देश विभाजन और सावरकर, अध्याय 7 ( ख ) सावरकर जी और आर्य समाज
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद जी महाराज 1857 की क्रांति के समय मात्र 33 वर्ष की अवस्था के थे। परंतु उन्होंने उस समय बाबा औघड़नाथ के नाम से क्रांति के लिए भूमिका तैयार की और मेरठ में क्रांतिकारियों के बीच रहकर क्रांति को बलवती करने में अपनी अग्रणी भूमिका निभाई थी। जिस आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद जी और उनके पीछे की गुरु परंपरा के तीन महान सन्यासी एक साथ मिलकर देश को क्रांति के बल पर स्वतंत्र कराने की रणनीति पर काम कर रहे थे, उस आर्य समाज के प्रति विनम्र और सद्भावी होना सावरकर जी के लिए स्वाभाविक था। इस प्रकार स्वामी दयानंद जी का क्रांतिकारी स्वरूप सावरकर जी के लिए प्रेरणा स्रोत था।
सावरकर जी आर्य समाज के प्रति सदैव कृतज्ञ भाव से देखते रहे। इसका कारण केवल एक था कि वे भारत में हिंदूहितरक्षक अर्थात सत्य सनातन वैदिक संस्कृति के रक्षक और पोषक के रूप में आर्य समाज को देखते थे। यदि कहीं वह आर्य समाज की मान्यताओं से असहमत भी होते थे तो भी वह उसे अपना घरेलू विषय मानकर आगे बढ़ने में विश्वास रखते थे।
‘भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में आर्य समाज का विशेष ( 80% योगदान ) पुस्तक के पृष्ठ 137 पर लिखा गया है कि भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम में आर्य समाज का योगदान लेखक आचार्य सत्यप्रिय शास्त्री पृष्ठ 74 – 78 के अनुसार पता चलता है कि वीर सावरकर को भारतीय स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने की प्रेरणा आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद के अनन्य शिष्य पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा ने दी थी। सावरकर जी पहले ‘दी इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस 1857′ पुस्तक लिखकर इतिहासकार बने। इस पुस्तक से ब्रिटिश सरकार बेचैन हो गई। उस समय सावरकर जी मात्र 23 वर्ष के थे। इस महत्वपूर्ण पुस्तक की पांडुलिपि के आधार पर ही लंदन हाउस में भारतीय छात्रों तथा अन्य भारतीयों के बीच निर्भयता से स्वदेश की गरिमा एवं 1857 की क्रांति की कथा सुनाया करते थे। ब्रिटिश सरकार को जब अपने गुप्तचरों से पता चला तब से इनकी गतिविधियों पर कड़ी नजर रखी जाने लगी।’
कांग्रेस जिस प्रकार मुस्लिम तुष्टीकरण करते हुए हिंदू हितों की उपेक्षा करती थी, उसको लेकर सावरकर जी कांग्रेस और कांग्रेस के नेताओं से अत्यंत खिन्न रहते थे। सावरकर जी हिंदू हित रक्षक के रूप में वैदिक सत्य सनातन संस्कृति और सनातन धर्म की रक्षा को राष्ट्र की रक्षा के साथ जोड़कर देखते थे। इस प्रकार उनका सम्पूर्ण चिंतन और राजनीतिक दर्शन वैदिक संस्कृति और धर्म को संपूर्ण मानवता के हितों की रक्षा की गारंटी के रूप में देखता था। कांग्रेस इस प्रकार की सोच से अपने आप को दूर करती थी। कांग्रेस की यही सोच देश को तोड़ने में सहायक हुई।
कांग्रेस की छद्म धर्मनिरपेक्षता
