बलिदानों की धरती भारत में ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने रक्त से देशप्रेम की अमिट गाथाएं लिखीं। यहाँ की ललनाएं भी इस कार्य में कभी किसी से पीछे नहीं रहीं, उन्हीं में से एक का नाम है-झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई। उन्होंने न केवल भारत की बल्कि विश्व की महिलाओं को गौरवान्वित किया। उनका जीवन स्वयं में वीरोचित गुणों से भरपूर, अमर देशभक्ति और बलिदान की एक अनुपम गाथा है। रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी की रानी और भारत की स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम वनिता थी। भारत को दासता से मुक्त करने के लिए सन् 1857 में बहुत बड़ा प्रयास हुआ। यह प्रयास इतिहास में भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम या सिपाही स्वतंत्रता संग्राम कहलाता है। अंगेजों के विरुद्ध रणयज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देने वाले योद्धाओं में वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का नाम सर्वोपरी माना जाता है। 1857 में उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सूत्रपात किया था। अपने शौर्य से उन्होंने अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिए थे। अंग्रेजों की शक्ति का सामना करने के लिए उन्होंने नये सिरे से सेना का संगठन किया और सुदृढ़ मोर्चाबंदी करके अपने सैन्य कौशल का परिचय दिया। ह्यूरोज के नेतृत्व में जब अंग्रेज़ी सेना ने झाँसी को चारो तरफ़ से घेर लिया तो रानी लक्ष्मीबाई क़िले के अन्दर से ही अपनी सेना का संचालन करती रहीं साथ ही तात्या टोपे की भी मदद ली। किन्तु सफलता स्वभावत: बलशाली अंग्रेजों को ही मिलती रही। फिर रानी छिप कर कालपी रवाना हो गईं और वहाँ पहुँचकर नये सिरे से विद्रोह की तैयारियाँ कीं और ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। रानी की यह विजय ज़्यादा दिन टिकी नहीं रह सकी और वे अंग्रेजों से वीरतापूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गई।

 

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