ममता बनर्जी, एक ऐसा नाम जो काँग्रेस की हर राह में रोड़ा बन कर खड़ा हो जाता है। पिछले 3 सालों में ममता ने ना जाने कितनी बार काँग्रेस के लिए मुसीबतें खड़ी की हैं। जिसके कारण काँग्रेस की स्थिति ममता के हाथों कई बार कठपुतली की तरह नाचने जैसी दिखाई देने लगती है। हालांकि इसमें भी कोई दो राय नहीं है की देश की राजनीति इस समय नाजुक हालातों से गुजर रही है। यानि कहा जाए की यूपीए सरकार के भविष्य पर संकट के काले बादल अक्सर मंडराते दिखाई दे ही जाते है तो इसमें कुछ गलत नहीं होगा।
महंगाई, भ्रष्टाचार बढऩे और आर्थिक सुधारों के रूकने से काँग्रेस अब जनता के निशाने पर है। केंद्र में काँग्रेस नीत यूपीए सरकार की सहयोगी और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ऐसे में अगर काँग्रेस पर हर तरह से दबाव बनाकर रखती है तो फायदा ममता का ही है। अब पेंशन बिल को लेकर तृणमूल काँग्रेस का विरोध काँग्रेस को झेलना पड़ा। तृणमल काँग्रेस के विरोधी तेवर ऐसे थे कि जिसके चलते कैबिनेट की बैठक में पेंशन बिल पर कोई चर्चा तक नहीं हो सकी और यह बिल लटक गया। हालांकि इस बात से इंकार भी नहीं किया जा सकता की काँग्रेस ने ये सब आगामी राष्ट्रपति चुनावों के मद्देनजर किया है। जिससे की ममता को जुलाई महीने में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों तक मना कर रखा जाए। वैसे देखा जाए तो काँग्रेस को ममता को मना कर रखना मजबूरी तो नहीं लेकिन फिहलाल वक्त की जरूरत भर है।
ममता अगर एक मंझी हुई नेता है तो वहीं काँग्रेस के पास राजनीति का लंबा अनुभव है। तृणमूल काँग्रेस क्षेत्रीय पार्टी होने के साथ यूपीए की अहम सहयोगी भी है जिसके कारण ममता का सीधा और सरल नियम दबाव की राजनीति है। काँग्रेस पर ममता की तृणमूल काँग्रेस की कोशिश हमेशा भारी पडऩे की रही है। काँग्रेस के हर कदम पर ममता की टेढ़ी नजर ही रहती है। वही काँग्रेस की हमेशा से एक खासियत रही है कि वो चुनावों में कमबेक आसानी से कर लेती है। यहाँ एक बार गौर करने वाली है कि काँग्रेस को ममता बनर्जी की जरूरत है तो ममता को काँग्रेस की जरूरत उससे भी ज्यादा है। अगर ऐसा नहीं है तो ममता कब का काँग्रेस से अपना समर्थन वापस ले चुकी होती। किसी भी गठबंधन के पीछे हर राजनीतिक दल के अपने हित होते हैं। काँग्रेस को सरकार चलाने के लिए ममता की जरूरत है तो ममता को अब आगामी लोकसभा चुनावों में अपनी जमीन तैयार करने के लिए काँग्रेस के साथ की हर हाल में जरूरत है। ममता जब काँग्रेस की सदस्य थी तो ममता ने काँग्रेस का उपयोग सिर्फ अपना राजनीतिक भविष्य तराशने के लिए किया। अगर आज ममता पश्चिम बंगाल में काँग्रेस को कुछ भी न समझे लेकिन काँग्रेस के लिए ममता को पश्चिम बंगाल में अपनी वापसी के लिए साथ रखना बहुत जरूरी है।
