2014 के महासंग्राम के पहले बीजेपी के भीतर नेतृत्व का संग्राम छिड़ गया है। पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी के दूसरे कार्यकाल समेत प्रधानमंत्री के उम्मीदवार को लेकर पार्टी नेताओं में गहमागहमी बढ़ गई है। हर नेता दिल्ली में झंडेवालान और नागपुर में महाल की तरफ टकटकी लगाए खड़ा है कि आखिर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पार्टी के नेतृत्व के सवाल पर किस नेता का नाम पर मुहर लगाता है। मई महीने में बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक होनी हैं जहां पार्टी के अगले अध्यक्ष पर अहम फैसला होगा। लिहाज़ा संघ नेताओं की पूरी टीम ही बीजेपी के कद्दावर नेताओं के साथ चर्चा में व्यस्त है। अप्रैल 2012 के दूसरे सप्ताह में जहां संघ के सरकार्यवाह सुरेश जोशी उपाख्य भैय्याजी जोशी और सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी ने दिल्ली में बीजेपी नेतृत्व का जायजा लिया वहीं महीने के आखिर में नब्ज़ टटोलने का काम खुद सरसंघचालक मोहन भागवत ने किया। बीजेपी संगठन उसके नेता और रीति.नीति को लेकर आरएसएस नेताओं और बीजेपी में चर्चा.वार्ता पार्टी के आपातकाल पूर्व के संस्करण जनसंघ की स्थापना के वक्त से चल रही है। गांधी हत्याकांड के आरोप से बरी होने के बाद आरएसस ने जब राजनीति में अपने स्वयंसेवकों को सक्रिय करना तय कियाए तभी डा. श्यामा प्रसाद मुकर्जी के साथ संघ के सरसंघचालक गुरुजी गोलवलकर ने इस परंपरा की नींव डालीए जो थोड़ा बहुत किंतु.परंतु के साथ 1990 के दशक की शुरुआत तक पूरे तौर पर जारी रही। दोनों के बीच बातचीत और समन्वय केसिलसिले का सबसे मुश्किल दौर 1996 से 2005 के बीच आया जब बीजेपी में अहम फैसले बगैर संघ के परामर्श के होने लगे थे। 1952 से 1975 तक जनसंघ और 80.90 के दशक में बीजेपी का भविष्य गढऩे में जो भूमिका आरसस ने अदा की उसकी अनदेखी का सिलसिला नडी सरकार के दौरान चरम पर पहुंच गया। ऐसा भी लगा कि बीजेपी संगठन और सरकार दोनों पर आरसस का नैतिक नियंत्रण भी मानो खत्म हो गया।बगैर मांगे सलाह नहीं देने के आदती संघ के बड़े प्रचारकों ने बीजेपी पर पकड़ ढीली होने पर लंबे वक्त तक चुप्पी साधे रखी। नतीजा ये निकला कि नडी सरकार के वक्त जो जेंडा संघ ने दशकों के अथक परिश्रम से तैयार किया सब पर क.क कर पानी फिरने लगा। धार्मिक और भावनात्मक मुद्दों को क तरफ भी रख दें तो देश के सर्वांगीण विकास और आर्थिक नीतियों को लेकर भी संघ के आनुषांगिक संगठनों की अनदेखी खुले तौर पर हुई। सच्चाई ये भी रही कि क तरफ बीजेपी नेता सुशासन और इंडिया शाइनिंग का नारा चमका रहे थे वहीं संघ के विचारक ने खुलकर बीजेपी शासन की आर्थिक नीतियों को कटघरे में खड़ा किया। अमीरी.गरीबी के बढ़ते अंतर को साल 2000 में ही संघ नेता और मज़दूर संघ के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगड़ी ने गलत आर्थिक नीतियों की उपज करार दिया आरोप मढ़ा कि वाजपेई सरकार उन्ही अंध नीतियों पर चलने की गलती कर रही है जिसे मनमोहन और मोंटेक की जोड़ी ने अमेरिका के दबाव में आर्थिक सुधारों का मुलम्मा चढ़ाकर 1991 से लागू करना शुरु किया।