कांग्रेस को धर्मनिरपेक्षता पर गर्व था। उसे अपनी वैदिक संस्कृति की रक्षा करने और वैदिक मूल्यों को अपनाने की परवाह तनिक भी नहीं थी। एक प्रकार से वह नास्तिकता के भाव को लेकर और वेद धर्म की निंदा करते हुए आगे बढ़ना चाहती थी। वास्तव में यह पढ़े-लिखे भारतीय काले अंग्रेजों की एक नास्तिक सभा थी। उसकी स्थिति उन उभयलिंगी लोगों जैसी हो चुकी थी,जो ना तो पुरुष कहे जा सकते और ना ही नारी कहे जा सकते । ऐसी सोच रखने वाली संस्था या राजनीतिक पार्टी के विरुद्ध सावरकर जी ने हिंदू मतदाताओं को सीधे-सीधे प्रेरित किया कि राष्ट्रहितों से खिलवाड़ कर रही कांग्रेस को केभी अपना समर्थन ना दें। राष्ट्र उन्हीं हाथों में सुरक्षित रह सकता है जो राष्ट्र के मूल्यों को अपनाते हों या जो राष्ट्र के मूल्यों पर कुदृष्टि रखने वाले हाथों को कुचलने की क्षमता रखते हों। राष्ट्र शास्त्रीय मूल्यों से बनता है और शस्त्रगत मूल्यों से सुरक्षित रहता है, इसे सावरकर तो समझ रहे थे पर यह बात कॉन्ग्रेस को कभी समझ नहीं आई।
कांग्रेस ने राष्ट्र के शास्त्रीय मूल्यों की अवहेलना की और काल्पनिक आधार पर कुछ ऐसी चीजों को पश्चिम से ग्रहण करने लगी जो भारत के अनुकूल नहीं थीं। अपने मौलिक स्वरूप में भारत के प्रतिकूल रही उन्हीं बातों के आधार पर कॉन्ग्रेस भारत में राष्ट्र के निर्माण में लग गई। इससे भारत में राष्ट्र का निर्माण तो नहीं हुआ ,राष्ट्र का विखंडन अवश्य हो गया। राष्ट्र के गुणों से सर्वसंपन्न राष्ट्र में राष्ट्र के कमतर मूल्यों को स्थापित करना बहुत बड़ी मूर्खता होती है। कांग्रेस इसी मूर्खता को करने में लग गई थी। इस मानसिकता को भी देश के विभाजन का एक कारण माना जाना चाहिए।
कांग्रेस की इसी प्रकार की चिंतन भावना को देखकर सावरकर जी ने कहा है कि कांग्रेस की इस दुष्ट प्रवृत्ति से रक्षा करने का एक उपाय है। वह यह कि हिंदू उन्हें अपना वोट न दें और अपने प्रतिनिधि के रूप में उन्हें निर्वाचित न करें। इसके विपरीत जो प्रकट रूप में एक संघटित पक्ष के रूप में हिंदूहित की सुरक्षा का आश्वासन देते हैं उस हिंदू महासभा इच्छुकों को अपने वोट दें। कांग्रेस में कुछ लोग भले हैं परंतु उन लोगों की भलाई पर गौर न करते हुए हम कांग्रेस की यह हिंदू विघातक नीति देखें जिससे वे बँधे हुए हैं और उससे हिंदू हित की रक्षा के लिए हिंदू सभा को मत दें।’
कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता के नाम पर जहां हिंदू विघातक नीति को अपनाकर चल रही थी वहीं सावरकर जी पहली बार देश के राजनीतिक दलों को और राजनीतिज्ञों को यह समझाने का प्रयास कर रहे थे कि हिंदूहित की बात करना राष्ट्रहित की बात करना है। उन्होंने हिंदू और राष्ट्र को अन्योन्याश्रित संबंध के रूप में स्वीकृति प्रदान की। जिसे हमारे कुछ ऋषि, महर्षि – मनीषियों ने अनन्या भक्ति कहा है, वह राष्ट्र के संदर्भ में पूर्ण समर्पण की पवित्र भावना के साथ अभिव्यक्त की जा सकती है। भारत के अध्यात्म की इसी अनन्या भक्ति को अपनी अनन्या राष्ट्रभक्ति के साथ समर्पित और समन्वित कर देखने वाले सावरकर जी के लिए कांग्रेस की हिंदू विघातक नीति कतई अस्वीकार्य थी।
सुभाष चंद्र बोस की भी की आलोचना
