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संपादकीय

देश का विभाजन और सावरकर, अध्याय -9 ( क ) राष्ट्रवाद के पुरोधा सावरकर

भारत में मुसलमान एक रणनीति के अंतर्गत अपने संख्या बल से अधिक राजकीय सुविधाएं प्राप्त करते रहे हैं। इसके लिए रोने पीटने और अपनी आर्थिक स्थिति की दुहाई देने या अपने समाज में लोगों के अशिक्षित होने को ये लोग अपना आधार बनाते हैं। इसके पश्चात भावनात्मक अपील की जाती हैं कि हम लोग यहां पर बाहरी होने के कारण कमजोर हैं, या हम अल्पसंख्यक हैं, इसलिए हमारी ओर ध्यान दिया जाए। जबसे भारत में इस्लाम ने अपने पैर रखे हैं तब से ही जहां – जहां पर इस्लाम की मान्यताओं में विश्वास रखने वाले लोग धीरे-धीरे बढ़े हैं, वहां – वहां ही उन्होंने इसी प्रकार के विलाप के आधार पर, उसके पश्चात संख्या बल बढ़ने पर मजबूती के साथ मैदान में उतर कर और जब संख्या बल और भी अधिक बढ़ गया तो तलवार के बल पर हिंदुओं से अधिक अधिकार प्राप्त करने का प्रयास किया है। इस्लाम के बारे में इतिहास का यह एक कटु सत्य है। मुसलमानों के इस खेल को सावरकर जी बड़ी गहराई से समझते थे।

मुसलमानों को लिया आड़े हाथों

उन दिनों कई ऐसे मुस्लिम नेता थे जो मुस्लिमों की जनसंख्या के आधार पर उन्हें आरक्षण देने की बात कर रहे थे। सावरकर जी मुसलमानों की इस प्रकार की किसी भी मांग को असंवैधानिक और राष्ट्र विरोधी मानते थे। सावरकर जी की मान्यता थी कि राष्ट्र के लिए देना भी चाहिए। उससे हर क्षण लेते रहने का भाव बनाना राष्ट्र के कोष को खाली करने जैसा होता है। जैसे बैंक से पैसा तब तक ही निकाला जा सकता है, जब तक आप उसमें डालते भी रहेंगे। जैसे ही आप अपने बैंक खाते में रुपया पैसा डालना बंद कर देंगे , वैसे ही आपको बैंक देना भी बंद कर देगा। यही स्थिति राष्ट्र की है। राष्ट्र से कुछ लेने से पहले उसे कुछ देना भी चाहिए। वही समाज उन्नति करते हैं जो राष्ट्र को देना जानते हैं। यही कारण था कि सावरकर जी हिंदुओं सहित देश के प्रत्येक व्यक्ति से यह अपेक्षा करते थे कि वह राष्ट्र के लिए कुछ सकारात्मक करना भी सीखे। नकारात्मक लोगों को वह नकारते थे और लताड़ते भी थे।
उन्होंने जनसंख्या के आधार पर आरक्षण की मांग करने वाले मुसलमानों को आड़े हाथों लिया और कहा कि आप लोग लेना ही जानते हैं या फिर देना भी जानते हैं? हम सभी जानते हैं कि हैदराबाद के निजाम के यहां कुल जनसंख्या का 90% भाग हिंदुओं का था। परंतु उन्हें उनकी जनसंख्या के आधार पर आरक्षण नहीं दिया गया था। बहुत कम अनुपात में उन्हें सरकारी नौकरियों में स्थान मिलता था। सारी मलाई को मुसलमान चट कर रहे थे। जबकि अन्य राज्यों में मुसलमान अपनी जनसंख्या के आधार पर आरक्षण के लिए संघर्ष कर रहे थे। इस प्रकार की विकृत मानसिकता को सावरकर जी ने समझा और उन्होंने उन्होंने सिंहगर्जना करते हुए कहा कि :-
“बड़ौदा में ३३ प्रतिशत प्रतिनिधित्व की मांग करने से पहले वहां के मुसलमान हैदराबाद के निजाम से कहें कि वह ९० प्रतिशत हिंदुओं को ५० प्रतिशत प्रतिनिधित्व न देते हुए उन्हें जनसंख्या की मात्रा में प्रतिनिधित्व दे। परंतु यह प्रश्न अब तर्कसम्मत नहीं रहा, पाकिस्तान की मांग मंजूर करवाने के लिए हिंदुस्थान में भी षड्यंत्र रचाने का मुसलिम लीग के आंदोलन का यह एक हिस्सा है। ऐसी परिस्थितियों में जातीय मनमुटाव बढ़ेगा। इस तरह की भ्रामक कल्पना से मुसलिम आक्रमण के प्रतिबंध न करने की दव्य नीति हिंदू राजे-महाराजे अब तुरंत छोड़ दें। जातीय अनबन मिटाने का प्रभावी उपाय है। अपराधी जाति को कड़ा दंड देना।”