अहम मुद्दा संगठन के फैसलों और नीतिगत प्रस्तावों की अनदेखी का भी था। इस अनदेखी के लि संघ में अटलबिहारी वाजपेई और लाल कृष्ण आडवाणी को कोसा जाने लगा जिसमें कुछ सच्चाई तो थी लेकिन संघ नेताओं ने तत्कालीन परिस्थितियों की नज़ाकत के तर्क को कार्यकर्ताओं के सामने रखते हु घर की समस्या को घर में सुलझाना बेहतर समझा। रिश्तों के लडख़ड़ाने का दौर 2004 में चरम पर पहुंचा जब बीजेपी में अटल.आडवाणी की नीतियों को संघ से जुड़े कुछ बड़े प्रचारकों ने खुले तौर पर चुनौती दी। दोनों पर बीजेपी को वैचारिक धरातल से दूर ले जाने का आरोप मढ़कर कुछ संगठन तो न चुनावी वक्त में शांत बैठेंगे। लिहाज़ा 2004 के चुनाव में बीजेपी का ग्राफ भी जमीन अचानक जमीन पर आ गया चुनाव में करारी हार हुई और दोबारा सत्ता पाने का अटल.आडवाणी का सपना चकनाचूर हो गया। हार के सदमे के बीज संघ बीजेपी पर नियंत्रण बढ़ाता कि उसे सियासत से दूर रहने का सीधा संदेश बीजेपी नेताओं ने दे दिया। संघ को झटका अक्टूबर 2004 में उस वक्त लगा जब बगैर उससे चर्चा के अचानक बीजेपी अध्यक्ष वैंकेया नायडू से इस्तीफ ा लेकर लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी की कमान हाथ में ले ली। संघ के कुछ बड़े नेताओं को ये नागवार गुजऱा बावजूद इसके संघ के नेतृत्व ने चुप्पी साधे रखी। हालांकि तत्कालीन सरसंघ चालक कु.सी. सुदर्शन और सरकार्यवाह मोहन भागवत के सामने बड़ी समस्या ये भी थी कि उसी के कुछ बड़े नेता आडवाणी के हर फैसले को बेहतर बताते नहीं थक रहे थे।1995 से 2005 तक बीजेपी नेताओं का फैसलों में संघ को दरकिनार रखने की कोशिश को भले ही संघ नेता सहते रहे लेकिन 2005 में जैसे ही पाकिस्तान में जिन्ना की मज़ार पर फूल चढ़ाने और फिर उसे सेकुलर बताने की कोशिश हुई पहली बार संघ का गुस्सा भी सतह पर आ गया। नतीजा ये निकला कि न सिर्फ आडवाणी को बीजेपी अध्यक्ष पद छोडऩा पडा बल्कि संघ ने ये भी तय कर लिया कि बीजेपी में अहम नीतिगत फैसले बगैर उसकी मर्जी के नहीं होंगे। ख़ासतौर पर बीजेपी अध्यक्ष का पद संघ से ही तय होगा ताकि बीजेपी के साथ उसका तालमेल हमेशा बेहतर बना रहे। लेकिन संघ की इस कोशिश को मन से टीम आडवाणी ने मंजूर नहीं किया। 2006 में बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने सुरक्षा यात्रा पर निकलना तय किया तो अचानक एक रथ आडवाणी का भी जुड़ गया। इसके पहले आडवाणी ने 2005 सितंबर में चेन्नई में आयोजित बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में ये कहते हुए संघ को आईना दिखाने की कोशिश भी की कि बीजेपी के बारे में ये धारणा बन गई है कि इसके कोई राजनीतिक या सांगठनिक निर्णय आरएसएस की सहमति के बगैर नहीं होते ऐसी धारणा से बीजेपी के साथ संघ का भी नुकसान हो रहा है।श् संघ के साथ इस असहमति का दौर आगे भी जारी रहा। 