सावरकर जी चाहते थे कि कांग्रेस की लगाम में झटका लगे और वह जिस प्रकार हिंदूहितों की उपेक्षा करते हुए मुस्लिम लीग और ब्रिटिश हुकूमत की बगल में घुसती जा रही है उससे वह अपने आप को बाज रखे। उन्हें यह भरोसा था कि हिंदू सजग और सावधान होकर देश हित में निर्णय लेगा और आज नहीं तो कल कांग्रेस को सत्ता से खींच कर बाहर करेगी।
उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष श्री सुभाष चंद्र बोस ने एक पत्रक जारी किया। जिसमें नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने एक गोलमेज परिषद आयोजित करने का विचार अंग्रेज सरकार को दिया।उसको संबोधित करते हुए तारीख २० नवंबर, १९३८ के दिन सावरकर ने कहा कि 'वर्तमान परिस्थितियों पर विचार करते हुए शीघ्र ही एक गोलमेज परिषद् की जाए, तो उस परिषद में हिंदू स्थान की ओर से केवल कांग्रेस पक्ष को ही आमंत्रित किया जाए' - इस प्रकार की जो एक पत्रिका सुभाषचंद्र बोस ने निकाली है ,वह अनुचित है। इसका पहला कारण यह है कि मुसलमानों की ओर से बोलने का अधिकार मुसलिम लीग के बै. जिन्ना ने कांग्रेस को नहीं दिया। उनकी चर्चा से यह प्रतीत होता है कि जिस समय बै. जिन्ना ही कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित होंगे तभी कांग्रेस मुस्लिम लीग का प्रतिनिधित्व कर सकती है। परंतु उनके इस संबंध का विचार न करते हुए मेरा अभिप्राय यह है कि कांग्रेस को हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार नहीं है। यद्यपि कांग्रेस हिंदू मत पर निर्वाचित हुई है तथापि उसने हिंदू हित रक्षा का भरोसा कभी भी नहीं दिया। इसके विपरीत यह कांग्रेस, जो मुसलमानों की अनेक अन्यायी माँगें मान्य करती है, हिंदुओं की एक भी न्याय सम्मत माँग स्वीकार नहीं करती। इसीलिए मैं स्पष्ट शब्दों में कहता हूँ कि ब्रिटिश प्रशासन और मुस्लिम लीग, उसी तरह कांग्रेस और मुसलिम लीग अथवा इन तीनों में जो भी कुछ करारनामे होंगे वे हिंदुओं के लिए बंधनकारक न हों। इस तरह की परिषदों में एक समान अधिकारिणी संस्था के रूप में हिंदू महासभा को आमंत्रित किया जाए और वही प्रस्ताव हिंदुओं के लिए बंधनकारक होंगे जो वह स्वीकार करेगी।"
कांग्रेस की इस प्रकार की मानसिकता और कार्यशैली को देखकर ही सावरकर जी उसे हिंदू समाज की प्रतिनिधि संस्था के रूप में नहीं देखते थे। यद्यपि मुस्लिम लीग के नेता कांग्रेस को हिंदू पार्टी कहकर और गांधी को हिंदू नेता कहकर उन पर तंज कसते हुए उनके लिए ऐसा बोलते थे। परंतु वे जितना ही उन्हें हिंदू नेता के रूप में स्थापित करने का प्रयास करते थे , गांधी जी उतना ही अधिक अपने आपको हिंदू नेता न कहलवाकर मुस्लिम परस्त नेता कहलवाने में सुखानुभूति करते थे। कांग्रेस और कांग्रेस के नेताओं का ऐसा छद्म स्वरूप देश के लिए घातक बना और जब- जब कांग्रेस व उसके नेता इस प्रकार का आचरण करते थे, तब-तब सावरकर उन्हें कड़ी फटकार लगाते थे। उनकी इस प्रकार की फटकार का अर्थ यह नहीं होता था कि वे कांग्रेस के नेताओं को अपमानित करना चाहते थे, इसके पीछे उनकी पवित्र भावना यही होती थी कि ऐसा करने से कांग्रेस और उसके नेता सही रास्ते पर आ जाएंगे।
कांग्रेस का सबसे प्रिय सिद्धांत
