गौतम महात्मा बुद्घ ने अपने प्रिय शिष्य सारीपुत्र से कहा था- सारीपुत्र तुम्हारा रोम-रोम गुरूमय हो गया है। सारा जीवन क्रियामय हो गया है। तुम सत्य के इतने समीप पहुंच चुके हो जैसे कोई मरूस्थल को खोदते-खोदते जल स्रोत तक पहुंच जाय। काश तुम्हारा अनुकरण संसार के अन्य लोग भी करें किन्तु सबसे बडा आश्चर्य यह है कि दियासलाई तो सब रखते हैं, मगर उसे जलाना नहीं चाहते अर्थात प्रभु-प्रदत्त शक्तियों को जाग्रत करना नहीं चाहते। मानव इन दिव्य शक्तियों का उपयोग एक या दो प्रतिशत ही कर पाता है, ९९ अथवा ९८ प्रतिशत इन दिव्य शक्तियों की अनन्त ऊर्जा इस तरह व्यर्थ चली जाती है, जैसे पावस ऋतु में वर्षा- जल की विपुल राशि पृथ्वी पर सारिता के रूप में प्रवाहित होती हुई बिना दोहन और शोधन के समुद्र में समाहित हो जाती है। ऐसी सरिताएं समुद्र में गिरने से पहले पृथ्वी पर हाहाकार मचा देती हैं और छोड जाती हैं अपने पीछे प्रलयंकारी बाढ़ महामारी, भुखमरी , महाविनाश की विभीषिका की भयावह कहानियाँ। काश जल की इस नकारात्मक शक्ति को सकारात्मक शक्ति में तबदील किया होता, तो यह अथाह जल राशि पृथ्वी को सुख समृद्घि देने वाली कारक सिद्घ होती। पृथ्वी के प्राणी मात्र के लिए कल्याण कारी होती । ठीक इसी प्रकार मानव शरीर में भी नकारात्मक (आसुरी) और सकारात्मक (दिव्य) शक्तियां विद्यमान हैं। आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य अपनी नकारात्मक अथवा विध्वंसात्मक शक्तियों पर नियंत्रण रखे और सकारात्मक (दिव्य) शक्तियों का उपार्जन शक्तियों का परिमार्जन और संवर्धन करे तो इसी जन्म में मुक्ति सम्भव है भवबन्धनों से सदा-सदा के लिए छुटकारा मिल सकता है किन्तु कैसी विडम्बना है सबके हृदय में अमृत का कुआं है अर्थात परमानन्द का स्रोत है जिसे न तो कोई खोदने का प्रयास करता है और न ही उसके अमृत – रस को पी पाता है यानि कि निजस्वरूप को पहचान नहीं पाता है। अहंकार और अज्ञान की मोटी परत के कारण आनन्द धन से वंचित रह जाता है। अपने प्रियतम के अति समीप होते हुए भी उसका दीदार नहीं कर पाता, आत्मसाक्षात्कार नहीं कर पाता, अपने से ही अपनी नजरें चुराता है, कैसी अजीब दुनिया है ये? इस संदर्भ में कवि कहता है – कैसी अजीब दुनिया है ये? यहाँ तरह-तरह के परिन्दे रहते हैं,
ऊंचे ख्वाब तो देखते हैं,
मगर ऊँ चा उठना नहीं चाहते।।
ये सीढियों के पास तो खड़े हैं,
मगर उसे चढऩा नहीं चाहते।।
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