देश का विभाजन और सावरकर , अध्याय 6 ( क ) वीर सावरकर का हिंदुत्व

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कांग्रेस या तो इस्लाम के फंडामेंटलिज्म के प्रति जानबूझकर आंखें मूंदे रही या उसकी समझ में इस्लाम के फंडामेंटलिज्म का सच आया नहीं। ऐसा भी हो सकता है कि कांग्रेस पर ब्रिटिश सरकार का भी यही दबाव रहा हो कि वह मुस्लिम लीग के साथ मिलकर चले। कुछ भी हो सच यही है कि कांग्रेस इस्लामिक फंडामेंटलिज्म के प्रति पूर्णतया उदासीन रही और वह जाने अनजाने में राष्ट्रहित की उपेक्षा करते हुए मुस्लिम लीग के प्रति तुष्टीकरण का दृष्टिकोण अपनाए रही।
पुरुषोत्तम जी अपनी पुस्तक ‘मुस्लिम राजनीतिक चिंतन और आकांक्षाएं’ के पृष्ठ 48 पर लिखते हैं कि ‘ इस प्रकार के अध्ययन के अभाव में कांग्रेस ने तो 1921 में ही मुसलमानों को भारत का ‘दारुल इस्लाम’ बनाने और यहां शरीय: शासन और इस्लाम का सभी दूसरे ‘झूठे धर्मों’ पर वर्चस्व स्थापित करने का अधिकार स्वीकार कर लिया था।’

कांग्रेस का देशभक्ति प्रस्ताव

5 अक्टूबर 1921 को अखिल भारतीय कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने जो प्रस्ताव पारित किया उसमें कहा गया था कि ‘भारत स्वतंत्र मुस्लिम देशों को यह गारंटी देता है कि जब वह स्वतंत्र हो जाएगा तो वह अपनी नीति इस प्रकार निर्धारित करेगा कि जिससे वह मुस्लिम धर्म शरीय: के सिद्धांतों के सर्वथा अनुकूल हो।’
इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि हमारे सभी सम्मानित गांधीवादी कांग्रेसी भारत के धर्म, भारत की संस्कृति और भारतीय राष्ट्रवाद को इस्लाम के सामने समर्पित करने को तैयार रहे हैं। इनकी इस प्रकार की राष्ट्र विरोधी सोच और चिंतन का यदि विरोध किया जाएगा तो ऐसे व्यक्ति को यह पसंद नहीं करते। जबकि होना यह चाहिए था कि कांग्रेस आत्मनिरीक्षण करती और अतीत में हुई गलतियों का प्रायश्चित करते हुए अपने आप में सुधार लाने का गंभीर प्रयास करती। गलतियां होना कोई बड़ी बात नहीं है, गलतियां करते रहना बड़ी और बुरी बात है। क्या कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व में इतनी भी समझ नहीं थी कि स्वाधीनता के पश्चात देश में शरिया कानून यदि लागू किया गया तो उसका परिणाम क्या होगा? उसके पास इतना विवेक होना चाहिए था की स्वाधीनता के पश्चात शरिया को लागू करने का अभिप्राय होगा – बहुसंख्यक वर्ग का जीना कठिन हो जाना, दूसरे औरंगजेबी अत्याचारों पर शासन की मुहर लग जाना, तीसरे धर्मांतरण की प्रक्रिया के माध्यम से भारत के हिंदू समाज को दुर्बल कर देश विरोधी शक्तियों को प्रोत्साहित करना, चौथे भारतवर्ष को दारुल इस्लाम बनाने के लिए इस्लाम के हाथों में सौंप देना। क्या कांग्रेस इस सब के लिए तैयार होकर ऐसा प्रस्ताव 1921 में पारित कर रही थी ? यदि हां, तो निश्चित रूप से देश के विभाजन के लिए कांग्रेस पूर्णतया जिम्मेदार हैं ।

