ललित गर्ग
अक्सर कुछ महान करने के चक्कर में हम कुछ नहीं कर पाते। हम दूसरों के किए हुए में कमियां निकालने में लगे रहते हैं और दूसरे सब बातों से बेपरवाह एक के बाद एक सफलता अपने नाम करते जाते हैं। हम पूर्णता की चाह में अटके रहते हैं, और दूसरे आधे-अधूरे काम करते हुए बढ़ते जाते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवनपथ, कार्यक्षेत्र में सफलता के सपने संजोता है। पर, सबके सब सपने सच में नहीं बदलते। अथक परिश्रम के पश्चात भी यदि सफलता न मिले तो निराश-हताश होना स्वाभाविक है। निराशा का गहरा कुहरा व्यक्ति के मनोबल और विश्वास को कमजोर बना देता है। वह हीनभावना से ग्रस्त हो जाता है। ऐसी स्थिति से उबरने के लिए जेनकाऊल ने कहा- स्मरण रखो- ‘आने वाला दिन आज की अपेक्षा अधिक उल्लासपूर्ण होगा। दिन के बाद रात आती है, तो रात के बाद उजली सुबह भी जरूर आएगी। उसके पूरे-परे उपयोग की तैयारी करो।’ इसका अर्थ है- आशा और विश्वास की दीवार को कभी मत दरकने दो। यह आशावादी दृष्टिकोण सफलता का पहला सोपान है। व्यक्तित्व का शक्तिशाली घटक है। निराशा एवं अनिश्चितता के दौर में हम ऐसी सभी चीजों से दूर भागने लगते हैं, जिनसे हमें असुविधा होती है। हम समय ऐसे कामों में बिताने लगते हैं, जो हमारे लिए बेहतर विकल्प नहीं होते। अपनी बेचौनियों को धैर्य से जीते हुए सही दिशा में चलने के बजाय हम आसान रास्तों की ओर दौड़ने लगते हैं। कहते हैं कि डर कर फैसले करने के बजाय सही राह की प्रतीक्षा करना ही सही होता है।
जीवनयात्रा में व्यक्ति अनेक खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजरता है। वह कभी फिसलता भी है, गिरता भी है, गलतियां भी करता है, किन्तु हर चूक उसे चेताती है, हर ठोकर ठीक चलने का सबक सिखाती है, हर असफलता सफलता के द्वार खोलती है। इस प्रकार वह प्रत्येक घटना से बोध पाठ पढ़ता है और परिपक्वता के साथ-साथ अनुभव प्रवण भी बनता जाता है। उन अनुभवों से प्रेरणा लेकर जो निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं, वे अपने व्यक्तित्व की स्वतंत्र पहचान बना लेते हैं और दूसरों के लिए भी प्रेरणास्रोत बन जाते हैं। लेखक व प्रोफेसर मॉरी शेजवार्ट्ज ने अपनी किताब ‘ट्यूसडेज विद मॉरी’ में लिखा है, ‘अपने आसपास मैं रोज सैकड़ों लोगों को देखता हूं। इनमें से कई हैं, जो सफल हैं, व्यस्त हैं, पर इतने थके हुए दिखते हैं जैसे अधमरे हों। मैं मानता हूं कि वे उस रास्ते पर नहीं चल रहे, जिन पर उन्हें चलना चाहिए।’ सही रास्ता वो है, जो आपको आशावादी बनाए, संतोष दे, आपको मुस्कराने की वजह दे। इन सबके लिए आपको सफल, अमीर या शक्तिशाली बनने की बजाय संवेदनशील एवं करुणाशील बनने की जरूरत है।
