संसार के रचयिता जगदीश्वर के इस सर्वोत्तम नाम में तीन अनादि सत्ता समायी हुई हैं, जिनका विस्तार से धारा प्रवाह शैली में विवेचन किया जा रहा है। जो कि निम्नलिखित है-
तीन अनादि सत्ता- ईश्वर, जीव, प्रकृति।
उनके प्रतिनिधि अक्षर- अ, उ, म्।
अ अमृत है, म् प्रकृति है। उ अमर म् के पास रहता रहेगा तो यह सतत मरता रहेगा, जन्मता रहेगा। अगर यह अ के पास जाएगा तो अमृत हो जाएगा- अमर हो जाएगा।
अ स्वर अक्षर है। म् व्यंजन है, व्यंजन बिना स्वर के खड़ा ही नहीं हो सकता, उस के सहारे के बिना बोला ही नहीं जा सकता। जो म् अन्य के आश्रय है वह तुझे अद्वितीय आश्रय कैसे दे सकता है? उस को तो अ प्रभु देता रहेगा तो निश्चय से वह तुझे उ को कुछ दे सकेगा।
उ का मुख अ की ओर है पर कभी अ उ म् में उ का उल्टा पृष्ठ हो जाता है तो बड़ी हानि होती है पर स्वाभाविक रूप से अपनी चेतन बिरादरी की ओर ही उस का मुख है उधर को बढ़ेगा तो अ+उम्-ओम्। उ भी बन जाएगा म् के पास उ पड़ा रहेगा तो ऐसा ही सदा बना रहेगा। आप कहोगे इस के संग से पुत्र पौत्रों वाला, स्त्री पुत्र वाला दुहित दौहित्रों बाला, मोटा ताजा धन-धान्य बाला, कार कोठी वाला इत्यादि रूप में कितना बढ गया। पर सच पूछो यह यों कितना भी बढ़ेगा उ का उ ही रहेगा।
धियो जमाई ले गये बहुएं ले गईं पूत।
तू रहा ऊत का ऊत।।
आप कहोगे पुत्र तो साथ रहता है बहू भी मर जाती हंै। फिर भी कार, कोठी, जमीन जायदाद आदि तो रहती हैं। मरने पर सब जाने पर उ का उ खाली आया खाली, वैसा ही वैसा ही रह जाता है पर अगर वह अ की ओर जाता है तो अ के संगी बन कर अमर हो जाता है।
तू नेकी में जाग बुराई में सो जा।
तू मुंह मोड़ माया से भगवान का हो जा।।
जो दुनिया का दिन हो तेरी रात हो।।
जो दुनिया की हो रात तेरा दिन हो।
(या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागग्रति संयमी)
अ अविनाशी है म् माया-प्रकृति विकृति विनाशी है। नश्वर से हटकर अविनाशी का पल्ला पकड़।
अ उ को कहता है-तू मेरी ओर आ, प्रकृति की ओर मत जा। पर अ बुलाता है तब भी म् प्रकृति कहती है कि तू अ की ओर मत जा। मेरे पास रह मैं तुझ को बहुत कुछ खिलाउंगी, पिलाउंगी, पहनाउंगी, ओढ़ाउंगी, घुमाउंगी, फिराउंगी। पत्नी, पुत्र, पौत्र, दुहित, दौहित्र दूंगी नानाविध खेल तमाशे दिखाउंगी।
उ जीव का मुख अ अविनाशी अमृत प्रभु की ओर है उस को कुछ जान कर मुस्कराता भी है पर सोचता है इसके पास न दूध, न फल, न टॉफी, न खिलौने, न कपड़े, न लत्ते कुछ भी तो उसमें आकर्षण नहीं। सोचता है म् प्रकृति रूप मां के पास ही दूध फल नानाविध वस्त्र, जमीन जायदाद आदि है। अत: उस की गोदी से हटता नहीं। उसमें बैठकर कभी सुख दुख आदि पाता है, पर अगर अ की ओर आगे बढ़ जाता है तो आनंद विभोर हो जाता है।
अ उ म् उ जीव जब सतत ध्यानी बनकर अ की ओर देखता रहता है, उस पर सोचता, विचारता, मनन करता रहता है। सतत स्नेह श्रद्घा भक्ति से उस परम पिता को निहारता रहता है तो उसकी समझ में यह आने लगता है कि यह म् मेरी मां भी तो अ पिता प्रभु की कृपा से ही इस घर में आयी है। यह दूध, फल, कपड़े लत्ते, नानाविध पदार्थ भी प्रभु, पिता की कृपा व्यवस्था से सब कुछ आया है। अगर सूर्य को वह प्रकाश न देता तो वह बिचारा हम को क्या देता। यह प्रकाश प्रकृति रूप मां सूर्य का अपना नहीं (तस्य भासा सर्वमिदं विभाति) इस मां के स्तनों में जो दुग्ध है यह भी उस पिता की व्यवस्था से ही बना है और मुझे मिला है। फिर ऐसे थर्मसों में कवोष्ण रखा कि बच्चों का मुंह भी न जले और शीतल न होने से बाई भी न करे। यह बादाम, मूंगफली, गन्ना, चीकू, केला, अमरूद, सेब आदि उसकी व्यवस्था से ही यह मां दे पाती है। अगर पिता अर्थार्जन कर यह सब न लाए इनकी व्यवस्था न करे तो यह मां बेचारी कहां से बच्चों को खिलाए, पिलाए, पहनाए, ओढाए, पहले यह बच्चा घर में मां के पास ही रहता है। यही उसे खाने पीने पहनने ओढने को सब देती है। सोचता है इस खूसट खुश्क पिता के पास मेरे लिए क्या धरा है? पर धीरे धीरे पता लगा कि यह सब इसी की कृपा व्यवस्था का परिणाम है तो एक दिन प्यार से उनके साथ दुकान पर या फर्म या फेेक्टरी में चला गया तो अ पिता के पास जाने पर उ से बन गया और फलस्वरूप फर्म का नाम पड़ गया-भगवानदास मोहनलाल एण्ड संस। अरे बाप के पास तो वह सब है जिससे घर, दुकान, कार, कोठी, खाने, पीने रहने के सब साधन आते हैं।
फिर वह इतना मस्त हो जाता है कि पिता के पास बैठकर कि मां रोटी के लिए घर बुलाती है तब भी वह घर नहीं आता है। कहता है मां दुकान में ही अपना प्यार या रोटी भेज दे, पर घर नहीं आता। बूढ़ा बाप तो घर आ जाता है पर पुत्र नहीं आता। उसको धन वैभव में मजा आ गया। फिर मां विवाह कराती है फिर फंस जाता है पर धन की लत फिर उधर ले जाती है।
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