने के लिए कल्पित उदाहरण उपस्थित कर रहा है । 

    उस पंजाबी ग्राम में और जाट सिख के मध्य में इस प्रकार की चुनौती देना साधारण काम नहीं था । पुरोहित ने अपनी पूरी शक्ति के साथ आपके कथन का विरोध किया और यह घोषणा की कि यदि सत्यार्थप्रकाश सामने लाया जाये तो सिद्ध कर दूंगा कि जो मैंने उदाहरण दिये हैं वे सत्यार्थ के हैं या नहीं । 

    इसमें कुछ सन्देह नहीं कि पुरोहित ने बहुत ही सुरक्षित मार्ग अपनाया था । क्योंकि उस पिछड़े हुए युग में पंजाब के इन ग्रामों में सत्यार्थप्रकाश तो दूर ही रहा , कोई भी पुस्तक नहीं मिलती थी । इस कारण सत्यार्थप्रकाश उपलब्ध नहीं हो सका और पुरोहित उसी भावना से विवाह कार्य सम्पन्न कराता रहा । अकस्मात् कुछ अन्य व्यक्तियों ने अनुभव किया कि अर्जुनसिंह जी दिखाई नहीं दे रहे । परन्तु इस बात पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया । क्योंकि यदि कोई व्यक्ति विवाद में हार जाता है तो उसका लोगों की आंखों से छिपना उसके लिए एक स्वाभाविक सी बात है । अत : उन लोगों ने कल्पना की कि यहीं किसी कोठरी में विश्राम कर रहे होंगे ।

     परन्तु दूसरे दिन प्रातः ही पुरोहित जी विपत्ति में पड़ गये । क्योंकि अर्जुनसिह जी रातों - रात साठ मील जाकर साठ मील वापिस लौटकर अपनी सत्यार्थप्रकाश की प्रति ले आये । साथ ही यह भी स्मरण रहे कि आप पहले दिन साठ मील यात्रा कर चुके थे । इतना होते हुए भी आप यह सहन न कर सके कि कोई आर्यसमाज के विरुद्ध मिथ्या प्रचार आपके सामने करे और फिर बच निकले । अन्त में पुरोहित ने क्षमा मांगी और अपना पिण्ड छुड़ाना चाहा । आप नित्य हवन किया करते थे । जहां जाते वहां पोटली में हवनकुण्ड और हवन सामग्री बांध ले जाते थे ।

     आपके तीन पुत्र हुए उनके नाम इस प्रकार हैं श्री किशनसिंह , श्री अजीतसिंह और श्री स्वर्ण सिंह । इन तीनों में ही अपने पिता जी की भांति क्रांति की भावनायें देदीप्यमान थीं । बीसवीं सदी के आरम्भ में इन तीनों भाइयों ने गर्म राजनीतिक दल का बीज वपन किया था । हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अन्य प्रान्तों की अपेक्षा पञ्जाब में यह कार्य अत्यन्त दुष्कर था । क्योंकि एक तो पञ्जाब भारतीय फौजों में वीर भेजने का मुख्य केन्द्र था । अतः अंग्रेज सरकार यह किञ्चित् मात्र भी नहीं सहन कर सकती थी । 

     इतना होते हुए भी श्री किशनसिंह जी ने अपने दोनों भाइयों के साथ इस कठिन कार्य का बीड़ा उठाया और अन्य प्रान्तों की भांति इस प्रान्त में भी स्वराज्य की ज्वालाये उठने लगीं । ये ज्वालायें किसान वर्ग तक जा पहुंची । सारे पंजाब में यह स्थिति पैदा कर दी कि श्री अर्जुनसिंह जी के तीनों वीर पुत्रों को पंजाब सरकार ने पकड़ना आवश्यक समझा , इसके पश्चात् इन वीरों का जीवन कभी कारावास में , कभी गुप्तावस्था में व्यतीत होने लगा । इन तीनों भाइयों में से श्री स्वर्णसिंह जी जेल की यातनामों के पश्चात् पूर्ण युवावस्था में ही इस संसार से चल बसे । उसके पश्चात् श्री अजीत सिंह जी सन् १९०८ में भारत से अचानक विदेश चले गये और वहां ३८ वर्ष तक घोर कठिनाइयों का सामना कर भारत माता की मुक्ति का काय करते रहे । अन्त में १९४६ में जबकि ब्रिटिस सरकार अपना बिस्तर गोल कर रही थी उसी समय बड़ी कठिनाइयों से आप भारत आ गये । किन्तु कुछ दिन पश्चात् १४ अगस्त १९४७ को जबकि अगले दिन भारत अपना स्वतन्त्रता दिवस मनाने का उपक्रम कर रहा था उस समय आप दूसरे लोक में चल दिए । इस प्रकार अब श्री किशनसिंह ही रह गये । आपका भी स्वर्गवास अभी कुछ दिन पूर्व ही हुआ है । आप में स्वदेश भक्ति कूट - कूटकर भरी हुई थी । आप मरते समय तक अपनी मातृभूमि के लिए चिन्तित थे । 