संवेदनशीलता का अर्थ है दूसरों की कठिनाइयों को जानने समझने की क्षमता। भौतिक/आर्थिक विकास की दिशा में निरंतर प्रतिस्पर्धात्मक दौड़, औद्योगिक विकास, मोबाइल संस्कृति का बढ़ता प्रभाव, सोशल मीडिया का बढ़ता वर्चस्व- इन सब कारणों से आज का मनुष्य अधिक आत्मकेन्द्रित होता जा रहा है। करुणा और संवेदनशीलता के स्रोत सूख रहे हैं। विश्व की भौगोलिक सीमाएं सिमट रही हैं, दूरिया मिट रही हैं किन्तु मनुष्य-मनुष्य के बीच बिन्ध्याचल खड़े हो रहे हैं। संवादहीनता बढ़ रही है। संवेदनशीलता समाप्त हो रही है। मानव-मानस मरुस्थल बन रहा है। ऐसी स्थिति में भावनात्मक रिश्ते ही संबंधों की धरती पर स्नेह-सौहार्द की हरियाली उगा सकते हैं।
अमेरिकी लेखक और मोटिवेशनल स्पीकर ब्रिएना विएस्ट भावनात्मक बुद्धि पर अपने काम के लिए जानी जाती हैं। उनके अनुसार जब निजी स्तर पर हमारा दर्शन सिर्फ यही रह जाए कि हम बिना कोई प्रश्न पूछे वही करने लगें, जो हमें कहा जाए, तो इसका अर्थ है कि हम उपभोक्तावाद या अपने अहं या किसी के प्रति अंध श्रद्धा का शिकार हो रहे हैं या किसी ऐसे की इच्छा का पोषण कर रहे हैं, जो हमें नियंत्रित करना चाहता है। जबकि सफल एवं सार्थक जीवन के लिये हमें स्व-अनुभव एवं प्रयोग की भूमि पर चलना होगा। स्व-अनुभव संपदा का अर्जन और समाज के व्यापक हित में उसका नियोजन करने वाले व्यक्ति सहज ही सर्वत्र सम्मानित एवं सफल मान जाते हैं।
अक्सर कुछ महान करने के चक्कर में हम कुछ नहीं कर पाते। हम दूसरों के किए हुए में कमियां निकालने में लगे रहते हैं और दूसरे सब बातों से बेपरवाह एक के बाद एक सफलता अपने नाम करते जाते हैं। हम पूर्णता की चाह में अटके रहते हैं, और दूसरे आधे-अधूरे काम करते हुए बढ़ते जाते हैं। ओशो कहते हैं, ‘जीवन महान चीजों से नहीं, छोटी-छोटी चीजों से बनता है। अपूर्णता की निंदा क्यों?’ हमें जीवन के प्रति सकारात्मक होना जरूरी है। सकारात्मक नजर हो तो नजारा भी अलग ही नजर आता है। जो चीज एक के लिए कौड़ी होती है, दूसरे को वही मोती नजर आती है। एक को आफत लगती है, तो दूसरे के लिए सुनहरा मौका बन जाती है। ये कतई जरूरी नहीं कि जो बात आपके काम की नहीं है, वो दूसरे के लिए भी बेकार ही होगी। कहते हैं कि बबूल के पेड़ में आपको कांटें नजर आते हैं और ऊंट को अपना भोजन। जरूरत है जीवन के प्रति आशावादी नजरिया अपनाने की। मन की मरम्मत करना दरअसल अपने मुकद्दर की मरम्मत करना है। समय के साथ अपने भीतर जो नेगेटिव इमोशन की तारों का जंजाल बन जाता है, उनकी जगह सही तारों की वायरिंग करते रहना जरूरी होता है। उसके लिए समय और धैर्य दोनों की जरूरत होती है। योजना बनाकर खुद पर काम करना होता है। और ऐसा सब करते हैं।
सबकी कोई न कोई दुखती रग होती है। और फिर बीती बातें केवल बीते समय की नहीं होतीं। वो हमारे आज पर भी असर डाल रही होती हैं। तो अपने आज को सही ढंग से देखने की कोशिश करना, हमारे भीतर को भी हील कर देता है। अपनी कड़वी यादों से भागें नहीं, उन्हें देखने का नजरिया बदलें। उनसे सबक लेकर आगे बढ़ जाएं। जल्दबाजी न करें, बस धीरे-धीरे कदम बढ़ाते रहें। फिर प्रेम से बड़ा हीलर कौन है। भीतर प्रेम होगा तो माफ करना आसान होगा। दूसरों से प्रेम करें और खुद से भी।