डॉ दिनेश चंद्र सिंह
आधुनिक शिक्षा पद्धति ने गुरुकुल शिक्षा पद्धति की नींव हिला दी। बिडम्बना यह कि आधुनिक शिक्षा पद्धति वर्ष दर वर्ष खर्चीली और समयसाध्य यानी दीर्घसूत्री होती गई। इससे गूढ़ ज्ञान को गच्चा मिला, जिसने गुणहीन पर डिग्रीधारी लोगों में बेरोजगारी को बढ़ावा दिया।
शिक्षा का महान उद्देश्य ज्ञान और कर्म है। यहां ज्ञान का तातपर्य सैद्धांतिक शिक्षा से है और कर्म का अभिप्राय व्यवहारिक शिक्षा से। वैसे तो भारत में गुरु-शिष्य परम्परा आधारित गुरुकुल शिक्षा पद्धति प्राचीन काल से ही बेहद लोकप्रिय रही है, जिसके तहत गुरुवर द्वारा शिष्यों को जीवन-जगत के ज्ञान और कौशल की सैद्धांतिक और व्यवहारिक दोनों शिक्षा एक ही साथ दी जाती थी। इस देश में बहुतेरे ऐसे हुनरमंद कार्य हैं जहां आज भी लौकिक शिक्षा-दीक्षा में यही पद्धति परम्परागत रूप से अपना अस्तित्व कायम रखे हुए है, जो ज्ञानी व गुणी जनों के लिए फक्र की बात है।
लेकिन बिडंबना रही कि परतंत्रता काल में ब्रिटिश अधिकारी लार्ड मैकाले ने गुरुकुल शिक्षा पद्धति के विकल्प के तौर पर जिस आधुनिक शिक्षा पद्धति को विकसित किया, उसके अंतर्गत स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, तकनीकी शिक्षा व शोध संस्थानों के द्वारा विविध ज्ञान और कौशल प्रदान करते हुए विभिन्न प्रकार की डिग्री बांटी जाने लगी और उसी से रोजगार मिलने लगे। इस प्रकार आधुनिक शिक्षा पद्धति ने गुरुकुल शिक्षा पद्धति की नींव हिला दी। बिडम्बना यह कि आधुनिक शिक्षा पद्धति वर्ष दर वर्ष खर्चीली और समयसाध्य यानी दीर्घसूत्री होती गई। इससे गूढ़ ज्ञान को गच्चा मिला, जिसने गुणहीन पर डिग्रीधारी लोगों में बेरोजगारी को बढ़ावा दिया।
दूसरे शब्दों में कहें तो, गुरुकुल शिक्षा पद्धति जहां सबके लिए सरल, सुगम और सुलभ थी, वहीं आधुनिक शिक्षा पद्धति जटिल, बोझिल, थकाऊ और उबाऊ होती चली गई, जिससे विद्यार्थियों में भी अरुचि पैदा हुई। परिणाम यह हुआ कि समाज में डिग्रीधारी लोगों की संख्या बढ़ती गई, लेकिन गुणी व खोजी (अन्वेषक) व्यक्तियों की संख्या में भारी कमी होती चली गई। कोढ़ में खाज यह कि गुणी लोगों की जगह अल्प शिक्षित पेशेवर लेते चले गए, जिससे समाज का तानाबाना भी गहरे तक प्रभावित हुआ। साफ साफ शब्दों में कहें तो मानवीय मूल्यों का निरंतर ह्वास हुआ और मौद्रिक मूल्यों में बेहिसाब इजाफा हुआ, जो सबके बस की बात नहीं रही। आधुनिक शिक्षा पद्धति व उसके द्वारा किये हुए तरह-तरह के ईजाद ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को रौंद डाला और ग्रामीण आत्मनिर्भरता धीरे धीरे समाप्त होती चली गई। शहरों पर गांवों की बढ़ती निर्भरता ने कई प्रकार की विसंगतियों को जन्म दिया, जिसमें मिलावट, मुनाफाखोरी और महंगाई की चर्चा आज तक चली आ रही है। चिकित्सा शिक्षा पर व्यय को एक उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। अन्य कई पेशेवर शिक्षा है, जिसकी फीस निम्न मध्यम वर्गीय परिवार की पहुंच से बाहर है।