      वीरवर भगतसिंह जी का जन्म आश्विन शुक्ला त्रयोदशी शनिवार सम्वत् १९०७ में लायलपुर जिले के बंगा नामक ग्राम में हुआ था जो पंजाब राज्य में स्थित है । आपके जन्म से पूर्व आपके पिता जी तथा चाचा दोनों माण्डले जेल के द्वीपान्तर वास में थे । जिस दिन आपका जन्म हुआ उसी दिन आपके पिता जी तथा चाचा भी बन्धन से मुक्त होकर आये । इसी कारण आपको " भाग्य वाला " कहते थे । आगे चलके आपका भगतसिंह नाम पड़ा । आपकी बाल्यावस्था दादी तथा माता जी की देखरेख में व्यतीत हुई । ये दोनों महिलायें धार्मिक थीं । अतः आप पर धर्म का पर्याप्त प्रभाव पड़ा । आपकी मेधा शक्ति बहुत अच्छी थी । आपने तीन वर्ष की अवस्था में गायत्री मन्त्र याद किया था । ५ वर्ष की अवस्था में आप स्कूल में पढ़ने चले गये । आपका यज्ञोपवीत संस्कार शास्त्रार्थ महारथी पं० लोकनाथ जी तर्कवाचस्पति द्वारा हुआ था । एक बार आपको अपने घर वालों के साथ लाहौर जाने का अवसर मिला । लाहौर में आपके पिता जी के परम मित्र लाला आनन्द किशोर जी यहां आये थे । लाला जी ने आपको बड़े प्रम से उठाकर अपने कन्धे पर रखा और थपकियां देते हुए पूछा- " क्या करते हो ? ' आपने अपनी तोतली जबान में उत्तर दिया- " मैं खेती करता हूं । " लाला ने पूछा- “ तुम बेचते क्या हो ? " आपने उत्तर दिया- “ मैं बन्दूक बेचता हूं । " यह बातचीत इतनी प्यारी थी कि इनका स्मरण बड़े होने पर भी हुआ करता था । बचपन में आप बड़े खिलाड़ी थे । बचपन में ही आप क्रांति दल बनाकर अपने साथियों के साथ युद्ध करते थे । आपको वीरतापूर्ण खेलों में अधिक रुचि थी , बालकपन से आपको तलवार बन्दूकादि से बड़ा प्रेम था । एक बार अपने पिता के साथ खेत में चले गये । बालक भगतसिंह ने पिता से पूछा कि “ पिता जी ये लोग क्या कर रहे हैं ? " पिता ने उत्तर दिया कि अन्न बो रहे हैं । इस पर आपने कहा कि अनाज तो बहुत उत्पन्न होता है , परन्तु तलवार , बन्दूकादि सब जगह नहीं होतीं । अतः ये तलवार आदि क्यों नहीं बोते ? 

     आगे शिक्षा पाने के लिए आपको पिता जी ने दयानन्द एंग्लो वैदिक विद्यालय ( डी० ए० वी० स्कूल ) में प्रवेश कराया । वैसे तो सिख परिवार के बालक प्रायः खालसा स्कूल में शिक्षा प्राप्त करते हैं क्योंकि उनका यह शिक्षणालय जातीय था । परन्तु सिख होते हुए भी आपका परिवार आर्यसमाज की ओर था अतः आपने अपने पुत्र को डी० ए० वी० स्कूल में ही भर्ती कराया । दयानन्द एंग्लो वैदिक विद्यालय में आपने नवीं कक्षा पास की । इसी समय १९२१ में महात्मा गांधी ने असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ किया । सारे देश में सरकारी तथा सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों का बहिष्कार प्रारम्भ हुआ । इसलिए आप भी डी० ए० वी० कालेज छोड़ भारतीय विद्यालय में चले गए । उस समय उसके प्रबन्धकर्ता स्व० भाई परमानन्द जी थे । आपने भगतसिंह की परीक्षा लेकर एफ० ए० में प्रवेश कराया । सन् १९२२ में एफ० ए० की परीक्षा पास की , उसी समय आपका श्री सुखदेव तथा अन्यान्य क्रांतिकारियों से परिचय हुआ । उधर घरवालों ने आपके विवाह का आडम्बर रचा । जब इसकी सूचना आपको मिली तब आप अपना बिस्तर - बोरिया उठाकर लाहौर से अन्यत्र चले गये और पर्याप्त दिन के पश्चात् अपने आप पिता को पत्र लिखा जिसमें लिखा था कि " मैं विवाह करना नहीं चाहता , इसी कारण मैंने घर छोड़ दिया है आप मेरी कोई चिन्ता न करें । मैं बहुत अच्छी अवस्था में हूं । " 

