इंदिरा गांधी ने राजनीति में कभी खुद से बड़ा कद किसी का होने नहीं दिया। इंदिरा गांधी ने तो रायबरेली की हार के बाद रायबरेली के वोटरों को भी नहीं बख्शा। दोबारा रायबरेली और मेढ़क से जब एक साथ चुनाव जीती तो इंदिरा ने रायबरेली को छोड़ मेढक की सीट बरकरार रखी। और उसके बाद रायबरेली में कभी कोई परियोजना नहीं गई। जबकि उससे पहले हर उद्योगपति लाइसेंस लेने के लिये दस्तावेज में रायबरेली में भी एक यूनिट लगाने का जिक्र करता था। यह अलग मसला है कि लाइसेंस मिलने के बाद चाहे चाहे सिर्फ एक टिन-टप्पर ही रायबरेली में नजर आये। तो जब वोटरों को सीख देने तक की राजनीति इंदिरा ने की तो जिन नेताओं ने इंदिरा को जरा भी झटका दिया उस कड़ी में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री ललित नारायण मिश्र को याद किया जा सकता है। लेकिन सोनिया गांधी को लेकर सवाल सिर्फ णव मुखर्जी का नहीं है। सवाल मुलायम सिंह यादव का भी है और ममता बनर्जी का भी है।
प्रणव मुखर्जी ने इंदिरा गांधी के निधन के बाद प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश पाली थी । मुलायम सिंह यादव ने अप्रैल 1999 में सोनिया गांधी के सत्ता की तरफ बढते कदम को समर्थन न देकर रोका था। और ममता बनर्जी ने खुले तौर पर रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी को बिना प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भरोसे में लिये हटाने का एकतरफा फैसला कर मनमोहन सिंह को आइना दिखाने का काम किया था। जाहिर है 10 जनपथ को जानने वाले यह मानते है कि वहां से कभी विरोध करने वालो को माफी नहीं मिलती। तो क्या सोनिया गांधी ने सभी को माफ कर दिया या फिर राजनीति की बिसात समझने या बिछाने में चूक हुई। असल में चूक तो हुई है और इसे साधने के लिये ही पहली बार 10 जनपथ में इंदिरा गांधी के रणनीतिकार आर के धवन और माखनलाल फोतेदार को एक साथ बुलाया गया और उसी के कांग्रेस की जान में जान आयी। लेकिन सियासत की जिन चालों को राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवार को लेकर साधा गया, उसमें सोनिया गांधी के सिपहसलार अहमद पटेल पहली बार चूके, यह भी सच है। अगर प्रणव मुखर्जी के नाम के ऐलान से पहले के पन्नों को उलटे तो 10 जनपथ की मुहर लगने से पहले ही प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति बनने की इच्छा खुले तौर पर जताने लगे। प्रणव की इच्छा को विपक्ष ने भी हवा दी। बीजेपी नेता यशंवत सिन्हा और समाजवादी सांसद शैलेन्द्र कुमार ने लोकसभा में खुले तौर पर बजट भाषण के बाद ही प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति के लिये बधाई दे दी। 10 जनपथ ना तो इस सियासत को समझ पाया और ना ही विरोध की राजनीति में सहमति का घोल, घोल पाया । विरोध के तेवर सहमति ना बनाने के जरीये उभारा गया। और मुलायम सिंह यादव ने 10 जनपथ के इसी राजनीतिक मिजाज को पकड़ा। इसलिये जब ममता बनर्जी और मुलायम मिले तो 10 जनपथ इस चाल से भी अनजान रहा कि मुलायम की बिसात पर प्रणव मुखर्जी ना सिर्फ उनके साथ है बल्कि प्रणव मुखर्जी ने ही मुलायम को यह संकेत दिये की आने वाले वक्त में अगर राजनीति तीसरे मोर्चे की तरफ झुकती है तो फिर उनका राष्ट्रपति बनना मुलायम को दो-तरफ़ा फायदा पहुंचा सकता है। पहला तो 2014 के आम चुनाव के बाद अगर बहुमत किसी दल या गठबंधन को नहीं मिलता है तो राष्ट्रपति का निर्णय खासा अहम होगा। और दूसरा नेताओं की फेरहिस्त में मुलायम कितने भी स्वीकृत नेता हो लेकिन प्रणव मुखर्जी से ज्यादा स्वीकृति उनकी हो नहीं सकती। यानी भविष्य के लिये प्रणव को राष्ट्रपति बनाने में मुलायम को लाभालाभ है। इसी समीकरण में प्रणव मुखर्जी इस हकीकत को समझते थे कि उनके नाम का विरोध 10 जनपथ को सहमति की दिशा में ले जायेगा और मुलायम यह जानते समझे रहे कि अगर राजनीतिक हमला मनमोहन सिंह पर होगा तो 10 जनपथ हर हाल में प्रणव मुखर्जी को दी ढाल बनायेगा। हुआ यही। क्योंकि जो बात अब समाजवादी पार्टी से निकल रही है, उसमें मुलायम के बेटे और यूपी के सीएम अखिलेश यादव से लेकर मुलायम के भाई और सपा के रणनीतिकार रामगोपाल यादव तक पहले दिन से लगातार कहते रहे कि राष्ट्रपति तो प्रणव मुखर्जी ही होंगे। और ममता के विरोध को मुलायम सिंह यादव ने यह कहकर शह दी कि अगर राष्ट्रपति के नाम की फेरहिस्त में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम डाल दिया जाये तो सोनिया गांधी को पहले अपने बनाये पीएम को बचाना होगा। यानी एक तरफ प्रणव मुखर्जी की मुलायम के जरीये ममता को अपने खुले विरोध के लिये फांसना। दूसरी तरफ मुलायम का मनमोहन के जरीये प्रणव मुखर्जी पर ही सोनिया गांधी की राजनीति केन्द्रित करना। असल में इस राजनीति बिसात को आखिर में आरके धवन ने तब समझाया जब सबकुछ हाथ से निकल चुका था। और धवन के साथ फोतेदार को लाकर जब 10 जनपथ ने आगे की रणनीति का सवाल उठाया तो पहला और आखिरी सवाल प्रधानमंत्री की मजबूती के साथ साथ कांग्रेस की मजबूती का उठा।
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