यह बात दीगर है कि केंद्र में सत्तारूढ़ नरेंद्र मोदी सरकार इस मर्म को समझ चुकी है और नई शिक्षा नीति के माध्यम से दोनों शिक्षा पद्धतियों में तालमेल बिठाने के लिए अथक प्रयत्न कर रही है। वह दोनों शिक्षा पद्धतियों के सद्गुणों को साध रही है और अनुपयोगी बातों को विस्मृत कर देने के प्रचलन को बढ़ावा दे रही है। जिससे आने वाले 5-10 वर्षों में समाज में व्यापक सकारात्मक बदलाव दिखेगा। खुशी की बात यह है कि मोदी सरकार ने किसानों, मजदूरों के बाद कारीगरों/शिल्पियों के जीवन स्तर को उठाने के लिए कतिपय ठोस पहल की है, जिससे गुरु-शिष्य परम्परा आधारित पेशेवर कार्यों को और अधिक बढ़ावा मिलेगा और आत्मनिर्भर भारत अभियान को गति व मजबूती दोनों मिलेगी।
चूंकि 5 सितम्बर को शिक्षक दिवस है, इसलिए आप सभी के चिंतन की दशा को एक निर्णायक मोड़ देने के लिए यह विषय उठाया हूँ, जो हमारा प्रशासनिक और सामाजिक दायित्व भी है। इस परम पुनीत मौके पर मैं अपने परम प्रिय मित्रों, मेरे संघर्ष के साथियों और मेरी अंतर्चेतना को जागृत करके समाजोन्मुखी बनाने वाले गुरुवरों को स्मरण करना चाहूंगा, ताकि सभी लोग अपने बन्धु-बांधवों व शिक्षकों के प्रति कृतज्ञ रहें। परम श्रद्धेय श्रेष्ठ गुरुजनों, जिन्होंने प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा की उत्कृष्टता प्रदान की और मेरे बौद्धिक व व्यवहारिक विकास के संवाहक बने रहे, उन्हें याद करके मैं धन्य हो जाता हूँ। ऐसे ही गुरुवर जो अपनी मौन कृपा और अध्यापन के प्रति उत्कृष्ट समर्पण के चलते मेरे चित्त को आकर्षित करते रहे, बंदनीय हैं। ऐसे ही गुरुवर की भूमिका में मेरे हृदय दिल, शिक्षा सम्राट परम श्रद्धेय आचार्य प्रोफेसर श्रीयुत जगदंबा सिंह का नाम अग्रगण्य है, जिन्होंने मेरे युवाकाल के निर्माण की आधारशिला रखी और उसके स्तंभ संवाहक बने।
यहां पर विनम्रता पूर्वक मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मैं सर्वोच्च हूं परंतु जो भी हूँ, जैसा भी हूँ, समकालीन लोकतंत्र में अपने सर्वाधिक प्रिय माता-पिता और गुरुजनों के आशीर्वाद से हूँ, उत्कृष्ट न होते हुए भी निम्न नहीं हूं। सम्मानित एवं लोकतंत्र का सजग प्रहरी हूँ एवं भारतीय लोकतंत्र में एक अहम उत्तरदायित्व का निर्वहन करने का अवसर जनहितार्थ, जनकल्याण कार्यों के लिए प्राप्त हुआ है। इस ऊंचाई पर पहुंचने के लिए अपने स्वर्गीय माता-पिता और गुरुजनों के प्रति जो अब नहीं है और जो कुछ हैं, उनके प्रति विनम्र भाव से कृतज्ञ रहता हूँ। निज आंखों में अश्रू-धारा लिए यह कहना चाहता हूं कि इस नश्वर संसार के प्रथम गुरु माता-पिता होते हैं और द्वितीय गुरु पात्रता वश शिक्षा-दीक्षा प्रदान करने वाले गुरुजन, जिनकी एक लम्बी श्रृंखला होते हुए भी कुछ चुनिंदे गुरुवर चित्त को आकर्षित कर लेते हैं, सम्मोहित कर लेते हैं। तभी तो कहा गया है कि-
गुरु ही चारों वेद है, गुरु है सभी पुराण।
शिक्षा देकर कर रहे, सबका ही कल्याण।।
