भारतीय शिक्षा नीति : दिशा और दशा

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रामेश्वर मिश्र पंकज

पूरी दुनिया में शिक्षा का लक्ष्य यही है कि पूर्वजों द्वारा संचित ज्ञान राशि को नई पीढ़ी को सौंप दिया जाए।

इसके लिए सबसे पहले ज्ञान के विविध रूपों की स्मृति तथा बोध और संभावनाओं को नई पीढ़ी के मन बुद्धि और चित्त पर अंकित कराना होता है और उसके लिए अभ्यास प्रशिक्षण और कल्पना से भरपूर सृजनशीलता को जागृत और प्रदीपित करना होता है।
साथ ही नई पीढ़ी को अपनी ज्ञान परंपरा की रक्षा और उसमें अभिवृद्धि की निरंतर प्रेरणा देनी होती है और विश्व के अन्य समाजों के पूर्वजों द्वारा अर्जित ज्ञान राशि की भी जानकारी इस प्रकार देनी पड़ती है कि वह अपने समाज के लिए समृद्धि कारक तो बने लेकिन उसके दुष्प्रभावों से आत्मरक्षा की विधियां भी सोची जा सकें।
भारतीय शिक्षा का लक्ष्य भी शिक्षा के इन्हीं उद्देश्यों को भारतीय ज्ञान परंपरा के संदर्भ में अर्जित करना होना चाहिए।
ब्रिटिश शिक्षा के ढांचे का लक्ष्य भारत की नई पीढ़ी को यूरोपीय ज्ञान राशि की जानकारी इस प्रकार से देना था कि यूरोपीय समाज के लिए समृद्धि कारक एक उपकरण भारत की नई पीढ़ी बन सके।।
दुर्भाग्यवश हमारे यहां आज भी शिक्षा की विभिन्न शाखाओं में मुख्यतः यूरोपीय ज्ञान परंपरा की ही रक्षा और प्रशिक्षण की व्यवस्था है और आज भी दर्शन, राजनीति शास्त्र, साहित्य, कला, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र में यूरोपीय मतों को ही सार्वभौम चिंतन की तरह पढ़ाया जाता है ।यह अत्यंत कष्टप्रद स्थिति है। आवश्यक है कि शिक्षा व्यवस्था की दीर्घकालिक नीति बनाई जाए जिसमें समाज की विभिन्न संस्थाएं उस जिम्मेदारी को निभाने का भार स्वीकार करें।
सबसे पहले समाज में आत्म गौरव तथा दायित्व की भावनाएं जगनी आवश्यक है ताकि भारतीय शिक्षा भारतीय ज्ञान परंपरा की वाहिका बन सके और माध्यम बन सके।।
वेदों उपनिषदों महाकाव्यों पुराणों गणित ज्योतिष आयुर्वेद वास्तु कला और शिल्प विद्याओं के भारतीय रूपों की और ज्ञान विज्ञान की समस्त भारतीय उपलब्धियों की जानकारी भारत की नई पीढ़ी को देना राष्ट्रीय कर्तव्य है। पूरे विश्व के ज्ञान विज्ञान की जानकारी भारतीय लक्ष्यों की सेवा और पोषण के लिए आवश्यक और उपयोगी है लेकिन भारत की शिक्षा विदेशी ज्ञान की सेवा के लिए नहीं होनी चाहिए।
वर्तमान भारतीय संविधान का अनुच्छेद 28 यह कहता है कि राज्य की निधि से पूर्ण पोषित अर्थात शासन द्वारा पूर्व वित्त पोषित किसी भी शिक्षा संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी ।परंतु यह बात ऐसी शिक्षा संस्था में लागू नहीं होगी जिसका प्रशासन भारत शासन या कोई राज्य का शासन करता है और जो किसी ऐसे न्यास या विन्यास के अधीन स्थापित है जिसके अनुसार उस संस्था में धार्मिक शिक्षा देना आवश्यक है ।
परंतु अनुच्छेद 29 कहता है कि अल्पसंख्यकों को राज्य द्वारा पोषित और राज्य से सहायता पाने वाले किसी भी शिक्षा संस्था में अपने मजहब या रिलीजन की शिक्षा देने का अधिकार है और अनुच्छेद 30 के अनुसार अल्पसंख्यकों को ऐसी शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और उनका प्रशासन करने का भी अधिकार है ।।
इस प्रकार अनुच्छेद 28 का प्रावधान अनुच्छेद 29 और 30 के द्वारा बाधित कर दिया गया है और अनुच्छेद 28 केवल हिंदुओं के लिए लागू होता है अर्थात शासन द्वारा वित्त पोषित किसी भी शिक्षा संस्था में हिंदू धर्म की शिक्षा नहीं दी जा सकती, यह अनुच्छेद 28 का प्रावधान सिद्ध होता है और शासन द्वारा वित्त पोषित मुसलमानों ईसाइयों आदि अल्पसंख्यकों की शिक्षा संस्थाओं में इस्लाम या ईसाइयत आदि की शिक्षा खुल कर दी जा सकती हैं ,यह अनुच्छेद 29 व 30 का प्रावधान है ।इस प्रकार अनुच्छेद 28, 29 और 30 स्पष्ट रूप से हिंदू समाज और हिंदू धर्म के विरुद्ध तथा इस्लाम ईसाइयत आदि अल्पसंख्यकों के पक्ष में भारत के शासन और प्रान्तों के शासन का पक्षपात दिखाता है ।
