वैदिक ऋषियों, महर्षियों, मनीषियों द्वारा वेदों, पुराणों, धर्मशास्त्रों, काव्यग्रंथों के माध्यम से समृद्घ भारतीय चिंतन को देववाणी के रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है जो कि भारतीय संस्कृति की आधारशिला है। भारतीय संस्कृति के संदर्भ में संस्कृति: संस्कृतमाश्रिता-यह कथन पूर्णतया सार्थक है। वैदिक ऋषि ने इस संस्कृति को सबके द्वारा श्रेष्ठ प्रथम संस्कृति स्वीकार किया है-सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा।।
समानता, विश्वबन्धुत्व, अहिंसा, कत्र्तव्यपारायणता, अतिथि-सत्कार, ग्यागशीलता आदि उच्च भारतीय संस्कृति के पक्ष हैं। भारतीय संस्कृति समानता की चर्चा करती है। प्रथक्तावाद के विपरीत अथर्ववेद में समानता की कामना की गयी है कि मनुष्यों के जल पीने के स्थान तथा अन्न का भाग समान हो। सभी एक ही प्रेमपाश में समानरूप से बंधे रहे।
ऋग्वेद के विभिन्न मंत्रों में भी परस्पर समानता व भाई-चारे का भाव परिलक्षित होता है।
दक्षस्मृति का कथन है कि सभी प्राणियों में समत्वबुद्घि रखने से अर्थात सबके प्रति समानता का आचरण करने पर ही योग सिद्घ होता है, किसी अन्य उपाय से नहीं सर्वभूत समात्वेन योग: सिध्यति नाअन्यथा।।
भारतीय संस्कृति विश्व बंधुत्व की भावना से ओत-प्रोत है। वेद तो समस्त विश्व को एक कुटुम्ब मानते हुए सबमें बंधुभाव एवं प्रेम भावना की प्रार्थना करता है। विश्व बंधुत्व की ओर संकेत करते हुए वैदिक ऋषि का स्पष्टï कथन है कि युद्घ से किसी का भी भला नहीं होता।
भारतीय संस्कृति हिंसा के पूर्णत: विरूद्घ है। अश्विनौ सूक्त में प्रार्थना की गयी है कि आप दोनों अश्विनी कुमार दिनरात हमसे हिंसा को दूर रखें……दिवा नक्तं शरूमसस्म द्ययोतम्।
उत्ररामचरितम में सीता निर्वासन से दु:खी राजा जनक पर कुपित होकर धनुष उठाने की बात सोचतेहैं तो अरूंधती उन्हें कहती है, राम तो आपके पुत्र हैं तथा दीन प्रजाजन रक्षणीय होते हैं। राजन्नपत्यं रामस्ते पाल्याश्च कृपणा: प्रजा:।।
राम के प्रति हिंसा रोकते हुए जनक का कथन है कि राम के प्रति मेरा चाप शांत हो जाए क्योंक वे मेरे पुत्र हैं तथा प्रजाजनों में बहुत से ब्राहमण, बालक वृद्घ अंगहीन तथा स्त्रीसमूह हैं।
अत: भारतीय संस्कृति किसी भी प्रकार की हिंसा का सहन नहीं करती। ऋग्वेद का निर्देश है कि हिंसा का प्रयोग केवल दुष्टïों के नाश हेतु ही किया जाना चाहिए। त्वष्टïा से प्राप्त स्वर्ण निर्मित वज्र को इंद्र युद्घ में जलों को मुक्त करवाने के लिए ही धारण करते हैं न कि सर्वत्र।
भारतीय संस्कृति संतान की माता पिता के प्रति निष्ठा एवं कत्र्तव्यपरायणता की पक्षधर है। माता-पिता के लिए संतान स्नेह की सर्वोच्च सीमा है। महाभारत के अनुसार यज्ञ, दान अध्ययन एवं बहुदक्षिणा वाले यज्ञ ये सभी संतानोत्पत्ति के सोलहवें अंश के भी समतुल्य नहीं है।
इष्टïं दत्तमधीतं च यज्ञाश्च बहुदक्षिणा:। सर्वमेदपत्यस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम।।
उत्तररामचरितम के अनुसार पति पत्नी के स्नेहयुक्त हृदयों को एकबंधन में बांधने वाली ग्रंथि तथा हृदय में बिखरे हुए प्रेमकणों के मूर्तरूप को ही संतान माना गया है।
यदि माता-पिता के लिए संतान का इतना अधिक महत्व है तो संतान को भी चाहिए कि वह अपने माता पिता के प्रति अपने कर्तव्यों का भली भांति पालन करे। शुक्रनीति के क्षणभर के लिए भी माता पिता गुरू आदि का मन से विरोध या अपकार करने का निर्देश नहीं देती है।
महर्षि मनु भी माता, पिता, गुरू आदि वृद्घजनों की सेवा तथा अभिवादन के फलस्वरूप आयु, विद्या, यश एवं बल प्राप्ति का संकेत देते हैं। अतिथि देवो भव की भावना को प्रतिपादित करता हुआ वैदिक साहित्य अतिथि पराण्याता रूपी भारतीय संस्कृति को दर्शाता है। बौधायन-धर्मसूत्र क्रमश: अतिथियों, गर्भिणी स्त्रियों, बालकों, वृद्घों दुखी व्यक्तियों तथा विशेषत: रोगी व्यक्तियों को भोजन करवाने का निर्देश देता है।
हितोपदेश का कथन है कि बालक, युवा, वृद्घ जो कोई भी आपके घर आए, वह पूजनीय होता है-
बालो वा यदि वा वृद्घो युवा का गृहमागत:।
तस्य पूजा विधातव्या, सर्वस्याअभ्यागतो गुरू।।
भारतीय संस्कृति तो यहां तक कहती है कि यदि आपके पास धन न भी हो तो प्रेममय वचनों से ही अतिथि की पूजा करनी चाहिए-
यदि वा धनं नास्ति तदा प्रीतिवचसाअपि, अतिथि पूज्य एव।।
भारतीय संस्कृति पास एवं हिंसा से रहित धनार्जन पर बल देती हुई व्यक्ति में धमण्ड एवं उद्घता के विपरीत नम्रता की कामना करती है।
आज के भौतिकवादी युग में मनुष्य कामनाओं, लोभ एवं क्रोध के अभिभूत होकर अनेक निंदनीय कर्मों को करने में प्रवृत्त होता जा रहा है, किंतु भारतीय संस्कृति श्रीमदभागवत गीता के माध्यम से काम, क्रोध एवं लोभ की निंदा करते हुए इन्हें दुखों का कारण बताती है।
ईशावास्योपनिषद में धन के प्रति आसवित का त्याग करके इसका उपभोग करने का निर्देश दिया गया है।
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्चित जगत्यां जगत। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा: मा गृध: कस्य स्विद्घनम।।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्टï है कि संस्कृत साहित्य में भारतीय संस्कृति के संपूर्ण पक्षों का आदर्शरूप वर्णित है।
इन आदर्श पक्षों को अपना कर एक सुंदर, स्वस्थ एवं सुदृढ समाज का सृजन किया जा सकता है।
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