यह बात सही भी है कि जो संस्था या राजनीतिक दल अपने देश व समाज के अनुकूल हितों को या मांगों को किसी विदेशी सत्ता के सामने उठाने में भी झिझक करता हो या हिचक दिखाता हो, उसे सर्व समाज की स्वीकृति मिलने के उपरांत भी बहुसंख्यक समाज का प्रतिनिधि नहीं कहा जा सकता। कांग्रेस प्रारंभ से ही अपने दोगलेपन को अपने सबसे प्रिय सिद्धांत के रूप में देखती रही । देश का बंटवारा करने के उपरांत भी उसने अपनी इस दोगलेपन की नीति से किसी प्रकार की शिक्षा नहीं ली। परिणाम स्वरूप उसने स्वाधीनता के पश्चात अपने इसी दोगलेपन को धर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढाकर संविधान के भीतर भी स्थापित कराने में सफलता प्राप्त कर ली। इस प्रकार कांग्रेस का यह दोगलापन स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात भी हिंदुओं के गले की फांस बन कर रह गया।
निजाम हैदराबाद की गुंडागर्दी
उन दिनों निजाम हैदराबाद की गुंडागर्दी से वहां की हिंदू जनता बहुत अधिक उत्पीड़ित हो रही थी। निजाम की इस गुंडागर्दी का विरोध आर्य समाज बहुत मुखर होकर कर रहा था। यही कारण था कि आर्य समाज को इस विरोध के बदले में अपने अनेक बलिदान देने पड़े थे। सावरकर जी आर्य समाज की बलिदानी परंपरा से बहुत अधिक प्रभावित रहते थे। उन्होंने चाहे कांग्रेस हो या फिर कोई अन्य संगठन हो सभी की कार्यशैली और कार्यप्रणाली में अनेक प्रकार के दोष देखे और उनकी तीखी आलोचना की, पर आर्य समाज की कार्यप्रणाली को उन्होंने अपने सर्वथा अनुकूल समझा। यदि उस समय देश के किसी भी कोने में मुसलमानों की ओर से हिंदुओं पर अत्याचार होते थे या ब्रिटिश हुकूमत की ओर से हिंदुओं पर ऐसी कहीं कोई कठोर कार्यवाही होती थी तो ऐसा कभी नहीं हो सकता था कि सावरकर जी उस पर मौन साध जाएं। ऐसा मौन साध लेना कांग्रेस के किसी नेता के लिए तो संभव था, पर सावरकर जी के लिए संभव नहीं था।
हिंदुत्व के समर्थक और पक्षधर के रूप में उनकी ख्याति उस समय सारे देश में फैल चुकी थी। इस ख्याति को कलंकित करने के लिए ही कांग्रेस, मुस्लिम लीग और ब्रिटिश सत्ताधारियों ने उन पर उग्र राष्ट्रवाद के आरोप लगाए । उनके हिंदुत्ववादी चिंतन को देश के लिए खतरनाक बताकर उसे देश के विभाजन का एकमात्र कारण घोषित किया। स्वाधीनता के पश्चात अर्ध मुस्लिम बने छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी लोगों ने भी सावरकर जी को मुस्लिम लीग, कांग्रेस और ब्रिटिश सत्ताधारियों के इसी दृष्टिकोण से देखा।
नवंबर 1938 में सावरकर जी ने एक पत्रिका निकालकर निजामशाही के द्वारा हिंदुओं पर किए जा रहे अत्याचारों की पोल खोलने का सराहनीय और राष्ट्रवंद्य कार्य किया। उसका सारांश इस प्रकार है- “विगत कई दिनों से निजाम राज्य से हिंदुओं को जड़ से उखाड़कर राज्य इस्लाममय करने की कार्रवाइयाँ सतत चल रही हैं। उसके विरोध में आर्यसमाज सतत संघर्षरत है। इस युद्ध में आर्यसमाज के कम-से-कम बारह कार्यकर्ताओं की मुसलमान गुंडों द्वारा हत्या गई है। पाँच वर्ष पूर्व हिंदू महासभा ने भी इस प्रश्न पर गौर करते हुए अपने प्रतिनिधियों को भेजकर प्रत्यक्ष निरीक्षण करके इससे संबंधित प्रस्ताव भी किए हैं और शिष्टमंडल भेजे गए हैं। परंतु निजाम के मंत्रियों ने उन्हें टरका दिया कि हमारे राज्य में हिंदुओं पर अत्याचार होते ही नहीं। मुंह से किसी ने प्रत्यक्ष रूप में शिकायत नहीं की।”