यह भारत के संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है और भारत जैसे उदार लोकतांत्रिक गणराज्य के लिए यह शोभा जनक नहीं है । बहुसंख्यकों के साथ ऐसा अन्याय संसार के किसी भी लोकतंत्र में नहीं होता ।
ऐसा अन्याय केवल सोवियत संघ और चीनी कम्युनिस्ट सरकारों में हुआ था। रूस में अब समाप्त हो गया है।
इसलिए भारत सरकार को विश्व के अन्य सभी स्वतंत्र लोकतांत्रिक राष्ट्रों के अनुरूप ही भारत की शिक्षा में भारत के बहुसंख्यकों के धर्म की शिक्षा अनिवार्य करनी चाहिए जैसा कि इंग्लैंड फ्रांस जर्मनी पोलैंड स्वीडन स्वीटजरलैंड पुर्तगाल स्पेन संयुक्त राज्य अमेरिका आदि सर्वत्र है ।। भारत को अपवाद बनाने का निर्णय क्यों लिया गया इसके विस्तार में न जाकर , अब इस अपवाद स्थिति को समाप्त करके भारत को भी विश्व के अन्य लोकतांत्रिक राष्ट्रों का अनुसरण करने वाला होना चाहिए ।
इस प्रकार अनुच्छेद 28 का विरोध होना चाहिए और साथ ही अनुच्छेद 29 और 30 का विरोध होना चाहिए।।
सही उपाय तो यह है कि शिक्षा के संबंध में एक स्पष्ट दीर्घकालिक राष्ट्रीय नीति बनाई जाए जो कि संविधान में अभी तक नहीं है।।
संविधान में शिक्षा से संबंधित स्पष्ट प्रावधान केवल अल्पसंख्यकों के लिए हैं और हिंदू समाज के लिए केवल इतना प्रावधान है कि वह अपने धर्म की शिक्षा नहीं दे सकता ।अन्य प्रावधान नहीं है।
जबकि शिक्षा का मूल प्रावधान तो अपने राष्ट्र की ज्ञान परंपरा को नई पीढ़ी में प्रवाहित करना और पुष्ट करनाहै, नई पीढ़ी को उस ज्ञान परंपरामें दक्ष बनाना है। इसलिए शिक्षा संबंधी एक अलग क्लाज जोड़ा जाए जिसमें यह स्पष्ट लिखा जाए कि शिक्षा संसार भर में हर राष्ट्र की अपनी ज्ञान परंपरा को नई पीढ़ी में देने के लिए होती है और वह प्रत्येक लोकतांत्रिक राष्ट्र का कर्तव्य है।इसलिए भारत भी भारतीय ज्ञान परंपरा को बढ़ाने वाली शिक्षा प्रदान करेगा तथा साथ ही विश्व की ज्ञान परंपरा का राष्ट्र के अनुकूल समायोजन करेगा ।
अनुच्छेद 29 और 30 संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार के लिए हैं। अच्छा तो यह होगा कि अनुच्छेद 29 में सर्वप्रथम एक उपबंध जोड़ दिया जाए कि बहुसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण और उसमें बहुसंख्यक वर्ग की ज्ञान परंपरा और शिक्षा परंपरा का संरक्षण राज्य का कर्तव्य घोषित हो अथवा अनुच्छेद 28 में ही जोड़ दिया जाए कि भारत की ज्ञान परंपरा का पोषण भारत के शासन का कर्तव्य है और प्रत्येक राज्य की सरकार का यह कर्तव्य होगा ।
तदनुसार आगे के प्रावधान किए जा सकते हैं ।।
पहले तो शासन में यह संकल्प होना आवश्यक है कि वह भारत की ज्ञान परंपरा को मान्यता देता है और उसके संरक्षण के लिए वचनबद्ध है।
भारत का शासन आज तक भारतीय ज्ञान परंपरा नामक किसी भी चीज का कोई संवैधानिक संज्ञान नहीं लेता।वह यह मानकर चलता है कि वे अतीत की वस्तुएं हैंऔऱ वर्तमान में दर्शन राजनीति शास्त्र समाजशास्त्र अर्थशास्त्र आदि सभी humanities के विषयों में एकमात्र ज्ञान वह हैं जो यूरोपीय ज्ञान परंपरा है ।
यह इतनी बड़ी चीज है कि संसद में विचार होना चाहिए और यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि ऐसा करते ही भारत का शासन ज्ञान की दृष्टि से यूरोपीय शासन की एक छोटी और अनुकरणरत शाखा हो जाता है , जिसके पास अपना कोई स्वतंत्र विवेक नहीं है और जो कोई स्वतंत्र निर्णय लेने में असमर्थ है।
यह भारत के संविधान के विरुद्ध है।भारत एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य है और इसलिए शिक्षा और ज्ञान के विषय में भी भारत एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य होना चाहिए ।उसे इंग्लैंड के ज्ञान तंत्र का अथवा यूरोपीय और अमेरिकी ज्ञान तंत्र का एक विनम्र सेवक नहीं रहना चाहिए।
यह स्थिति भारत राष्ट्र के लिए अत्यंत लज्जाजनक है और वर्तमान आत्म गौरव संपन्न शासन को भारत के लोगों को इससे मुक्त करके उसे स्वाभिमान संपन्न बनाने की पहल शिक्षा के क्षेत्र में भी करनी चाहिए।

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