2009 के लोकसभा चुनाव के पहले प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी को लेकर भी जमकर घमासान चला। तमाम खटपट के बावजूद आडवाणी की उम्मीदवारी पर संघ ने सहमति दे दी तो माना गया कि संघ और आडवाणी के रिश्ते पटरी पर आ ग लेकिन लोकसभा चुनाव में हार ने दोनों के रिश्तों की खटास को और बढ़ा दिया। अंदरखाने टीम आडवाणी ने हार के लि संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों पर भी ठीकरा फोडऩे की कोशिश की। हवा में बात उछाली गई कि ष्आडवाणीजीष् की उम्मीदवारी की वजह से संघ परिवार पूरे मन से चुनाव में नहीं जुटा। लिहाज़ा नतीजों के फौरन बाद सियासत के हर पद से इस्तीफा देने का ेलान कर चुके टीम आडवाणी ने संघ से हिसाब चुकता करने की ठानी। जहां संघ की ओर से दबाव बना कि हार के बाद आडवाणी जल्द से जल्द सक्रिय सियासत ते दूर हो जां तो टीम आडवाणी की सलाह पर आडवाणी ने भी इस्तीफे के ेलान पर अमल की बजा सियासत के रण में डटे रहने में ही रुचि दिखाई। संघ और टीम आडवाणी में बीजेपी पर पकड़ बना रखने के लि शह.मात का अप्रत्याशित खेल शुरु हो गया।दिसंबर 2009 में आडवाणी ने लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के लि सुषमा स्वराज का नाम आगे कर दिया। सूत्रों के मुताबिक क बार फिर संघ से इस अहम फैसले पर आडवाणी ने बातचीत की जरूरत नहीं समझी। इसे बीजेपी में उत्तराधिकार के सवाल पर संघ प्रमुख मोहन भागवत के एकतरफ ा फैसले का जवाब माना गया जिसके तहत सुबाई क्षत्रप नितिन गडकरी की दिल्ली में अध्यक्ष पद पर ताजपोशी हुई। टीम आडवाणी में गुस्सा इस बात पर भी अंदरखाने सुलगा कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने उससे जुड़े अहम नेताओं को क अंग्रेजी चैनल को दि इंटरव्यू में डी.4 की संज्ञा देते हु सुषमा जेटली अनंत और वैंकैया की दावेदारी को झटके में खारिज कर दिया। जाहिर तौर पर बीजेपी संगठन और संसद के लिहाज़ से दो गुटों में बंटती दिखने लगी। लोकसभा में सुषमा स्वराज ने और राज्यसभा में अरुण जेटली ने टीम आडवाणी की ओर से मोर्चा संभाल लिया। पार्टी में इस महीन और संगीन विभाजन का अहसास संघ को बहुत पहले से था यही वजह है कि संघ ने चाहते हु भी आडवाणी को उनकी मर्जी के हिसाब से मनमानी करने की छूट दी। विकट हालात में संगठन की कमान नितिन गडकरी के हाथ में आई तो उन्होंने बेहद समझदारी से काम लिया और हर तरह से कोशिश की कि टीम आडवाणी से उनका संतुलन न बिगडऩे पा पार्टी संसद के भीतर और बाहर कजुट दिखे। बहुत हद तक खुद के विनोदी स्वभाव के अनुरूप उन्होंने इस काम में सफलता भी हासिल की लेकिन टीम आडवाणी से संतुलन साधने की इस कोशिश में संघ का भरोसा कहीं.कहीं डिगने लगा और ष्प्रैक्टिकल पॉलिटिक्सष् से जुड़े उनके कथित सलाहकारों ने जनाधार और चुनावी जीत की कवायद में पार्टी की छवि को और पलीता लगा दिया। अहम मुद्दा यूपी चुनाव के ऐन वक्त पर दागी बाबू सिंह कुशवाहा को पार्टी में शामिल करने का बना। फैसला कितना गलत और मूर्खतापूर्ण था इसका अहसास गडकरी को यूपी के चुनाव नतीजों ने करा दिया। बताया जाता है कि फैसला होने के बाद बड़े नेताओं को जानकारी दी गई और जब तक फैसले पर रोक लगती नआरचम घोटाले के दागी नेता को माला पहनाते और मुंह मीठा कराते बीजेपी नेताओं की तस्वीरें चैनलों की सुर्खियां बन चुकी थीं। राज्यसभा चुनाव में उद्योगपति अजय संचेती और विवादित अंशुमान मिश्रा को समर्थन के सवाल ने भी आग में घी डालने का काम किया। पार्टी सांसद योगी आदित्यनाथ मेनका गांधी यशवंत सिन्हा सस अहलूवालिया समेत दर्जनों नेताओं के सुर बागी हु तो टीम आडवाणी की ओर से भी संकेत साफ हो गया कि गडकरी की जगह वैंकेया नायडू या किसी और गंभीर नेता को अध्यक्ष बनाकर ही तमाम विवादों से पार पाया जा सकता है। लेकिन अहम सवाल है कि क्या संघ नेतृत्व भी ऐसा ही सोच रहा है। 