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महर्षि दयानन्द जी ने संस्कार विधि की रचना की है। इस ग्रन्थ में 16 संस्कारों को करने का विधान है। महर्षि ने लिखा है कि मनुष्यों के शरीर और आत्मा के उत्तम होने के लिए निषेक अर्थात् गर्भाधान से लेके श्मशानान्त अर्थात् अन्त्येष्टि-मृत्यु के पश्चात् मृतक शरीर का विधिपूर्वक दाह करने पर्यन्त 16 संस्कार होते हैं। वह बताते हैं कि शरीर का आरम्भ गर्भाधान और शरीर का अन्त मृत्यु होने पर मृतक शरीर को भस्म कर देने तक सोलह प्रकार के उत्तम संस्कार करने होते हैं। संस्कार विधि में सभी संस्कारों को करने की विधि दी गई है। यह सभी संस्कार व व पुस्तक में दी गई इनकी विधियां वेदसम्मत हैं। इन सभी संस्कारों का विधान ऋषि वेदमंत्रों के आधार पर ही करते हैं। संस्कार संबंधी सभी क्रियायें वेद एवं शास्त्रों के आधार पर ही करने का विधान ग्रन्थ में दिया गया है। संस्कार की विधि आरम्भ करने से पहले ऋषि दयानन्द जी ने प्रत्येक संस्कार के आरम्भ में संस्कार क्यों किया जाता है व उसे करने का क्या महत्व अथवा लाभ है, इसका उल्लेख भी किया है। प्रथम हम इन सोलह संस्कारों के नामों को जान लेते हैं। ये हैं गर्भाधान, पुंसवनम्, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, कर्णवेध, उपनयन, वेदारम्भ, समावर्तन, विवाह, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ, संन्यास एवं अन्त्येष्टि-कर्म। अन्त्येष्टि कर्म जीवात्मा का संस्कार न होकर मृतक शरीर को भस्म करने की वैदिक व वैज्ञानिक विधि है। इसलिये यह 16 संस्कारों में सम्मिलित नहीं है। इसका स्थान 17वां है।
महर्षि दयानन्द जी ने संस्कारविधि में 16 संस्कारों व अन्त्येष्टि कर्म की विधि दी है। सभी संस्कारों के आरम्भ में प्रमाण-वचन और उनके प्रयोजन से अवगत कराया गया है। इसके पश्चात् संस्कार में जो-जो कर्तव्य विधि है, उसे क्रम से दिया गया है। संस्कार विधि के आरम्भ में सामान्य प्रकरण लिखकर सभी संस्कारों के आरम्भ में की जाने वाली विधि को भी प्रस्तुत किया गया है। महर्षि ने संस्कारों के विषय में कहा है कि सोलह संस्कारों के द्वारा मनुष्य का शरीर और आत्मा सुसंस्कृत होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त हो सकते हैं। इन संस्कारों को करने से सन्तान अत्यन्त योग्य होते हैं। इसलिए संस्कारविधि के अनुसार सभी संस्कारों का करना सब मनुष्यों को अति उचित है।
आजकल समाज वा वैदिक एवं इतर परिवारों में सभी 16 संस्कार प्रायः नहीं किये जाते हैं। नामकरण, चूडाकर्म, विवाह व अन्त्येष्टि कर्म ही मुख्यतः प्रचलित हैं। गुरुकुलों में देश की जनसंख्या का एक बहुत छोटा भाग ही शिक्षा प्राप्त करता हैं जहां उपनयन और वेदारम्भ संस्कार भी होते हैं। हमें लगता है कि आजकल समाज पर पाश्चात्य विचारों व परम्पराओं का प्रभाव है। लोगों में वैदिक धर्म व संस्कृति को जानने व समझने की इच्छा शक्ति का भी अभाव दिखाई देता है। इसी कारण संस्कारों के महत्व से अपरिचित वा अनभिज्ञ लोग सभी संस्कारों को नहीं कराते हैं। आर्यसमाज के विद्वान भी अपने लेखों व प्रवचनों में सभी संस्कारों को कराये जाने के पक्ष में बहुत ही कम चर्चा करते हैं। हमें लगता है कि कहीं न कहीं हमारे विद्वान भी संस्कारों के महत्व व लाभों से पूरी तरह से परिचित व आश्वस्त नहीं हैं। संस्कारों के महत्व की जानकारी देने के लिए आर्यसमाज में संस्कार चन्द्रिका, संस्कार समुच्चय, संस्कार भास्कर आदि कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध हैं। स्वाध्यायशील आर्यबन्धुओं को इन ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। विद्वानों को आर्यसमाज के सिद्धान्तानुसार संस्कार कराने वाले