इसकी तुलना बीमारी से करना बौखलाहट है
ललित गर्ग
लोकसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आते जा रहे हैं, विभिन्न राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं की बौखलाहट बढ़ती जा रही है। इसी बौखलाहट का नतीजा है सनातन धर्म की बीमारी से तुलना करना। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे और खेल मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने विवादास्पद बयान में सनातन धर्म की तुलना डेंगी, मच्छर, मलेरिया, और कोविड से करते हुए असंख्य सनातनधर्मियों की आस्था पर कुठाराघात किया है। उनकी ही पार्टी डीएमके के सांसद ए राजा ने तो हदें ही लांघ दी है, वे कहते हैं कि हिंदू धर्म ‘न सिर्फ भारत बल्कि पूरी दुनिया के लिए अभिशाप है।’ इन डीएमके नेताओं के बयानों से जब विवाद संभला नहीं तो उन्होंने सफाई दी, लेकिन अपनी बात पर अड़े रह कर उदयनिधि ने कहा कि उन्होंने सनातन धर्म की बुराइयों को खत्म करने की बात कही है, न कि इसे मानने वालों को। जब कोई विवाद खड़ा किया जाता है, तो उसका व्यापक असर होता है, जनभावनाएं आहत एवं लहूलुहान होती है। फिर ऐसी स्थितियों में डॉ. भीमराव आंबेडकर जैसे महापुरुषों को आधार बनाकर अपनी कहीं बातों से किनारा पाने की कुचेष्ठा भी होती है, ये स्थितियां भारतीय राजनीति की विडम्बना एवं विसंगति है।
राजनीतिक स्वार्थों एवं संकीर्णताओं के चलते भारत की हजारों साल पुरानी संस्कृति एवं परम्परा को धुंधलाने एवं झुठलाने के ये षड़यंत्र राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता की बड़ी बाधा है। असल में लोकतांत्रिक समाज में राजनीतिक दलों को हमेशा ऐसे संवेदनशील एवं भावनात्मक मुद्दों की तलाश रहती है, जिससे बड़े पैमाने पर वोटरों को प्रभावित किया जा सके। धार्मिक मुद्दे इस पैमाने पर बिल्कुल ठीक बैठते हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि धार्मिक मुद्दों का हमेशा राजनीतिक फायदा हो ही, कभी-कभी लाभ की जगह नुकसान भी झेलना पड़ जाता है। ताजा सनातन मामला अब न्यायालय में विचाराधीन है, सनातन धर्म को लेकर जारी विवाद के बीच मद्रास हाईकोर्ट ने एक अहम टिप्पणी में कहा है कि सनातन धर्म शाश्वत कर्त्तव्यों का समूह है जिसमें देश के प्रति कर्त्तव्य, राजा का कर्त्तव्य, राजा के जनता के प्रति कर्त्तव्य, माता-पिता और गुरुओं के प्रति कर्त्तव्य और गरीबों की देखभाल और कई अन्य कर्त्तव्य हैं। कोर्ट ने स्पष्ट निर्देश देते हुए कहा कि जब धर्म को लेकर कोई टिप्पणी की जाती है तो उसमें ध्यान रखना चाहिए कि उससे किसी की भावनाएं आहत नहीं होनी चाहिए।
हाईकोर्ट ने यह भी कहा है कि संविधान में बोलने की आजादी मिली हुई है लेकिन बोलने की आजादी नफरत में नहीं बदलनी चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता घृणित भाषण नहीं हो सकती। यदि इसे नजरंदाज किया जाता है तो किसी भी बहस की दिशा पटरी से उतर जाएगी और इसके पीछे का उद्देश्य अपना महत्व खो देगा। अभियव्यक्ति की स्वतंत्रता निष्पक्ष और स्वस्थ सार्वजनिक बहसों को प्रोत्साहित करती है तो इससे समाज को आगे बढ़ने में मदद मिलेगी। जो कुछ भी चल रहा है उस पर चिंता व्यक्त करते हुए न्यायालय इस पर अपने विचार व्यक्त करने से खुद को रोक नहीं सकता। सनातन धर्म पर विवाद निरर्थक है। हम को सब समाज में व्याप्त बुराइयों को खत्म करने के लिए संकल्प लेकर चलना होगा ताकि उन बुराइयों का उन्मूलन किया जा सके और सामाजिक न्याय का सपना साकार हो सके। वोट बैंक के लिए आक्रामक भाषा का इस्तेमाल देश के लिए अच्छा नहीं होता।