       लाहौर से श्री जयचन्द्र विद्यालंकार से पत्र लेकर आप गणेशङ्कर विद्यार्थी के पास कानपुर गये । वहां प्रताप प्रेस में कार्य करने लगे । वहां अपना नाम बलवान् रखा था । इसी नाम से आप लेखादि लिखा करते थे । उधर आपके घरवालों ने घर में हाहाकार मचा रखा था । आपकी दादी जी को बेहोशी के दौरे आने लगे थे । उधर आपका क्रांतिकारियों से पर्याप्त परिचय हो गया था । आप पंजाबी प्रान्त में पैदा होने पर भी हिन्दी से बहुत प्रेम करते थे । आप किशोर अवस्था से ही हिन्दी की पुस्तक पढ़ लिख लेते थे । इस प्रकार धीरे - धीरे अभ्यास करके साहित्यकार भी बन गये थे।

       एक बार हिन्दी - साहित्य सम्मेलन ने किसी एक विषय पर सर्वोत्तम निबन्ध लिखने के लिए ५० रु ० पुरस्कार की घोषणा की । उसमें तीन व्यक्तियों का नम्बर पहला आया , क्योंकि तीनों के निबन्ध एक ही कोटि के माने गये । उस में श्री भगतसिंह और यशःपाल एवं अन्य कोई था । इससे आपको हिन्दी साहित्य पर कितना अधिकार था , यह मालूम होता है । 

        इसी साल गङ्गा और यमुना में भयङ्कर बाढ़ आई थी । संयुक्त प्रान्त के कई स्थानों में गांव के गांव इस भयङ्कर बाढ़ में नष्ट - भ्रष्ट हो गये । श्री बटुकेश्वरदत्त उन दिनों कानपुर में ही रहते थे । बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए श्री दत्त जी ने एक समिति स्थापित की , जिसके सरदार भगसिंह भी सदस्य थे । बड़े उत्साह और लगन से उनकी सेवा की । भगतसिंह और दत्त जी के एक साथ अधिक दिन काम करने से आपका घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया । दोनों के कार्य का कानपुर जिले पर अमिट प्रभाव पड़ा और आपको बड़ी श्रद्धाभवित से देखने लगे । भगतसिंह को एक स्कूल का प्राध्यापक नियुक्त किया । इस समय आपका पता आपके पिता जी को मिला । आपके मित्र को तार देकर कहा कि भगतसिंह को कह दो कि माता जी अत्यन्त बीमार हैं । माता जी का समाचार सुनते ही आप पंजाब की ओर चल दिये और चलते समय तार कर दिया कि मैं आ रहा हूं । 

        लायलपुर में आपने एक भाषण दिया । जिसमें अंग्रेज को मारने वाले गोपीनाथ की सराहना की । इस पर पुलिस ने आप पर अभियोग चलाया । आपके पिता को भी यही इच्छा थी कि भगतसिह जेल का कुछ अनुभव करे । वह भी इच्छा पूर्ण न हो सकी । फिर आप लाहौर चले गये और लाहौर से अमृतसर । आपने लाहौर में ' अकाली " नामक समाचार पत्र के कार्यालय में कार्य प्रारम्भ किया । वहां पर पर्याप्त समय तक सम्पादक का काम करते रहे । परन्तु किसी कारणवश लाहौर जाना पड़ा । वहां पर पुलिस आपकी ताक में थी ही अतः वहां प्रापको पकड़ लिया और छः हजार की जमानत पर छोड़ दिया गया ।

        सन् १९२७ में आपने अपने पिता की आज्ञा से लाहौर में विशुद्ध दूध पहुंचाने के लिए एक कारखाना खोला । यह कारखाना कुछ दिन तो अच्छा चला परन्तु आपके जीवन का उद्देश्य दूध बेचना न था । अतः आप लापता हो गये । जब आप घर आये तो पिता जी ने दो सोटी मार दी । इसका फल यह हुआ कि वह दूध का कारखाना समाप्त हो गया । 

       लाहौर षड्यन्त्र वाले मुकद्दमे में एक दिन सरकारी वकील के किसी कथन पर भगतसिंह को हंसी आगई । इस सरकारी वकील ने अदालत से शिकायत की कि भगतसिंह हंसकर अदालत की तौहीन कर रहा है । वीरवर ने हंसकर उत्तर दिया- " मुझे तो ईश्वर ने हंसने के लिए ही पदा किया है । मैं तमाम जिन्दगी हंसता रहूंगा , हंसता रहूंगा । आज अदालत में हंस रहा हूं और कल ईश्वर ने चाहा तो फांसी के तख्ते पर भी हंसूगा । वकील साहब ! इस समय तो मेरे हंसने की शिकायत कर रहे हैं , परन्तु जब मैं फांसी के तख्ते पर हंसूगा तब किस अदालत से शिकायत करेंगे ? 