दूर करे अज्ञान सब, देकर ज्ञान प्रकाश।
गुरु ही करते हैं सदा, अनपढ़ता का नाश।।
चूंकि 5 सितंबर 1888 ई. सन को देश के दूसरे राष्ट्रपति डॉक्टर सर्वपल्ली राधा कृष्णन का जन्म हुआ था और उन्हीं के सम्मान में इस दिन को “शिक्षक दिवस” के रूप में मनाया जाता है। इसी क्रम में यह दिवस अपने शिक्षकों के प्रति उनके प्रिय छात्रों द्वारा सम्मान की मौलिक अभिव्यक्ति प्रकट कर गुरुओं के योगदान, अवदान एवं उनकी श्रेष्ठता के प्रति नमन किए जाने की परंपरा चली आ रही है। वैसे यह गुरु के प्रति सम्मान की परंपरा युगों-युगों से चली आ रही है और उसकी महत्ता के प्रति हमारे ग्रंथो में गुरु की महिमा के बारे में उल्लेख किया गया है।
गुरु की महत्ता साहित्य से लेकर शास्त्रों तक में भांति-भांति रूप में अभिव्यक्त की गई है, जिनमे से कुछ को यहां पर प्रस्तुत कर रहा हूँ-
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढि-गढि काढ़े खोट।
अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट।
गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान।
तीन लोक की संपदा, सो गुरु दिंहि दान।।
गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिले ना मोक्ष।
गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मिटै न दोष।।
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन।
नयन, अमिय दृग दोष विभंजन।।
(गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुंदर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है।)
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।
ध्यानमूलं गुरुर्मूर्ति पूजामूलं गुरोः पदम्।
मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा।।
अखंडमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ।।
धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्म परायण:।
तत्वेभ्य: सर्व शास्त्रर्था देश को गुरु रुच्यते।।
(धर्म को जानने वाले, धर्म मुताबिक आचरण करने वाले, धर्म परायण और सब शास्त्रों में से तत्वों का आदेश करने वाले गुरु कहे जाते हैं।)
धर्म ग्रंथों में वर्णित गुरु की उपर्युक्त महिमा, उनकी महत्ता के विषय, ज्ञान आधारित शिक्षा की उत्कृष्टता तक सीमित एवं परिभाषित नहीं है, अपितु विषयगत शिक्षा के साथ आचरण, नैतिकता, कर्तव्यनिष्ठा, अनुशासनप्रियता और कर्तव्य बोध की शिक्षा, जिन गुरुओं के द्वारा विषयगत शिक्षा (केमिस्ट्री, फिजिक्स, मैथ्स, इंग्लिश, ह्यूमैनिटी/मानव विज्ञान) आदि के साथ उपरोक्त गुणों को समाहित करने की शिक्षा दी, उन्होंने ऐसा आशीर्वाद देकर अपने छात्रों का उद्धार करने का अलौकिक प्रयत्न किया, जिनका आशीष वचन शिक्षा ताउम्र साथ रहती है। विषयगत शिक्षा धीरे-धीरे विस्मृत हो जाती है और केवल नीतिगत आचरणगत शिक्षा, जिससे व्यक्ति का व्यक्तित्व बनता है, वह अक्षुण्ण रह जाती है। ऐसी ही कमोवेश शिक्षा मुझे भी मेरे गुरुओं से जीवन के प्रत्येक शैक्षणिक चरण में मिली है। यद्यपि सभी शिक्षाओं को मैं अपने व्यक्तित्व में नहीं साध सका परंतु अनगिनत शिक्षाओं को साध कर एक अच्छा लोकतंत्र का नागरिक बनने में कामयाब जरूर हूं।