सावरकर जी के विरोधियों की स्थिति

सावरकर जी की इस प्रकार की सिंहगर्जना में तर्क था। यह उनकी अनूठी विशेषता भी थी कि वह बिना तर्क और प्रमाण के कुछ कहते या लिखते भी नहीं थे। उनके विरोधियों के पास उनके तर्क और प्रमाण का कोई ठोस उत्तर नहीं होता था। वह बगलें झांकने लगते थे और अपनी हताशा को मिटाने के लिए या अपनी भड़ास निकालने के लिए सावरकर जी पर उल्टे सीधे आरोप लगाने लगते थे। इसके उपरांत भी सावरकर जी रुकते या झुकते नहीं थे। उनकी वीरता इसी भाव में अंतर्निहित थी कि उनके विरोधी जितना ही उन पर कीचड़ उछालते थे, उनका जीवन रूपी कमल उतना ही अधिक खिलता था। विषमताओं में भी खिलते रहना उसी व्यक्तित्व की विशेषता होती है जो विलक्षणताओं से विभूषित होता है। इसी को हमारे यहां पर विभूति कहा जाता है। सावरकर जी एक ऐसी ही महान विभूति थे। कमल जैसा पवित्र उनका जीवन सदा निष्पाप रहा। उन्होंने पापियों को रुलाया पर वे अनेक पापियों के एक साथ मिलने के उपरांत भी रोए नहीं।
छोटे कद के सावरकर जी अपने विरोधियों को सदा बड़े कद वाले दिखाई देते रहे। उनके बारे में यह सत्य है कि उनका कोई भी विरोधी उनके कद को नाप नहीं सका। दिखाई देने में वह जितने छोटे दीखते थे अपने गुणों में वह उतने ही बड़े थे। उनका लघुकाय स्वरूप उनके विरोधियों को विशालकाय के रूप में दिखाई देता था। उनसे कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेता ही नहीं ब्रिटिश हुकूमत में बैठे लोग भी भय खाते थे।
दुबले पतले से शरीर में आत्मविश्वास की जिस अथाह गहराई को सावरकर जी लेकर चलते थे, उसे उनके विरोधी कभी नाप नहीं सके। जब वह बोलते थे या लिखते थे तो उनके विरोधियों के बड़े से बड़े नेता को भी कुछ कहते नहीं बनता था। जिस आत्मबल और मनोबल को लेकर सावरकर जी अपनी आंतरिक सेना के बल पर विरोधियों पर प्रहार करते थे, उससे उनके विरोधी झल्ला जाते थे। ऐसा तभी होता है जब कोई व्यक्ति आत्मिक बल से सराबोर होता है। आध्यात्मिक शक्तियों के दिव्य जागरण से ही ऐसी शक्ति प्राप्त होती है और यह भी सत्य है कि ऐसी शक्ति किसी बिरला को ही प्राप्त होती है। वह संसार के समर क्षेत्र में एक सैनिक की भांति काम कर रहे थे। उन्होंने अपने इस सैनिक स्वरूप को देश के सांस्कृतिक मोर्चे पर भी प्रखरता प्रदान की और राजनीतिक मोर्चे पर भी वह इसी रूप में दिखाई दिए।

श्री राम, श्री कृष्ण और सावरकर जी

 सावरकर जी रामचंद्र जी और श्री कृष्ण जी जैसी दिव्य विभूतियों को अपने जीवन का आदर्श मानते थे। उन्होंने रामचंद्र जी और श्री कृष्ण जी के उस स्वरूप का वरण किया जिसमें उन्होंने जीवन भर राक्षसों का संहार करते हुए अपने जीवन को भव्यता प्रदान की थी। राक्षसों के संहार करने वाले जीवन को ही वह भव्य और दिव्य जीवन मानते थे। इस प्रकार वे संसार के समर क्षेत्र से पलायनवादी दृष्टिकोण को अपनाने के पक्षधर नहीं थे। इसके विपरीत वह संसार के समर क्षेत्र में रुक कर विरोधियों को ललकार देने में विश्वास रखते थे।

अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने संपूर्ण हिंदू जाति को भव्य और दिव्य जीवन जीने की प्रेरणा देते हुए स्पष्ट उद्घोष किया कि राजनीति का हिंदूकरण और हिंदुओं का सैनिकीकरण किया जाना चाहिए। जब वह इस प्रकार का उद्घोष कर रहे थे तो उनकी दृष्टि में भगवान श्री राम और भगवान श्री कृष्ण जी का चित्र और चरित्र दोनों ही उतर आए थे। वह जानते थे कि इन दोनों महापुरुषों ने अपने-अपने काल में किस प्रकार इसी आदर्श को लेकर आगे बढ़ने का संकल्प लिया था ? और देश, धर्म व संस्कृति की रक्षा करने में सफल हुए थे। यह ठीक है कि उस समय हिंदू शब्द नहीं था और उस समय हम सबका सामूहिक संबोधन आर्य था। अतः कहा जा सकता है कि भगवान श्री राम और श्री कृष्ण जी अपने काल में जिस आर्य संस्कृति का उद्धार कर रहे थे उसी को हिंदू संस्कृति कहकर सावरकर जी अपने समय में संबोधित कर रहे थे। उन्होंने राजनीति की दिशा मोड़ने का प्रयास किया और प्रत्येक राजनीतिक मंच पर देश के लोगों को झकझोरते हुए उन्हें जगाने का अप्रतिम कार्य किया।
उनके समकालीन किसी भी राजनीतिक व्यक्तित्व ने राजनीति का हिंदूकरण और हिंदुओं का सैनिकीकरण करने की बात नहीं की। इसका कारण केवल एक था कि उनके सारे के सारे विरोधियों का मनोबल मरा हुआ था।

डॉ राकेश कुमार आर्य

( यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)

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