29 मई को दिल्ली में बीजेपी नेताओं को शिवाजी के किस्से सुनाकर मोहन भागवत ने दोबारा साफ करने की कोशिश की कि बीजेपी में व्यक्ति निष्ठा को अब जगह नहीं मिलेगी और ना संघ अब व्यक्तिनिष्ठ राजनीति स्वीकार करेगा। जाहिर है कि जिन वैंकेया ने 2004 में निजी समस्याओं की आड़ में क झटके में आडवाणी के लि कुर्सी छोड़ दी उन्हें बीजेपी अध्यक्ष बनाने की गलती संघ नहीं करेगा। टीम आडवाणी के दूसरे सदस्यों मसलन जेटली सुषमा और अनंत कुमार जिन्हें संघ प्रमुख डी.4 कटगरी में रख चुके हैं क्या वो इनके नामों पर विचार करेंगे जबकि वीकीलीक्स खुलासे ने अमेरिकी राजनयिक और जेटली की बातचीत के जरिए संघ को सीधा संदेश दिया कि उसके कथित स्वयंसेवक हिंदुत्व विचारधारा के प्रति कितने ज्यादा समर्पित हैं। नीरा राडिया प्रकरण में अनंत कुमार की भूमिका पर संघ को इतने चि_े मिल चुके हैं कि नागपुर में हैरानी पसरी है तो सुषमा रेड्डी बंधुओं की नज़दीकी ने साफ कर दिया है कि भविष्य में किस राजनीति को बीजेपी में आश्रय मिलने की संभावना है।
जाहिर तौर पर बीजेपी के संकट को लेकर संघ में गहरा संकट पसर गया है सवाल है कि संघ को समाधान कहां मिल सकता है से में पुराने संघ विचारकों ने मोहन भागवत को जो फ ार्मूला दिया है उसमें दम दिखाई देता है। आरसस के जानकारों के मुताबिक फार्मूले का पहला सूत्र ये है कि 20 बरस से आडवाणी की करनी का शिकार बनकर अलग.थलग पड़े विचारधारा के प्रतीक पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी को बतौर अध्यक्ष आगे रखा जाय। फार्मूले का दूसरा सूत्र है कि 1990 में जोशी के तहत बतौर महामंत्री और कता यात्रा के संयोजक रहे नरेंद्र मोदी को गुजरात चुनाव के बाद जोशी की टीम में अहम जगह दी जा। तीसरा विकल्प ये है कि गडकरी को अध्यक्ष बना रखा जा आडवाणी की संसदीय दल के चेयरमैन पद से विदाई कर जगह जोशी को दे दी जा जो प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी होंगे। चौथा विकल्प है कि जेटली को अध्यक्ष बनाकर मोदी को गुजरात चुनाव के बाद दिल्ली की लड़ाई में उतार दिया जा आडवाणी.जोशी समेत बुजुर्ग नेताओं की मार्गदर्शक मंडली बना दी जा। हालांकि चौथे विकल्प पर संघ की ओर से अभी तक रजामंदी के सुर नहीं निकल रहे हैं। जाहिर तौर पर संघ के रणनीतिकार जोशी.मोदी की जोड़ी में संभावनां तलाश रहे हैं लक्ष्य सीधा है कि पार्टी को विचारधारा पर वापस लाना बीजेपी पर पकड़ बनाए रखना और उसे अनुभव के साथ एक युवा चेहरा भी देना सारे काम जोशी.मोदी की जोड़ी एक झटके में कर सकती है। बीजेपी को डूबने से बचाने का इससे बढिय़ा और दूसरा उपाय संघ के पास फिलहाल नहीं है।
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