        ३० अक्टूबर १९२८ को लाहौर में साईमन कमीशन आने वाला था । भारत के अपमान का जीवन्त प्रतीक साईमन कमीशन आज सरदार कर्तारसिंह को लाश पर पांव रखकर पंजाब के निवासियों से यह पूछने आया था कि क्या सचमुच स्वराज्य चाहते हैं ? और क्या स्वराज्य के योग्य भी हैं । इस पर लाहौर की जनता ने यह निश्चय किया था कि जिस प्रकार देश के अन्य भागों ने बहिष्कार किया है उसी प्रकार यहां किया जायेगा । इस पर अत्याचारी सरकार ने इसको कुचलने के लिए धारा १४४ की घोषणा कर दी । यह समाचार प्रत्येक मनुष्य में फैल गया कि वह भी " जलियांवाला बाग बन जावेगा । बड़े बच्चों को धमका रहे थे कि आज बाहर न निकलना । परन्तु युवकों का हृदय उछल रहा था कि कब जलूस निकले और हम उसमें सम्मिलित होवें । शहर के चारों ओर पुलिस ही पुलिस दिखाई दे रही थी । कायर देखते है तो कहते हैं कि यह पुलिस हमारे शरीर को मार देगी , मनुष्य परन्तु क्या वह हृदय के भावों को भी मार देगी ? ठीक समय पर जलूस निकला । चारों ओर ही मनुष्य दिखाई देने लगे । साथ ही पंजाब के सबसे अधिक सम्माननीय लाला लाजपतराय जी इस जलूस का नेतृत्व कर रहे थे और सबसे अगलो पंक्ति में थे । इस वयोवृद्ध मूर्ति को देखकर सभी श्रद्धा से सिर झुका लेते थे ।आपको ' स्वाधीनता " शब्द पर जेल जाना पड़ा था तभी आपने सरकार से वीरतापूर्वक लोहा लिया था । जलूस स्टेशन पर पहुंचा । पंजाब की राजधानी उनके आगमन को किस दृष्टि से देखती है ? " साईमन गो बैक " और " वन्दे मातरम् ' की ध्वनि से आकाश गूंज उठा । सामने पुलिस का मोर्चा था , परन्तु पुलिस को कोई परवाह न करते हुए आगे चलते ही रहे । अकस्मात् पुलिस ने आगे बढ़कर लाठी चार्ज कर दिया । उस में एक गोरी कौम वाले अधिकारी ने आकर लाला लाजपत राय जी पर डण्डे बरसाने प्रारम्भ कर दिए । अन्य दर्शक चकित हुए । लाठी पड़ता रही परन्तु पीछे नहीं हटे , छाती तानकर वहीं खड़े । इस पर नवयुवकों ने आगे बढ़कर यह वार अपने ऊपर लिया । कुछ देर पश्चात् यह अधिकारी वहां से चल दिया । चलते समय लाला जी ने पूछा - आपका क्या नाम है ? उसने मुंह को पिचकाया और घृणा पैदा कर कुछ न कहा । उसी समय एक नवयुवक ने मन ही मन में यह सोचा कि ' मत बता तू नाम अपना ? लेकिन एक दिन तेरा नाम गली गली में मारा मारा फिरेगा । उस नवयुवक की आंखें अङ्गारे जैसी लाल हो रही थीं । उसका सारा शरीर भावावेश में कांप रहा था । उसी दिन सायंकाल एक विराट् सभा में भाषण देते हुए लाला जी ने कहा था कि ' मेरे ऊपर की गई चोट ब्रिटिश साम्राज्य के कफन के लिए कील सिद्ध होगी । " वह युवक भी उसी सभा में विद्यमान था और यह विचार रहा था कि क्या सचमुच ही इस देवता का शाप अवश्य ही सफल होगा ? इस काण्ड के केवल १० दिन बाद ही १७ नवम्बर १९२८ को लाला जी उन घातक चोटों के कारण चल बसे ।

