लेखक आर्य सागर खारी 🖋️
(जगतगुरु महर्षि दयानंद सरस्वती की 200 वीं जयंती के उपलक्ष्य में 200 लेखों की लेखमाला के क्रम में आर्य जनों के अवलोकनार्थ लेख संख्या 21)
आगरा में अपने जिन प्रौढ़ विद्यार्थियों को स्वामी दयानन्द अष्टाध्यायी पढ़ाते थे उनमें से कुछ कभी-कभी रात्रि में उनके पास ही रुक जाते थे उनमें से एक सुंदरलाल थे जिन्हे मस्तिष्क का रोग था, उसे सुगंध -दुर्गंध नहीं आती थी ।स्वामी जी ने उसको नेति ,धोती है न्यौली कर्म सिखाये जिससे वह स्वस्थ हो गया ।
बस्ती, नेति, धोती न्यौली आदि शरीर शुद्धि आरोग्य के संपादन की क्रियाएं हैं। गुरु की खोज में घर त्याग के पश्चात जब स्वामी दयानंद नर्मदा हिमालय आदि पर भटके थे वहां उन्होंने अनेकों संप्रदाय के साधुओं नाथ सम्प्रदाय के कनफटे योगियों से यह क्रियाएं बड़े परिश्रम एकाग्रता से सीखी थी। स्वामी जी ने उनसे अभ्रक व पारे आदि विविध भस्म बनाना इनका प्रयोग भी सीखा था भारत की सीखने सिखाने की परंपरा बहुत समृद्ध रही है। स्वामी जी ने अपने शिष्य पंडित सुंदरलाल को बताया था नर्मदा मे कनफटे योगी से न्यौली क्रिया सीखने के दौरान अधिकांस जल में बैठना पड़ता था इससे उनके शिर पर शीत का प्रभाव हो गया था ।उससे बचने के लिए वह कभी कभी अभ्रक भस्म खाया करते थे। चरक व सुश्रुत के वैद्यक ग्रंथ धातु रसायन विद्या का स्वामी जी को उच्च कोटि का ज्ञान था। इस विषय को यदि हम इस जीवन चरित् के प्रसंग से अन्यत्र लिखे तो एक सुंदर पुस्तक तैयार हो सकती है। महर्षि दयानंद आयुर्वेद के परम ज्ञाता थे। उनका ग्रंथ संस्कार विधि पढ़ने से यह भली भांति विदित हो जाता है।
आगरा निवास के दौरान स्वामी जी के बारे में प्रत्यक्षदर्शी ने बताया एक दिन स्वामी जी के पैर पर कुछ फुंसियां निकाली जिनको वह अपनी मूल गुजराती बोली में परकी कहते थे ।उन्हें देखकर स्वामी जी कहने लगे अब उदर में विकार हो गया है चलो न्यौली क्रिया करते हैं। तीन-चार मनुष्य को साथ लेकर राजघाट यमुना तट पर जाकर स्वामी जी जल में बैठ मलद्वार से तीन-चार बार उन्होंने जल चढ़ाया और बाहर जाकर निकाल दिया प्रथम बार दुर्गंध सहित दूसरी बार पिला तीसरी बार केवल सफेद जल निकला। उदर पूरी तरह शुद्ध हो गया। जल चढ़ाने के पश्चात नाभि चक्र को घूमते थे और नदी से बाहर निकलकर जल फेंक देते थे अंत में स्वामी जी ने देखा अशुद्ध जल नहीं रहा तब स्नान करके डेरे को चल दिए उस दिन वह बहुत दुर्बल हो गए थे क्योंकि यह क्रिया विरेचन के तुल्य है ।डेरे पर आकर स्वामी जी ने दाल भात खाया। स्वामी जी बताते थे यह क्रिया हमने एक कनफटे योगी से विद्यांचल पर्वत पर नर्मदा के तट पर बड़े परिश्रम से बहुत कल तक उसके पास रहकर सीखी थी।
इन क्रियो को वह योग्य व्यक्ति को ही सीखाते थे बतलाते थे। नौसिखिया व्यक्ति यदि आहार विहार पर ध्यान न दे तो लाभ के बजाय घेरंड संहिता में विस्तार से वर्णित इन क्रियाओं भयंकर हानी भी उठानी पड़ती है। यही कारण था जब स्वामी जी आगरा से जाने लगे तो उन्होंने अपने विद्यार्थियों को जो उनसे इन क्रियो को सिखते थे उनकी क्रियाएं छुड़वा दी थी उनसे कहा था तुम गृहस्थी हो तुम्हारा भोजन अच्छा नहीं है तुम पथ्य भी नहीं कर सकते ऐसा ना हो कि हमारे चले जाने के पश्चात तुमको कोई रोग ना उत्पन्न हो जावे। आगरे के मुंशी बृजलाल ,मुंशी श्री कृष्णा, मुंशी हरप्रसाद स्वामी जी ने यह बतलाया था। यह तीनों ही माथुर कायस्थ थे। आगरा के तेजतर्रा व्यक्तियों में उनकी गणना होती थी।
अपने आगरा प्रवास में स्वामी जी निरंतर मूर्ति पूजा का खंडन किया करते थे ।आगरा के पंडित चेतोलाल व पंडित कालिदास स्वीकार करते हुए यह सहमत हो गए थे कि वास्तव में मूर्ति पूजा निषिद्ध है, परंतु विवशतावस यह भी कहने लगी कि हम लोगों को यह नहीं कह सकते क्योंकि हम गृहस्थि है और स्वामी जी आप स्वतंत्र हैं, इनमें से एक पंडित जी ने तो सर्वदा के लिए मूर्ति पूजा छोड़ दी दूसरे पंडित जी बिरादरी के भय से अपनी दुर्बलता के कारण सार्वजनिक तौर पर मूर्ति पूजा ना छोड़ सके।
स्वामी जी के आगरा प्रवास का एक रोचक प्रसंग यह है स्वामी जी जिस बाग में ठहरे हुए थे वहां एक दिन एक अनपढ़ ब्राह्मण आ गया जो योग के 64 आसन लगाना जानता था चाल चलन उसका अच्छा था जितेंद्रिय भी था स्वामी जी ने उसको अपनी धोती धोने के लिए अपने पास रख लिया जब कभी स्वामी जी मनोरंजन के मूड में आते तो उसे कोतहुल के रूप में भाति-भांति के आसान लगवाया करते थे ।
आगरा में डेढ़ से 2 वर्ष के अपने प्रवास के बाद स्वामी जी धौलपुर की ओर प्रस्थान कर गए धौलपुर प्रवास में स्वामी जी ने वेद संहिताओं पर अनुसंधान किया वेद की मूल संहिताओं को मंगाया उन पर पूर्वापर विचार किया।
इस प्रसंग को अगले लेख में समझेंगे।