जिन्नाह की स्पष्टवादिता

कांग्रेस की स्थिति निसंदेह उस समय डांवाडोल मानसिकता की थी ,परंतु जिन्नाह ने कभी भी ऐसा संकेत नहीं दिया कि वह अस्थिर मानसिकता या विचारधारा का शिकार है। उसने स्पष्ट दृष्टिकोण अपनाने में विश्वास किया और जब जब भी अवसर आया तब तब उसने उस उपस्थित अवसर का भरपूर लाभ देने में किसी प्रकार का प्रमाद नहीं किया। गांधी नेहरू और उनके अन्य कांग्रेसी साथियों की अपेक्षा जिन्नाह अवसरों का लाभ लेने में कहीं अधिक कुशल था। गांधी अस्थिर विचारधारा से ग्रसित रहे। यही कारण रहा कि वह उपस्थित अवसरों का कभी उचित लाभ प्राप्त नहीं कर पाए।
अपने व्यावहारिक और स्पष्टवादी दृष्टिकोण का परिचय देते हुए जिन्नाह ने अनेक अवसरों पर अनेक वक्तव्य दिए। 2 मार्च 1940 को लाहौर में मुस्लिम लीग का वार्षिक अधिवेशन हुआ था। उस समय जिन्नाह ने उस अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए कहा था कि ‘इस्लाम और हिंदू वास्तव में दो धर्म नहीं बल्कि भिन्न और सुस्पष्ट सामाजिक व्यवस्थाएं हैं। हिंदू और मुसलमान दो हिंदू धार्मिक दर्शनों, सामाजिक प्रथाओं और साहित्य से संबंध रखते हैं। वे नि:संदेह भिन्न सभ्यताओं से संबंधित हैं जो प्रधानत: परस्पर विरोधी तत्वों और धारणाओं पर आधारित हैं। जीवन के संबंध में प्रधानत: उनके दृष्टिकोण भिन्न हैं। हिंदू और मुसलमान इतिहास के दो भिन्न स्रोतों से अपनी प्रेरणा प्राप्त करते हैं। उनकी वीर गाथाएं भिन्न हैं। उनके महापुरुष भिन्न हैं। उनके उपाख्यान भिन्न हैं। बहुधा एक का महापुरुष दूसरे के महापुरुष का शत्रु है। ऐसे दो राष्ट्रों को एक राष्ट्र में जोत देना एक अल्पसंख्यक और एक बहुसंख्यक बढ़ते हुए असंतोष का तथा उस ढांचे के आखिरी विनाश का कारण होगा। जिसे ऐसे राज्य की सरकार के लिए निर्माण किया गया है।’
जिन्नाह ने उस समय यह भी कहा था कि ‘मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं है, मुसलमान तो राष्ट्र की प्रत्येक परिभाषा के अनुसार राष्ट्र हैं और उन्हें अपना स्वदेश, राज्य क्षेत्र और राज्य मिलना चाहिए।’
जिन्नाह से अलग गांधीजी और नेहरू कभी भी ऐसे स्पष्टवादी चिंतन के आधार पर ऐसा कहने का साहस नहीं कर पाए कि हिंदू और मुसलमान दोनों के इतिहास पुरुष भिन्न-भिन्न हैं और दोनों एक दूसरे के इतिहास पुरुषों को अपना शत्रु मानते हैं । उनका ऐसा कहने का भी साहस नहीं हुआ कि भविष्य में यदि मुसलमान इसी प्रकार की नीति पर काम करते रहेंगे और हिंदू को कमजोर करने के लिए उसका धर्मांतरण करते रहेंगे तो यह राष्ट्र की एकता, अखंडता और सामाजिक समरसता की पवित्र भावना के विपरीत किया गया आचरण होगा। अतः इस्लाम को मानने वाले लोगों को अपने व्यवहार को सुधारना होगा।
माना कि जिन्नाह के द्वारा ऐसा 1940 में कहा जा रहा था पर वास्तव में जिन्नाह के इन शब्दों में इस्लाम के 1000 वर्षीय बर्बरता पूर्ण अत्याचारों का सत्यापन ,प्रमाणन आदि सभी कुछ है। उसने अपने इस भाषण के माध्यम से स्पष्ट कर दिया था कि हम कभी भी हिंदुओं के साथ रहने को तैयार नहीं हैं। हम एक राष्ट्र की परिभाषा के अनुसार राष्ट्र हैं और इसी आधार पर हमें एक अलग देश मिलना ही चाहिए। जिन्नाह के इस प्रकार के आचरण से समझो डकैत डकैती के माल को बांटना चाह रहा था। कांग्रेस को जिन्नाह के इस प्रकार के आचरण की समय रहते निंदा करनी चाहिए थी और उसे राष्ट्र की मुख्यधारा के साथ चलने के लिए बाध्य करना चाहिए था। पर कांग्रेस मौन रही और उसने उचित समय पर बोलना भी उचित नहीं माना। उसका यह मौन साध जाना भी देश विभाजन के लिए एक जिम्मेदार कारण रहा।

इस्लामिक आतंकवाद का पुराना इतिहास

हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि जिन्नाह और उसके किसी भी साथी मुस्लिम नेता ने कभी यह नहीं कहा कि हमें अलग देश लेने के लिए हिंदू नेता प्रेरित कर रहे हैं। हां ,उन्होंने इतना अवश्य बार-बार कहा कि हम हिंदू गुलामी को सहन नहीं करेंगे। भारत में हिंदुओं का शासन उन्हें गुलामी जैसा लगता था। भारत के प्रत्येक शासक को समाप्त कर देना और भारत का सर्वस्व विनष्ट कर देना उन्हें 'मुकम्मल आजादी'

