भारत एक कृषि प्रधान देश है। प्रकृति की कृपा तथा हमारे किसानों कि आर्थिक मेहनत से हमारी भूमि सदा उपजाऊ रही है। प्राचीन समय में हमारी खेती प्राकृतिक संपदा व संसाधनों पर ही निर्भर थी और देश की खाद्यान्नों सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा कर पाती थी। जैसे-जैसे देश में शहरीकरण व औद्योगिकरण बढते गये , गांवों से लोग खेती को छोड़ शहरों की ओर आते गये। प्राकृतिक खेती पध्दति कम होती गई और रासायनिक खाद आदि का प्रयोग बढता गया। ज़मीन की उत्पादकता घटती गई और साथ ही किसान की आय भी। सन 1965 में भारत में हरित क्रांति आयी जिससे उपज तो बढी मगर रासायनिक उरवरक तथा अन्य उत्पादों के अन्धाधुन्ध प्रयोग से मिटटी की उत्पादकता भी कम होती गयी। यूरोप, अमरीका व एशिया में सन् 1940-50 के दकों में जैविक खेती और प्राकृतिक खेती की प्रक्रियाओं पर बहुत प्रयोग किये गये। खेती कि ये विधायें भारत में सन 1980 के दशक से आगे बढी हैं। जैविक खेती की पद्धति में रासायनिक पध्दाथों का प्रयोग वर्जित है। प्राकृतिक खेती में केवल प्राकृतिक प्रक्रियाओं व संसाधनों का ही प्रयोग होता है। आधुनिक खेती या रासायनिक खेती प्रकृति के खिलाफ है। रासायनिक खादों व कीटनाशकों से हमारे खेतों की मिट्टी की उर्वरता खत्म हो रही है। मिट्टी में मौजूद सूक्ष्म जीवाणु और जैव तत्त्व मर रहे हैं और वह बंजर हो जाती है। कुदरती खेती प्रकृति के साथ होती है। यद्यपि प्राकृतिक खेती की शुरूआत जापान के कृषि वैज्ञानिक फुकुओवा ने की है लेकिन हमारे यहां भी ऐसी खेती होती रही है। मंडला के बैगा आदिवासी बिना जुताई की खेती करते हैं जिसे झूम खेती कहते हैं।
भारत के मध्य प्रदेश राज्य के होशंगाबाद ज़िले के एक फार्म मे लगभग पिछले 25 वर्षों से प्राक्रतिक खेती, जिसे कुदरती खेती भी कहते है, हो रही है। करीब 12 एकड़ के इस फार्म में सिर्फ 1 एकड़ में खेती की जा रही है। यहां बिना जुताई (नो टिलिग) और रासायनिक खाद के खेती की जा रही है। बीजों को मिट्टी की गोली बनाकर बिखेर दिया जाता है और वे उग आते हैं। यह सिर्फ खेती की एक पद्धति भर नहीं है बल्कि जीवनशैली है। यहां का अनाज, फल पानी और हवा शुध्द है। यहा कुआं है, जिसमें पर्याप्त पानी है। बिना जुताई के खेती मुश्किल है, ऐसा लगना स्वाभाविक है। पहली बार सुनने पर विश्?वास नहीं होता लेकिन देखने के बाद सभी शंकाएं निर्मूल हो जाती र्हैं। दरअसल, इस पर्यावरणीय पद्धति में मिट्टी की उर्वरता उत्तारोतर बढ़ती जाती है। बाकी के 11 एकड़ में सुबबूल (आस्टेलियन अगेसिया) का जंगल है। सुबबूल एक चारे की प्रजाति है। इस जंगल से मवेशियों का चारा और लकडिय़ां मिल जाती हैं। लकडिय़ों की टाल है, जहां से जलाऊ लकड़ी बिकती हैं, जो फार्म की आय का मुख्य स्रोत है। एक एकड़ जंगल से हर वर्ष करीब ढाई लाख रूपये की लकड़ी बेच लेते हैं। गेहूं के खेतों में हवा के साथ गेहूं के हरे