एक बात और, सच्चे अर्थों में सभी बुद्धिजीवी मनीषी नहीं होते हैं, विशेषज्ञों को मनीषी की कोटि में गिरने का रिवाज भी नहीं है। डॉक्टर इंजीनियर, लेखाकार, वकील और पत्रकार आदि विभिन्न पेशेवर, ये मनीषी नहीं बुद्धिजीवी हैं, विशेषज्ञ हैं। परंतु मेरे निज अनुभव से वह भी इनके समतुल्य और कई अर्थों में इनसे भी श्रेष्ठ है जो और जिनको स्वभावगत अथवा आर्थिक विपन्नता से पढ़ाई का अवसर ही नहीं मिला अथवा जिनके लिए पढ़ाई महत्वपूर्ण नहीं थी। क्योंकि उनका हुनर पढ़ाई की योग्यता के बाद भी उस हुनर के समक्ष निम्न था, जो लाखों-करोड़ों रुपये खर्च कर डॉक्टर-इंजीनियर बनकर भी उस प्रतिभा के लायक कार्य नहीं कर सकते थे, जो किसी प्रतिभा और घर के निर्माण के लिए उपयोगी हो सकता है। वह है प्लंबर, पेंटर, राजमिस्त्री, बढ़ई, धोबी, मोची खानसामाह आदि। सबको पता है कि इनकी पढ़ाई किसी स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों में नहीं होती है, इसलिए यह डिग्री पढ़ाई से अभी तक कोई विश्वविद्यालय नहीं दे रहा है।
काबिलेगौर यह है कि माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में इन्हीं डिग्रियों की उत्कृष्टता है, क्योंकि पूर्ण श्रेणी के आधार पर डिग्री हेतु शिक्षा होनी चाहिए, अन्यथा समाज के कुछ ही व्यक्ति विकास करेंगे, जबकि शेष पलायन और अपराध की गहरी शिक्षा को ग्रहण कर जो करेंगे, मैं वह अभिव्यक्त नहीं कर सकता हूं तथा जड़ पदार्थों को मोड़ने का काम, उनके बाहरी रूप को बदलने का काम विशेषज्ञ करते हैं। परंतु वह किसी उच्च शिक्षा संस्थान आईआईटी अथवा एम्स या प्रबंधन संस्थान से नहीं पढ़ते हैं, बल्कि वह शिक्षा ग्रहण करते हैं अपने उस्ताद से, जो किसी प्रोफेशनल शैक्षणिक संस्थान में नहीं पढ़ते हैं परंतु ऐसे ही गुणी-अनुभवी और अनुशासन प्रिय उस्ताद से मिस्त्री, नाई, बढ़ई और कारीगर आदि शिक्षा ग्रहण करते हैं। समाज में इन्हें श्रमकार कहते हैं।
वहीं, मनीषी वह है जो मनुष्य की चेतना को परिवर्तित करता है। उसके दिमाग में खलबली मचाता है, जो डॉक्टर, वकील और इंजीनियर अपने पेशे के अतिरिक्त, यह काम भी करते हैं, वह मनीषी जरूर हैं। लेकिन इस कारण नहीं कि वो पेशे से होशियार हैं बल्कि इसलिए कि वे मनुष्य के ज्ञान और भावना में हिलकोर मचाते हैं। यह ऐसे पेशेवर डॉक्टर, इंजीनियर और वकील के लिए है जो धन को तरजीर नहीं देता है, बल्कि समाजसेवा के प्रति संवेदनशील है। वास्तव में, मनीषी वह है जो विचारों के संघर्ष में अपने ऊपर सामाजिक जीवन का आघात लेता है और बदले में समाज को बेहतर विचारों, व्यवहारों और जीवन मूल्यों का आधार दे रहा है। जो भूत, भविष्य और वर्तमान को तोलता है तथा मानवता के लिए और राष्ट्र के प्रति संवेदनशील होकर अनुशासन की कसौटी पर अपने को तोलकर समष्टि हितार्थ के लिए कार्य करता है।