अर्थात वास्तविक आजादी दिखाई देती थी। इस मुकम्मल आजादी की प्राप्ति के लिए ही मुस्लिम लीग काम कर रही थी, मुस्लिम लीग के नेता काम कर रहे थे और मुस्लिम लीग व मुस्लिम लीग के नेताओं के पूर्वज अर्थात पिछले कई सौ वर्ष में विदेशी आक्रमणकारी के रूप में भारत पर अवैध शासन करने वाले इस्लामिक बर्बर सुल्तान, बादशाह आदि करते रहे थे। भारत का बहुसंख्यक समाज आजादी से पहले मुस्लिम शासन के दौरान हिंदुओं पर किए गए अत्याचारों की एक एक कहानी को अपने हृदय-स्थल में समाविष्ट किए हुए था। यही कारण था कि वह बाबर और औरंगजेब के मानस पुत्रों के साथ किसी भी स्थिति में मिलकर चलने को तत्पर नहीं था। वह जानता था कि अंग्रेज और मुसलमान दोनों ही एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं। वह पुराने इतिहास से शिक्षा ले रहा था कि इन दोनों के ही शासन काल में उसे कितनी भारी क्षति उठानी पड़ी है ?
वैदिक धर्मी हिंदू लोगों को जब भारतवर्ष का पुराना वैभव याद आता था और उसे अपने आर्यावर्त देश की सीमाओं का बोध होता था तो वह अपने उसी वैभवपूर्ण अतीत को प्राप्त करने के लिए छटपटाने लगता था। उसे यह जानकर बहुत अधिक पीड़ा होती थी कि भारतवर्ष के प्राचीन वैभव को मिटाने में इस्लाम का बहुत बड़ा योगदान रहा है। तब तो उसका हृदय ही रोने लगता था जब वह इस्लाम के शासनकाल में अपने पूर्वजों पर हुए अत्याचारों की कहानियों को लोक कथाओं के माध्यम से या किसी पुस्तक के माध्यम से सुनता या पढ़ता था। भारत का बहुसंख्यक समाज नहीं चाहता था कि उसे फिर से इस्लाम के शासन में रहना पड़े।

विश्व गुरु बनाम दारुल इस्लाम का संघर्ष

बहुसंख्यक समाज के लिए मुकम्मल आजादी का अर्थ था भारतवर्ष पर हिंदुओं का शासन स्थापित हो और भारत फिर से विश्व गुरु बने। इसके विपरीत मुसलमानों के लिए मुकम्मल आजादी का अर्थ उन्हें हिंदुओं पर अत्याचार करने की स्वाधीनता मिले, और भारत दारुल इस्लाम बने। विश्व गुरु बनाम दारुल इस्लाम के इस मौन संघर्ष को कांग्रेस के शासनकाल में इतिहास लेखन के काम में लगे लेखकों ने पूर्णतया उपेक्षित कर दिया है। जबकि भारत के विभाजन के लिए यह मौन संघर्ष बहुत अधिक सीमा तक उत्तरदायी माना जा सकता है। इस्लाम स्वाधीनता के पश्चात भारत को दारुल इस्लाम बनाने के अपने लक्ष्य से पीछे हटने को तैयार नहीं था और भारत का बहुसंख्यक समाज अपने क्रांतिकारियों के माध्यम से भारत को विश्व गुरु बनाने के लिए पूर्ण स्वाधीनता की ओर बढ़ रहा था। क्रांतिकारियों के माध्यम से तेजी से स्वाधीनता की ओर बढ़ते भारत को देखकर मुस्लिम लीग और उस समय के सभी मुस्लिम नेता बहुत चिंतित है। उनकी इस जनता का लाभ अंग्रेजों ने लेने के लिए उन्हें भड़काना आरंभ किया। कांग्रेस के लिए उस समय एक ओर कुंआ और एक ओर खाई वाली स्थिति हो गई थी। वह क्रांतिकारियों की ओर भी नहीं जा सकती थी और इस्लाम के सपनों को असफल करने का साहस भी नहीं कर सकती थी। ऐसी स्थिति में उसने इस्लामिक तुष्टीकरण और अंग्रेजों की चाटुकारिता करते रहने का निर्णय लिया। उसकी यह सोच भी देश के विभाजन का एक कारण बनी। यदि उस समय कांग्रेस विश्व गुरु बनाम दारुल इस्लाम के इस संघर्ष में विश्वगुरू भारत बनाने वाले लोगों का साथ देती तो निश्चय ही वह विभाजन के कलंक से बच सकती थी।
भारत में अपना स्थायी शासन स्थापित करने के इतने बड़े और दीर्घकालिक इस्लामिक संघर्ष को हिंदुओं ने सफल नहीं होने दिया था, यह बात मुस्लिम लीग और मुस्लिम लीग के नेताओं के साथ-साथ प्रत्येक मुस्लिम नेता को चुभती थी। उन्हें बार-बार यह पीड़ा सताती थी कि आया हुआ शिकार हाथ से निकल गया और इन विदेशी शासकों अर्थात अंग्रेजों ने आकर हमारा शिकार हमसे छीन लिया।

डॉ राकेश कुमार आर्य

(यह लेख मेरी नवीन पुस्तक “देश का विभाजन और सावरकर” से लिया गया है। मेरी यह पुस्तक डायमंड पॉकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है जिसका मूल्य ₹200 और पृष्ठ संख्या 152 है।)

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