परिवारों में गुण दोषों का वा उन परिवारों की उन्नति-अवनति का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत करना चाहिये। हमें यह उचित लगता है कि सभी संस्कारों को कराते हुए आधुनिक शिक्षा का ग्रहण भी आर्यबन्धुओं व परिवारों को अपने बच्चों को कराना चाहिये। ऐसा होने पर बच्चों में वैदिक संस्कारों सहित आधुनिक ज्ञान विज्ञान भी आश्रय पा सकेगा और वह आधुनिक शिक्षा वाले बच्चों से प्रतिस्पर्धा कर सकेंगे। वह भी इंजीनियर, डाक्टर, प्रबन्ध-पटु होने के साथ आईएएस, राजनेता आदि बन सकेंगे।
आज हम देश में ऐसे लोगों व नेताओं को देख रहे हैं जो आर्यसमाज व वैदिक विचारधारा से किसी प्रकार से जुड़े नहीं है परन्तु फिर भी अच्छे व प्रशंसनीय कार्य कर रहे हैं। राजनीति में लोग हैं जो पौराणिक व सनातनी संस्कारों के हैं। वह योगासन व ध्यान आदि की क्रियायें भी करते हैं। मूर्तिपूजा भी व करते हैं। वह सभी पौराणिक कर्मकाण्डों के प्रति अपनी आस्था व विश्वास को छुपाते नहीं हैं और देश की राजनीति सहित विश्व में भी उनका गौरवपूर्ण स्थान है। हमें यह लगता है कि सभी विचारधारायें, भले ही वह कम व अधिक वेद सम्मत न भी हों, तो भी मनुष्यों का जीवन किसी न किसी रूप में तो विकसित होता ही है। वैदिक विचारधारा मनुष्य के जीवन से असत्य, अज्ञान, अन्धविश्वास, मिथ्या-विश्वास, अनावश्यक व अज्ञानाधारित कर्मकाण्ड को दूर करती है। आध्यात्मिक दृष्टि से आर्यसमाज का विद्वान व अनुयायी और व्यक्तियों से अधिक प्रबुद्ध व ज्ञान रखने वाला होता है। वह सन्ध्योपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, वेदों व आर्ष ग्रन्थों का स्वाध्याय, समाज सेवा आदि कार्यों को करता है। उसका व्यक्तिगत जीवन अन्यों से उत्तम होता है। इसके भी अपवाद समाज में मौजूद हैं। कुछ आदर्श जीवन के विपरीत कार्य करने वाले अधिकारी व नेता भी समाज में हैं। उनमें साथ मिलकर व योग्यता का सम्मान करने का गुण जितना होना चाहिये उतना दिखाई नहीं देता। आपसी झगड़ों को कोर्ट कचहरी से सुलज्ञाने में भी वह परहेज नहीं करते। वैदिक संस्कारों के होकर भी वह इन्हें भूले हुए दिखाई देते हैं। संगठन सूक्त और शान्ति पाठ करने के बावजूद इन मंत्रों की भावना का उन लोगों में कोई स्थान दिखाई नहीं देता। ऐसी स्थिति में यह विचारणीय हो जाता है कि आर्य संस्कारों के होने पर भी मनुष्य संस्कारविहीन मनुष्य जैसा क्यों हो जाता है? इसका अर्थ यही लगता है कि वह कहीं न कहीं लोकैषणा, वित्तैषणा या पुत्रैषणा से ग्रस्त होता है। इसमें उनका प्रारब्ध भी सहायक हो सकता है। कुछ सामाजिक नेताओं में अभिमान आदि होता है। मन, वचन व कर्म से एक होने वाले विद्वान व नेता कम ही होते हैं। इसी कारण शायद वह अपने आदर्श व्यवहार व गुणों से भटक जाते है। हम संस्कारों की चर्चा कर रहे थे और हमें लगा कि यह विषय भी कुछ-कुछ संस्कारों से जुड़ा है, अतः इसे भी चर्चा में ले लिया।
स्वामी दयानन्द उच्चकोटि के ईश्वर, वेदभक्त एवं चारों वेदों के उच्चकोटि के विद्वान थे। वह सच्चे योगी भी थे। वह वेदर्षि थे। उनका कोई भी शब्द व वाक्य सत्य के विपरीत नहीं हो सकता। अतः संस्कारों पर विद्वानों को विशेष ध्यान देना चाहिये। उन्हें अपने प्रवचनों में संस्कारों को भी प्रमुखता देनी चाहिये और इससे जुड़े प्रमाणों, युक्तियों व उदाहरणों को प्रस्तुत कर वैदिक संस्कारों को करने व उनके अनुसार जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा करनी चाहिये। महर्षि दयारनन्द ने संस्कार विधि में जिन संस्कारों का विधान किया है वह समस्त मानव समाज सहित देश-देशान्तर के लोगों में प्रचलित होने चाहियें, इस ओर हमें ध्यान देना है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य