न्यायमूर्ति शेषशायी ने 15 सितंबर को पारित एक आदेश में लिखा यह न्यायालय सनातन धर्म के समर्थक और विरोधी पर बहुत मुखर और समय-समय पर होने वाली शोर-शराबे वाली बहसों के प्रति सचेत है। इसने मोटे तौर पर सनातन धर्म को ‘शाश्वत कर्तव्यों’ के एक समूह के रूप में समझा है, और इसे किसी एक विशिष्ट साहित्य से नहीं जोड़ा जा सकता है, लेकिन इसे कई स्रोतों से इकट्ठा किया जाना चाहिए, जो या तो हिंदू धर्म से संबंधित हैं, या जिन्हें हिंदू जीवन शैली का पालन करने वाले लोग स्वीकार करते हैं। वास्तव में देखा जाये तो सनातन एक शाश्वत धर्म है, जीवन का सत्य है। विज्ञान भी सनातन सत्य को पकड़ने में अभी तक कामयाब नहीं हुआ है, किन्तु वेदांत में उल्लेखित जिस सनातन सत्य की महिमा का वर्णन किया गया है, विज्ञान भी धीरे-धीरे उससे सहमत होता नजर आता है। सनातन धर्म के सत्य को जन्म देने वाले अलग-अलग काल में अनेक ऋषि हुए हैं। जिन्होंने सत्य को जैसा देखा, वैसा कहा। सभी ऋषियों की बातों में एकरूपता है। जो इन ऋषियों की बातों को एवं सत्य को समझ नहीं पाते, वही उनमें भेद करते हैं, विवाद करते हैं। असल में भेद एवं विवाद भाषाओं में होता है, अनुवादकों में होता है, संस्कृतियों में होता है, परम्पराओं में होता है, सिद्धान्तों में होता है, राजनीतिक सोच एवं संकीर्णताओं में होता है, लेकिन सत्य में नहीं। सनातन एक सत्य है, उसमें भेद एवं विवाद करने वाले बुद्धि के दिवालियपन के शिकार है।
इस तरह के आधारहीन विवादों को उछालने वाले राजनीतिक दल एवं नेता उजालों पर कालिख पोतने का ही प्रयास करते हैं। इस प्रकार की उद्देश्यहीन, उच्छृंखल, विध्वंसात्मक सोच से किसी का हित सधता हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसे समाज एवं राष्ट्र को तोड़ने वाली कुचेष्ठाएं करने वालों की आंखों में किरणें आंज दी जाएं तो भी वे यथार्थ को नहीं देख पाते। क्योंकि उन्हें उजाले के नाम से एलर्जी है। तरस आता है समाज में बिखराव करने वाले ऐसे लोगों की बुद्धि पर, जो सूरज के उजाले पर कालिख पोतने का असफल प्रयास करते हैं, आकाश में पैबन्द लगाना चाहते हैं और सछिद्र नाव पर सवार होकर सागर की यात्रा करना चाहते हैं। जब भी ऐसे विवाद खड़े किये जाते हैं, विरोधी आरोपों एवं विरोध से सबसे पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को घेरने की कोशिश करते हैं। जबकि संघ की शालीनता एवं विशेषता है कि वह अक्सर आरोपों एवं विरोध पर प्रतिक्रिया नहीं देता। उसका चरित्र इन सबसे अप्रभावित रहते हुए शांतिपूर्वक समाज-निर्माण एवं राष्ट्र-निर्माण के काम करने का है। वैसे संघ की नजरों में सनातन का अर्थ रिलीजन-धर्म नहीं है, यानी यह किसी मजहब का पर्याय नहीं है। संघ की दृष्टि में सनातन-सभ्यता एक आध्यात्मिक लोकतंत्र है।
निश्चित सनातन एक उन्नत विचार एवं जीवन-दर्शन है। जो तत्व सदा, सर्वदा, निरंजन, निर्विकार और सदैव स्वरूप में स्थित रहता है, उसे सनातन या शाश्वत सत्य कहते हैं। वेदों का ब्रह्म और गीता का स्थितप्रज्ञ ही शाश्वत सत्य हैं। जड़, प्राण, मन, आत्मा और ब्रह्म शाश्वत सत्य की श्रेणी में आते हैं। सृष्टि एवं ईश्वर (ब्रह्म) अनादि, अनंत और सर्वविभु हैं। जिस प्रकार आकाश, वायु, जन, अग्नि और पृथ्वी शाश्वत सत्य की श्रेणी में आते हैं, जो अपना स्वरूप बदलते हैं किन्तु समाप्त नहीं होते, ठीक उसी तरह सनातन सत्य भी हैं। सत्य, अहिंसा, त्याग और परोपकार इसी सनातन धर्म के मूलमंत्र हैं। समाज को समरस बनाने में सनातन धर्म की बहुत बड़ी भूमिका है। सनातन धर्म हमें प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति में परमात्मा के दर्शन करने की शिक्षा देता है। सनातन धर्म कहता है कि गलतियां करें तब भी सच्चे मन से कोशिश करें कि फिर उन्हें न दोहरायें। सनातन धर्म सिर्फ एक धर्म नहीं अपितु जीवन जीने का एक योजनाबद्ध क्रम, कला व तरीका है। मनुष्य के पूरे जीवन के हर पड़ाव में क्या-क्या योजनाएं व संस्कार निहित हैं, सब बातों का क्रमबद्ध ज्ञान सनातन धर्म हमें सिखाता है। सनातन धर्म का पालन एक कठिन तपस्या है, जिसके मार्ग पर चलकर व्यक्ति केवल स्वयं के बारे में नहीं अपितु विश्व कल्याण के बारे में सोचता है और उसी हिसाब से आचरण करता है। सनातन धर्म किसी भी प्रकार से छोटा-बड़ा और ऊंच-नीच के भेदभाव को नहीं मानता। इन विशेषताओं एवं विलक्षणताओं वाले सनातन की तुलना डेंगी, मच्छर, मलेरिया और कोविड से करने वाले संभवतः खुद ऐसी बीमारी के शिकार हैं। आज भी जातीय आधार पर आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन हो रहे हैं, साथ ही जातीय जनगणना के जरिये मंडल वाले दौर की तरह राजनीतिक कामयाबी को दोहराने की कोशिश भी हो रही है। लेकिन धर्म हो या जाति, उनके जरिये इतिहास दोहराने की कोशिशें आजादी के अमृतकाल में पहले की तरह शायद ही सफल हो।