        इधर लाला जी की मृत्यु पर शोकसभायें होने लगीं । एक सभा में चितरञ्जनदास जी की धर्म पत्नी माता वसन्ती देवी ने कहा ' मैं जब यह सोचती हूं कि किसके हिंसक हाथों ने स्पर्श करने का साहस किया था एक ऐसे व्यक्ति के शरीर को , जो इतना वृद्ध , इतना आदरणीय , भारत माता के तीस कोटि नर - नारियों को इतना प्यारा था तब मैं आत्मापमान के भावों से उत्तेजित होकर कांपने लगती हूं । क्या देश का यौवन और मनुष्यत्व आज जीवित है ? क्या वह यौवन और मनुष्यत्व का भाव इस कुत्सा को उसकी लज्जा और ग्लानि अनुभव नहीं करता है ? मैं भारतभूमि की एक अबला हूं । इस प्रश्न का उत्तर चाहती हूं । अतः युवक समाज आगे आकर उत्तर दे । " 

       भारत युवक - समाज ने सचमुच ही इसका उत्तर दिया । इस भीषण काण्ड के ठीक तीन मास पश्चात् १७ दिसम्बर , सन् १९२८ को उक्त अंग्रेज अधिकारी मि० साण्डर्स संध्या के लगभग ४ बजे ज्यों ही अपने दफ्तर से मोटर साइकल पर चला त्यों ही सामने से किसी के रिवाल्वर की गोली उसके सीने में आकर लगी । वह नीच घायल होकर गिर पड़ा । पड़ते ही दो गोली और आकर लगीं । काम समाप्त हो गया । ये तीनों वीर मारकर वापिस आ गए । इन तीनों वीरों के नाम यह थे श्री वीरवर भगतसिंह जी , श्री राजगुरु जी , श्री चन्द्रशेखर आजाद । तीनों साण्डर्स को यमलोक पहुंचाकर वहां से डी० ए० वी० कालेज के भोजनालय में गये । वहां पर्याप्त समय रहकर वहां से चल दिये । 

        दूसरे दिन लाहौर में सभी प्रमुख स्थानों पर लाल रङ्ग के छपे हुए इस्तिहार लगे हुए जिनमें लिखा हुआ था " साण्डर्स मारा गया । लाला जी की मृत्यु का बदला ले लिया गया । " 

      राष्ट्रीय अपमान के इस बदले से राष्ट्र के हृदय में एक गौरव उत्पन्न हुआ । साण्डर्स के मारे जाने पर सरकारी अधिकारियों में बड़ी हल - चल मच गई । अपराधियों की शीघ्रातिशीघ्र खोज करने का कठिन आदेश दिया । पुलिस ने तत्काल ही लाहौर से बाहर जाने वाली सभी सड़कों पर अपना राज्य जमा लिया और स्टेशन पर भी विशेष गुप्तचर नियुक्त कर दिये । लाहौर के बड़े स्टेशन पर एक नौजवान सरकारी अधिकारी एक युवती के साथ दीख पड़ा । उसके साथ में टिफिन कैरियर लिए एक खानसामा भी था । उसकी चपरास पर उक्त अफसर का नाम लिखा हुआ था । थोड़ी देर में ट्रेन आई और वह अफसर कुलियों को इनाम देता हुआ प्रथम श्रेणी के डिब्बे में उस युवती के साथ जा बैठा । खानसामा भी सर्वेष्ट क्लास में बैठ गया । ट्रेन देहली की ओर चल पड़ी । वहां पचासों खुफिया आदमी विद्यमान थे और अनेक तो ऐसे थे जो भगतसिंह जी के कार्यों पर दृष्टि रखते आपके साथ रहे थे । फिर भी वे यह न जान सके कि यह अफसर और कोई नहीं वही वीरवर भगतसिंह है जिसकी खोज में हम मारे - मारे फिरते हैं और यह युवती वही क्रांतिकारिणी समिति की सदस्या थी जिसका शुभ नाम दुर्गावती था और जो खानसामा था वह राजगुरु था । इस प्रकार ये बचकर निकल आये । इधर आकर आपने पर्याप्त क्रांति के कार्य किये । कई जगह अपनी विचारधारा के केन्द्र बनाये । आपने कलकत्ता के कार्नवालिस स्ट्रीट आर्यसमाज में कुछ समय निवास किया । वहां क्रांति का कार्य करते थे । जब आप वहां से आये तब तुलसीराम चपड़ासी को अपनी थाली , कटोरी देकर आये और कहा कि कोई देशभक्त आवे तो उसको इनमें भोजन करा देना । इस प्रकार कार्य चल रहा था । इधर केन्द्रीय विधान सभा में " ट्रेड डिस्ट्रिव्यूट " का बिल पास हो रहा था । यह जनता के लिए अच्छा न था । इससे जनता अत्यधिक असन्तुष्ट थी । अतः आपने इसका विरोध करने की ठानी , विरोध इस प्रकार का कि जब यह बिल पास हो तब सभा भवन में बम्ब फेंका जाये । इस कार्य के लिए आप और अपने अनन्य मित्र बटुकेश्वरदत्त को चुना । ९ अप्रैल १९२९ को इस बिल पर मत पड़ने वाले थे । उसी दिन ये दोनों वहां जा धमके । ठीक ग्यारह बजे अध्यक्ष ने घण्टी बजाकर दो विभागों में बांटने को कहा , यह स्मरण रहे कि यह बिल अध्यक्ष महोदय ने पूर्व भी ठुकराया था । परन्तु कौंसिल आफ स्टेट ने इसे फिर विचारार्थ भेजा था । श्रीयुत पटेल ने बड़ी मर्म वेदना के साथ यह देखकर कि विरोधियों की संख्या अधिक है अत: अपने सधे हुए कण्ठ से कहा “ यह बिल पास " इतने में एक बम का धमाका हुआ । सभास्थ जनता घबरा उठी । इतने में दूसरा बम भी आ गया , सभा भवन धुएं से भर गया । इस आवाज के होते ही सदस्य वर्ग में भगदड़ मच गई । अध्यक्ष के पास बैठे हुए सर जान साईमन पल भर में छिप गये । होम मेम्बर सर जेम्स केसर कुर्सियों के नीचे छिपे । केवल दो सदस्य अपने स्थान पर स्थित थे । पं० मोतीलाल नेहरू और पं० मदन मोहन मालवीय । 