“परंतु वस्तुस्थिति इस तरह है कि उधर मुसलमानों के अत्याचार, हिंदुओं की दुकानों पर लूटमार, हिंदू नेताओं की हत्याएँ, हिंदू स्त्रियों की विडंबना, उनका बलपूर्वक धर्मांतरण और इन सारे अत्याचारों से पीड़ित हिंदुओं की चीखों से वहाँ का वातावरण भर गया था। परंतु कांग्रेस ने जो अबीसिनिया, चेक, पलीस्तोनिया स्थित अरबों के लिए दहाड़ें मारकर रोते मुसलमानों द्वारा हिंदुओं पर किए गए इन अत्याचारों के विरुद्ध निषेध का एक शब्द तक नहीं कहा। कांग्रेस अध्यक्ष सुभाषचंद्र बोस ने भी, जो कह रहे थे कि मैसूर, त्रावणकोर, राजकोट आदि हिंदुस्थानी प्रदेशों पर किए गए अत्याचारों से मुझे दुःख हुआ है। भोपाल तथा निजाम- इन मुसलमानी राज्यों पर जो औरंगजेबी अत्याचार हुए हैं, उनके संबंध में एक शब्द का भी उच्चारण नहीं किया। क्योंकि इस प्रकार का वक्तव्य राष्ट्रीयता से उनका द्रोह सिद्ध होता है न ।
“गांधीजी ने तो हिंदुओं को विश्वास ही दिलाया कि भोपाल में रामराज्य है। यह गांधी छाप असत्य सत्य के नाम के नीचे कथन किया जाने से वह अत्यंत लज्जास्पद है। राष्ट्रीय सभा द्वारा इस प्रकार की नीति अपनाने पर भी हिंदू सभा और आर्यसमाज वहाँ के हिंदुओं पर ढाए गए अत्याचारों का प्रतिकार कर रहे हैं। स्मरण रहे कि हिंदुस्थान का इस्लामीकरण करने के कार्य में औरंगजेब को तथा निजाम के प्रपितामहों को मराठा सेना ने किस तरह धूल चटाई थी। वहाँ हिंदुओं को सभी तरह की धार्मिक सुविधाएँ देकर दायित्वपूर्ण राज्य कारोबार आरंभ करें। उसमें हिंदुओं को लोक संख्या की मात्रा में प्रतिनिधित्व दिया जाए-यही चिरएकता और शांति स्थापना का उपाय है।”
इस उद्धरण में सावरकर जी ने अपने हृदय की वेदना को प्रकट किया है। कांग्रेस की हिंदूहितों के प्रति उपेक्षा वृत्ति को जहां उन्होंने इसमें स्पष्ट किया है वहीं नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आलोचना करने से भी वह नहीं चुके। जिन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए निजामशाही द्वारा हिंदुओं पर किए जा रहे अत्याचारों की ओर जानबूझकर ध्यान नहीं दिया या कांग्रेस की परंपरागत नीति का पालन करते हुए उसी प्रवाह में वह बह गए। इस कथन से यह भी सिद्ध होता है कि 1938 तक भी कांग्रेस व्यवस्था के विरुद्ध द्रोह करने की स्थिति में नहीं थी। वह अंग्रेजी हुकूमत को या तो उखाड़ना नहीं चाहती थी और यदि कहीं शासन के विरुद्ध कोई ऐसा कार्यक्रम या आंदोलन करती हुई भी दिखाई दे रही थी तो उसे वह अनमने मन से ही करती थी।
जिस महामानव सावरकर ने एक समय में एक साथ ब्रिटिश सत्ता और उसकी नीतियों को कहीं ना कहीं बढ़ाने में सहायक रहने वाली मुस्लिम लीग और कांग्रेस का भारी विरोध किया, उसे वीर कहना ही उचित होगा। देश के प्रति बने इन तीनों के गठबंधन को सावरकर जी उचित नहीं मानते थे और स्पष्ट शब्दों में कहते थे कि इसकी अंतिम परिणति देश को तोड़ने में होगी। आगे की घटनाओं ने उनकी आशंका को सत्य में परिवर्तित कर दिया था।
डॉ राकेश कुमार आर्य
( यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)