सावरकर जी का स्पष्ट कथन था कि ‘अपनी कुलदेवी मां अष्टभुजा के चरणों में बैठकर शपथ लेता हूं कि मातृभूमि को विदेशियों से मुक्त कराने के लिए आजीवन सशस्त्र क्रांति का ध्वज लेकर जूझता रहूंगा ,चाहे इस प्रयास में हम तीनों भाइयों की भी वही नियति क्यों न हो जो चाफेकर बंधुओं की हुई।’
इतिहास इस बात का साक्षी है कि शस्त्र के उपासक सावरकर जी ने जीवन भर अपने इस व्रत का पालन किया। सावरकर जी का कोई विरोधी कांग्रेसी नेता कभी भी अपने जीवन में इस प्रकार की शपथ लेता हुआ दिखाई नहीं दिया। राजभक्ति के प्रति बार-बार शपथ लेने वाले कांग्रेसियों के वास्तविक चरित्र को कभी सामने नहीं आने दिया गया। प्रचलित इतिहास में राजभक्ति के प्रति कांग्रेसियों की निष्ठा को उनके चरित्र का प्रशंसनीय और वंदनीय पक्ष दिखाया गया है और राष्ट्रभक्ति के इस उदात्त भाव को हीनतर करके आंका गया है।
सावरकर जी की आलोचना
सावरकर जी के आलोचक उन पर कई प्रकार से आक्रमण करते हैं। आलोचना होना कोई बुरी बात नहीं है। हमारा तो मानना है कि आलोचना तो होनी चाहिए, पर उसका स्तर निंदा तक नहीं जाना चाहिए। सावरकर जी के आलोचक उनकी आलोचना राष्ट्रवादी डॉ अंबेडकर जी से भी करवाने का प्रयास करते हैं। जबकि सच यह है कि सावरकर जी और अंबेडकर जी के मध्य एक गहरा समन्वय था। माना कि कई बिंदुओं पर दोनों नेता असहमत थे, पर इस असहमति को उस सीमा तक नहीं खींचा जा सकता जिस सीमा तक यह गांधी नेहरू एंड कंपनी के साथ थी।
सावरकर के आलोचकों का मत है कि अम्बेडकर ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ इंडिया’ (1946) में सावरकर के ‘द्विराष्ट्र सिद्धांत’ और अखंड भारत की उनकी अवधारणा के छद्म को उजागर किया है। अम्बेडकर लिखते हैं, ”वे चाहते हैं कि हिन्दू राष्ट्र प्रधान राष्ट्र हो और मुस्लिम राष्ट्र इसके अधीन सेवक राष्ट्र हो। यह समझ पाना कठिन है कि हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र के बीच शत्रुता का बीज बोने के बाद सावरकर यह इच्छा क्यों कर रहे हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों को एक संविधान के अधीन एक देश में रहना चाहिए।” (पृष्ठ 133-134)
जो लोग सावरकर जी के प्रति अंबेडकर जी के इस प्रकार के विचारों को उद्धत कर यह भ्रम फैलाने का काम करते हैं कि डॉ अंबेडकर उनसे पूर्णतया असहमत थे, उन्हें मुसलमानों के प्रति अंबेडकर जी के विचारों को अवश्य पढ़ना और समझना चाहिए। यदि अंबेडकर जी के मुसलमानों के प्रति विचारों को पढ़ और समझ लिया गया तो हमारे देश की वर्तमान काल की भी कई समस्याओं का समाधान हो सकता है। हमें यह भी पता चल सकता है कि डॉ अंबेडकर ने मजहब के आधार पर आरक्षण न देने की वकालत क्यों की थी? डॉ आंबेडकर मुसलमानों के प्रति सावरकर जी से भी कहीं अधिक कठोर थे। कारण यह था कि डॉक्टर अंबेडकर को कानून के साथ-साथ इतिहास की भी अच्छी जानकारी थी। इतिहास के काले भूत को वह वर्तमान की छाती पर लादकर भविष्य को देने के पक्षधर नहीं थे। इसी प्रकार की सोच सावरकर जी की थी। अतः जो लोग डॉ अंबेडकर को सावरकर जी का धुर विरोधी दिखाने का काम करते हैं या प्रयास करते हैं उन्हें इन दोनों नेताओं के पारस्परिक समन्वय के बिंदुओं पर भी चर्चा करनी चाहिए।
हिंदुस्तान हिंदू जाति का निवास स्थान