पौधे लहलहाते हैं। खेत में फलदार और अन्य जंगली पेड़ हैं जिनके नीचे गेहूं की फसल होती है। आम तौर पर खेतों में पेड़ नहीं होते हैं लेकिन यहां अमरूद, नीबू और बबूल के पेड़ हैं जिन के कारण खेतों में गहराई तक जड़ों का जाल बुना रहता है। इससे भी जमीन ताकतवर बनती जाती है। अनाज और फसलों के पौधे पेड़ों की छाया तले अच्छे होते हैं। छाया का असर जमीन के उपजाऊ होने पर निर्भर करता है। चूंकि यहां जमीन की उर्वरता अधिक है, इसलिए पेड़ों की छाया का फसल पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता।
इन खेतों में पुआल, नरवाई, चारा, तिनका व छोटी-छोटी टहनियों को पड़ा रहने देते हैं, जो सड़कर जैव खाद बनाती हैं। खेत में तमाम छोटी-बड़ी वनस्पतियों के साथ जैव विविधताएं आती -जाती रहती हैं। और हर मौसम में जमीन ताकतवर होती जाती है। इस जमीन में पौधे भी स्वस्थ और ताकतवर होते हैं जिन्हें जल्द बीमारी नहीं घेरती।
यहां जमीन को हमेशा ढककर रखा जाता है। यह ढकाव हरा या सूखा किसी भी तरह से हो, इससे फर्क नहीं पड़ता। इस ढकाव के नीचे अनगिनत जीवाणु, केंचुए और कीड़े-मकोड़े रहते हैं और उनके ऊपर-नीचे आते-जाते रहने से जमीन पोली और हवादार व उपजाऊ बनती है। आमतौर पर किसान अपने खेतों से अतिरिक्त पानी को नालियों से बाहर निकाल देते हैं लेकिन यहां ऐसा नहीं किया जाता। बारिश में कितना ही पानी गिरे, वह खेत के बाहर नहीं जाता। खेतों में जो खरपतवार, ग्रीन कवर या पेड़ होते हैं, वे पानी को सोखते हैं। इससे एक ओर खेतों में नमी बनी रहती है, दूसरी ओर वह पानी वाश्?पीकृत होकर बादल बनता है और बारिश में पुन् बरसता है। इसके विपरीत, जब जमीन की जुताई की जाती है और उसमें पानी दिया जाता है तो खेत में कीचड़ हो जाती है। बारिश होती है तो पानी नीचे नहीं जा पाता और तेजी से बहता है। पानी के साथ खेत की उपजाऊ मिट्टी बह जाती है। इस तरह हम मिट्टी की उपजाऊ परत को बर्बाद कर रहे हैं और भूजल का पुनर्भरण भी नहीं कर पा रहे हैं। साल दर साल भूजल नीचे चला जा रहा है। यहां खेती भोजन की जरूरत के हिसाब से होती हैं, बाजार के हिसाब से नहीं। जरूरत एक एकड़ से ही पूरी हो जाती है। यहां से अनाज, फल और सब्जियां मिलती हैं, जो परिवार की जरूरत पूरी कर देती हैं। जाड़े मे गेहूं, गर्मी में मक्का व मूंग और बारिश में धान की फसल ली जाती है। कुदरती खेती में भूख मिटाने के साथ समस्त जीव-जगत के पालन का विचार है। इससे मिट्टी-पानी का संरक्षण होता हैं। इसे ऋषि खेती भी कहते हैं क्योंकि ऋषि मुनि कंद-मूल, फल और दूध को भोजन के रूप में ग्रहण करते थे, बहुत कम जमीन पर मोटे अनाजों को उपजाते थे। वे धरती को अपनी मां के समान मानते थे, उससे उतना ही लेते थे जितनी जरूरत थी। अत: कुदरती खेती का यह प्रयोग सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय भी है।
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