चुनावी राजनीतिक किसी भी लोकतन्त्र का कठोर चेहरा होती है और इसी क्रम में सत्ता पाने के लिए कुछ खोना राजनीति का एक नियम है। भारतीय राजनीति में कुछ ही नेता ऐसे हैं जिनके लिए पाना महत्वपूर्ण है और चीजों को खेना उन्होंने अपनी राजनीति का पहलू बना लिया है। ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल की सत्ता पाने के लिए काँग्रेस से अलग होकर तृणमूल काँग्रेस की स्थापना की तो सबसे पहले भाजपा के सहारे अपनी जमीन तलाशने की कोशिश की क्योंकि ममता और भाजपा दोनों की विचारधारा वाम मोर्चो से नहीं मिलती थी और मतता को किसी भी कीमत पर वाम किला ढहाना था और जब एनडीए ने केंद्र में सरकार बनाई तो मतता उसका हिस्सा भी बन गयी। लेकिन 2००2 में गुजरात कांड के बाद उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को हटाने का दबाव बनाया। लेकिन मोदी को गुजरात का मुख्यमंत्री पद से हटाने के सारे कयास धरे के धरे रह गए और ममता भी शांत हो गयी। ममता के लिए उस समय भाजपा का केंद्र में साथ जरूरी था क्योंकि ममता यहाँ सांप्रदायिक और धर्मनिरपेक्ष का ना होकर पहले अपना अस्तित्व बनाना था जिससे वो अपना जनाधार बढ़ा का वाममोर्चे को सीधी टक्कर दे सकें। भाजपा से जुड़ाव उस समय के बंगाली जनता को रास नहीं आया और इसी कारण ममता की तृणमूल की के आम चुनावों में बस 2 सीटें ही मिली। लेकिन ममता को पता था की भाजपा ने उन्हें उस मुकाम पर पहुंचा दिया है जिसके लिए ममता 1998 से लगातार संघर्ष करती आ रही है।
अब बस ममता को ऐसे मौकों की तलाश थी जिससे ममता अगले यानि लोकसभा चुनावों में किगमेकर की स्थिति में पहुँच जाए और बंगाल में वामपंथी सरकार को उखाड़ फेंक दे। अब से पांच साल पहले तसलीमा नसरीन मामलें में ममता ने पूरे प्रकरण पर बोलने से इंकार कर दिया क्योंकि अब वो मुस्लिम वोट बैंक को अपने से दूर नहीं होने देना चाहती थी। इस पूरे प्रकरण ने ममता को एक शस्क्त और समझदार नेता बना दिया था। अब दूसरा मौका सिंगूर और नंदीग्राम के रूप में ममता को मिल गया और वो अब अच्छे जनाधार वाली नेता बन चुकी थी। जो की ममता को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनाने के लिए काफी था।
अब 2००9 के आम चुनावों के नतीजों ने ममता को वो सब दे दिया जिसे पाने की शुरुआत ममता ने साल 2000 से ही कर दी थी। देखा जाए तो ममता ने काँग्रेस, भाजपा का उपयोग बस अपने राजनीतिक हित साधने के लिए किया है जिससे वो अपनी अलग पहचान बना सके। ममता अच्छी तरह से जानती है कि अब वक्त और जनता दोनो ही उनके साथ हैं, ऐसे में अगर वो हर मुद्दे पर काँग्रेस से अपने को अलग कर रही हैं तो ये भी उनकी आगामी रणनीतियों का हिस्सा भर है। अब अगर मुद्दा चाहे जैसा भी हो काँग्रेस को बेकफूट पर रखना ही ममता का मकसद बन चुका है। 2००9 के बाद ममता के तेवरों में तल्खी के बजाय और ज्यादा गरमाहट आने लगी है। अब ममता काँग्रेस को आंखे दिखाने का मौका कभी नहीं चुकती और राजनीतिक हालातों को भांपते हुए काँग्रेस ने चुनावों से दो साल पहले देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना शुरुएकर दिया है। 2००9 के चुनावों से पहले काँग्रेस ने अपना खजाना आम चुनावों से एन वक्त पहले ही खोला था। ऐसे में अगर देश में समय से पहले चुनाव होने की संभावना बनती भी है तो काँग्रेस के पास जनता के बीच जाकर वोट मांगने में कोई दिक्कत पेश नहीं आएगी।