‘वीरवाणी’ में सावरकर जी लिखते हैं :- ‘हिंदुस्तान आदि काल से हिंदू जाति का निवास स्थान है। वह हमारे धर्म प्रवर्तक ऋषि-मुनियों की , वीरों की, देवी देवताओं तथा संत महात्माओं की जन्मभूमि है। इन्हीं कारणों से वह हमें प्रिय है । अन्यथा केवल भूमि का भू प्रदेश का विचार करें तो पृथ्वी पर अनेक देश सोने चांदी से हीरे, मोतियों से, जवाहरात से समृद्ध होंगे। गंगा का जल और मिसीसिपी का जल केवल जल की दृष्टि से एक सा होगा। हिंदुस्तान के पहाड़ ,जंगल, वनश्री भी अन्य देशों के पहाड़, जंगल, वनश्री के समान ही उत्कृष्ट होंगे। अतः हिंदुस्तान हमें इसलिए प्रिय है कि इस पर हमारा इतिहास निर्मित हुआ है। इस भूमि पर पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे पूर्वजों का शासन रहा है। अनादि काल से यह पावन भूमि हमारी पितृभूमि, भूमि पुण्य भूमि है, जीवन का एकमात्र प्रावस्थान है।’
सावरकर जी जिसे अपनी पावन भूमि, पितृ भूमि और पुण्य भूमि कहते थे उसे वह किसी भी विधर्मी को सोने के थाली में रखकर परोस नहीं सकते थे। सावरकर जी द्विराष्ट्रवाद के समर्थक थे तो केवल इस सीमा तक थे कि उन्होंने मुसलमान की मानसिकता को पढ़ लिया था। जो किसी भी स्थिति में हिंदुओं के साथ रहने को तैयार नहीं था। हमें सावरकर जी के मुस्लिम संबंधी चिंतन को समझने के लिए सुप्रसिद्ध इस्लामिक विद्वान एम0आर0ए0 बेग के इस कथन को समझना।चाहिए कि ‘अंतिम सत्य यह है कि न तो कुरान और न मोहम्मद साहब ने मानवतावाद का समर्थन किया है और न मुस्लिम और गैर मुस्लिम के सह अस्तित्व का समर्थन किया है। कोई भी धर्मनिष्ठ मुसलमान मानवतावादी नहीं हो सकता।’
इस्लाम के इस कटु सत्य को यदि बेग साहब जैसे लोग मान रहे हैं और प्रचारित कर रहे हैं तो इसे प्रत्येक राष्ट्रभक्त हिन्दू को भी स्वीकार करना चाहिए। इसके पश्चात इसी दृष्टिकोण से किसी भी मुस्लिम का आकलन करना चाहिए। यह माना जा सकता है कि अनेक मुसलमान ऐसे हैं जो पूर्णतया राष्ट्रवादी हैं पर जो इस्लामिक शिक्षाओं को अक्षरश: पालन करने में विश्वास रखते हैं, उनसे ऐसी अपेक्षा कभी नहीं की जा सकती। सावरकर जी की भी यह स्पष्ट मान्यता थी कि कोई भी मुसलमान पूर्ण राष्ट्रवादी और मानवतावादी नहीं हो सकता।
‘मुस्लिम राजनीतिक चिंतन और आकांक्षाएं’ के लेखक पुरुषोत्तम जी पृष्ठ संख्या 17 पर लिखते हैं कि ‘डॉ मुशीरुल हक कहते हैं कि ‘बहुतों का (उलेमा का ) विश्वास है कि सरकार को तो धर्मनिरपेक्ष बना रहना चाहिए, परंतु मुसलमानों को धर्मनिरपेक्षता से बचाकर रखना चाहिए।’ इस संदर्भ में सैयद अबुल हसन अली नदवी अर्थात अली मियां का कहना है कि ‘धर्मनिरपेक्ष धर्मनिष्ठ मुसलमान इस्लाम के प्रति प्रेम को प्रोत्साहन देते हैं तो गैर इस्लामी दर्शनों ,विचारों और सिद्धांतों के प्रति घृणा को।’
सावरकर जी और अंबेडकर जी दोनों ही इस्लामिक विद्वानों के इस प्रकार के विचारों से पूर्णतया सहमत थे। कहने का अभिप्राय है कि इस्लाम की सच्चाई को यह दोनों नेता जानते थे। पर आज का अंबेडकरवादी और धर्मनिरपेक्ष नेता या तथाकथित चिंतक इन दोनों की सहमति के इन बिंदुओं को भी असहमति में परिवर्तित करने की मूर्खतापूर्ण चेष्टा करते देखे जाते हैं।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)