    जब धुआं कुछ साफ हुआ तो लोगों ने देखा कि महिलाओं की गैलरी के पास यूरोपियन वेशभूषा से सुसज्जित दो युवक खड़े हुए मुस्करा रहे थे । जब सभा में कुछ शान्ति हुई तब दोनों ही युवकों ने लाल पर्चे वितरित करने प्रारम्भ कर दिए । जिसका प्रथम वाक्य था " बहरों को सुनाने के लिए जोर से बोलना पड़ता है " और इसके नीचे “ हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन " के अध्यक्ष के हस्ता क्षर थे । पर्चे वितरण के पश्चात् यदि आप भागना चाहते तो अवश्य भाग सकते थे । परन्तु इन दोनों का कार्यक्रम और ही था । अतः वहीं खड़े रहे । कुछ देर बाद विधान सभा को घेर लिया गया परन्तु इन दो युवकों के पास कौन जावे । देखा कि ये हम से डरते हैं , इन दोनों ने भरे हुये रिवाल्वर अपने पास में से निकाल कर फैंक दिए । फिर क्या था ? पुलिस वाले इन वीर युवकों को वश में कर ले गये । इन युवकों ने चलते समय ‘ इन्कलाब जिन्दाबाद " " साईमन का नाश हो " इन नारों से आकाश को गुञ्जा दिया । इस समय इन युवकों के मुख पर कोई भय न था । एक स्वाभाविक मुस्कराहट के साथ अपने कार्य को सुचारु रूप से कर सकने पर सन्तोष प्रकट कर रहे थे । 

    इसके पश्चात् आप दोनों को देहली पुलिस चौकी में ले जाया गया । वहां आप दोनों को अलग अलग ही रखा गया । कुछ देर बाद सी० आई० डी० विभाग का एक अधिकारी आया और कहा " तुम्हारे जैसे लड़कों को तो मैं मिनटों में ठीक कर देता है । अपने आपको तुम क्या समझते हो ? तुम्हारे साथियों ने सब कुछ स्वीकार कर लिया । यदि भला चाहते हो तो तुम भी बतायो नहीं तो इतना कहकर आपको वश में करना चाहा , परन्तु दाल न गली । 

    नौकरशाही इन वीरों को अपने मार्ग से विचलित न कर सकी । इन पर मुकदमा चलाया गया । ७ मई से मुकदमा चला , जो १२ जून सन् १९२९ को सेशन में जाकर समाप्त होगया । वीरवर भगत सिंह और बटुकेश्वरदत्त ने एक संयुक्त वक्तव्य दिया -- " कांतिकारी दल का उद्देश्य देश में मजदूरों तथा किसानों का समाजवादी राज्य स्थापित करना है । क्रांतिकारी समिति जनता की भलाई के लिए लड़ रही है । " वीरवर भगतसिंह और बटुकेश्वरदत्त ने जो वक्तव्य अदालत में दिया वह बहुत ही विद्वत्ता पूर्ण था । इससे पूर्व किसी भी क्रांतिकारी ने अदालत में खड़े होकर ऐसा वक्तव्य नहीं दिया । 

       २३ अक्तुबर सन् १९२८ को जो बम दशहरे के मेले पर फटा था , उससे दस तो यमलोक पहुंच गये और ३० घायल हो गये । नौकरशाही ने इस मामले की छानबीन करनी शुरू की । जिसके फल स्वरूप पता लगा कि मि० साण्डर्स की हत्या करने में वीरवर भगतसिंह का भी हाथ था । इस सम्बन्ध में १६ व्यक्तियों पर केस चला । बाकी ने अनशन किया । अनशन में यतीन्द्रनाथ शहीद हो गये । इससे मुकदमे में काफी समय लग गया । इधर जनता में प्रचार हो गया । और भी जागृति हो गई । सरकार ने एक अडिनेन्स गजट में प्रकाशित किया । मुकदमा मैजिस्ट्रेट से हटकर तीन जजों के एक ट्रिब्यूनल के सामने आया । इन तीन जजों की अदालत को यह अधिकार दिया गया कि अभियुक्तों की अनुपस्थिति में भी उन पर मुकदमा चलाया जाये । ट्रिब्यूनल ने इस मुकदमे का फैसला ७ अक्तू बर सन् १९३० को इस प्रकार सुनाया- “ वीरवर भगतसिंह , शिवराम राजगुरु और सुखदेव को फांसी । विजयकुमारसिंह , किशोरीलाल , शिव वर्मा , गयाप्रसाद , जयदेव और और कमलनाथ त्रिवेदी को आजन्म कालापानी की सजा । कुन्दनलाल को ७ साल और प्रेमदत्त को ३ साल की कैद । " 

      वीरवर भगतसिंह की फांसी के समाचारों पर देश के कोने - कोने से रोष प्रकट किया गया । हड़तालें हुई । बम्बई में तो ट्रामें तक रुक गईं । ११ फरवरी सन् १९३१ को प्रीवी कौंसिल में इस मुकदमे की अपील की , किन्तु वह रद कर दी गई । वीरवर भगतसिंह , शिवराम राजगुरु तथा सुखदेव फांसी घर में बन्द थे । नौकरशाही सरकार के जज महोदयों ने इन लोगों को फांसी की सजा देना ही ठीक समझा , लेकिन सारा देश इस सजा के विपरीत था । यहां तक कि कांग्रेस वाले भी जनता की सद्भावनाओं को साथ लेकर देश के इन पुजारियों को फन्दे से छुड़ाने का प्रयत्न करने लगे । महात्मा गांधी को वायसराय ने कहा कि मैं सरकार को इस सम्बन्ध में लिखुंगा और कराची कांग्रेस अधिवेशन हो लेने तक फांसी रुकवा दूंगा । इस पर महात्मा गांधी ने कहा- यदि नौजवानों को फांसी पर लटकाना ही है तो कांग्रेस अधिवेशन के बाद ऐसा करने की बजाय पहले ऐसा करना ठीक होगा । इससे लोगों को पता चल जायेगा कि वस्तुतः उनको स्थिति क्या है और लोगों के दिलों में झूठी आशाएं न बन्धेगी । पं . नेहरू ने अपनी आत्म - कथा में लिखा है 

    " तारीख २३ मार्च सन् १९३१ को सायंकाल इन तीनों को फांसी दे दी गई । यों तो कायदा है सवेरे फांसी देने का किन्तु इनके लिए इस नियम को भङ्ग किया गया । उनकी लाशें सम्बन्धियों को नहीं दी गई तथा उनको बड़ी बेपरवाही से मिट्टी का तेल डालकर जला दिया गया । उनके फूल अनाथों के फूल की भांति सतलुज में डलवा दिए गये । सारा देश आंखों की पंखुड़ियां बिछाकर जिनका स्वागत करने को तैयार था तथा जिनके " जिन्दाबाद ' के नारे लगाते - लगाते मुल्क का गला बैठ गया था , उन पुरुषसिंहों को साम्राज्यवाद ने इस प्रकार हत्या कर डाली । कितनी बड़ी गुस्ताखी और कितना बड़ा अपराध था ? सरकार जनमत की कितनी परवाह करती है ? यह इसी बात से कांग्रेस के नेताओं पर जाहिर हो जानी चाहिए थी , किन्तु .... ? ? 

   पाठकों को आश्चर्य होगा कि महीनों फांसीधर में रहने के बाद भी वीरवर भगतसिंह का दिमाग और हृदय कितना स्वच्छ और साफ था । उन्होंने अपने छोटे भाई कुलतारसिंह के नाम अन्तिम पत्र लिखा था 

” अजीज कुलतार !
आज तुम्हारी आंखों में आंसू देखकर बहुत रंज हुआ । आज तुम्हारी बातों में बहुत दर्द था । तुम्हारे आंसू तो बर्दास्त नहीं होते ।
खबरदार ! परिश्रम से काम लेना , शिक्षा प्राप्त करना और सेहत का ध्यान रखना । हौसला रखना । और क्या कहूं —-

  उसे फिक्र है हरदम नया तजें जफर क्या हैं 
  हमें यह शौक देखें सितम की इन्तहा क्या है 
  घर से क्यों खपा रहे , खर्च का क्यों गिला करें । 
  सारा जहां अदू साथी आओ मुकाबला करें । 
  कोई दम का महमां हूँ , ऐ अटले महफिल ,
  चिरागे सेहर हूं , बुझा चाहता हूं । 
  मेरी हवा में रहेगी ख्याल की बिजली , 
  यह मुश्ते खाक है , फानी रहे या न रहे । 

अच्छा आज्ञा ? खुश रहो अहले वतन ! हम तो सफर करते हैं । ” हौंसले से रहना । नमस्ते ।
तुम्हारा भाई ।

    आपके फांसी के समय जवाहरलाल नेहरू ने इस प्रकार कहा था----------

    मैं भगतसिंह तथा उनके साथियों के बारे में अन्तिम दिनों में मौन धारण किये रहा , क्योंकि मैं डरता था कि कहीं मेरे किसी शब्द से फांसी की सजा रद्द होने की सम्भावना जाती न रहे । मैं चुप रहा , यद्यपि मेरी इच्छा होती थी कि मैं उबल पडूं । हम सब मिलकर उन्हें बचा न सके । वे हमारे बहुत प्रिय थे , उनका महान् त्याग और साहस भारत के नौजवानों के लिए एक प्रेरणा की चीज थी और है । हमारी इस असहायता पर देश में दुःख प्रकट किया जायेगा । किन्तु साथ ही हमारे देश को स्वर्गीय आत्मा पर गर्व है और “ जब इङ्गलैंड हमसे समझौते की बात करे तो हम भगतसिह की लाश को भूल न जायेंगे । 

            अन्य कुछ विशेष घटनाएं 

पंजाब में घी अधिक मात्रा में खाने का प्रचलन है । भगतसिंह को पंजाब निवासी होने के कारण घी , दूध का शौक किसी से कम नहीं था । लाहौर के अनारकली बाजार में काल्लू दूध , दही वाले के यहां किशनसिंह का उधार हिसाब चलता था । इस कारण भगतसिंह जी वहां जाकर दूध , घी खाते थे और साथियों को भी खिलाते थे । इसी प्रकार आप भोजन में भी किसी से कम न थे । यदि राजाराम शास्त्री होटल में दिखाई दे तो आप अत्यावश्यक कार्य को छोड़कर भी भूख न होने पर भी उनके कटोरे में से समस्त घी निकालकर पी जाते थे । शास्त्री जी हाथ फैलाये ” देखो रे ! देखो रे ! क्या कर रहा है , अरे ! देखो इस जाट को । ” सहायता के लिए दुहाई देते रह जाते । आपके पिता जी आपका विवाह करना चाहते थे । आपका विचार विवाह न करने के कारण एक दिन आपने कहा कि मुझे पढ़ने लिखने का शौक है । इसलिए लड़की भी पढ़ी लिखी होनी चाहिए । इस पर आपके पिता जी उबल पड़े – पढ़ी लिखी लड़की में कुछ और बढ़ जाता है क्या ? पढ़ी लिखी औरत से पैदा बच्चे को क्या पढ़ाना नहीं पड़ता ? भगतसिंह और बटुकेश्वरदत्त के आत्मसमर्पण कर देने पर सशस्त्र पुलिस ने आपको बड़े साज वाज से पकड़कर और बहुत सावधानी से उन्हें मोटर में बिठाकर नई दिल्ली के थाने की ओर ले गई । आपकी मोटर सड़क पर एक तांगे के पास गई । इस तांगे में क्रांतिकारी भगवतीचरण , भाभी दुर्गा देवी और सुशीलादेवी जी विद्यमान थीं और सुखदेव जी तांगे का सहारा लिए साईकल पर चल रहे थे । तांगे के पास से भरी मोटरें गुजरने पर इन लोगों ने एक दूसरे को पहचाना परन्तु व्यवहार न पहचानने का किया । यह मन का कितना बड़ा संयम था । भगतसिंह को उस समय मृत्यु के हाथों से लौटा लेने के लिए अपने प्राण दे देना अधिक सरल था । संयम और अनुशासन का ऐसा उदाहरण मिलना कठिन । परन्तु श्रीमती दुर्गादेवी की गोद में बैठा हुआ “ सची ” भगतसिंह को देखकर उस तरफ हाथ करके चिल्ला उठा- ” लम्बे चाचा जी । ” इस पर दुर्गादेवी ने तुरन्त उसका मुंह गोद में दबाकर शान्त कर दिया । इस प्रकार से उन्होंने अपने प्राण बचाये ।

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