यह जानकारी भारत के अगले राष्ट्रपति के चुनाव के दृष्टिïगत तो महत्वपूर्ण है ही साथ ही तेरह मई को भारतीय संसद के 60 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में और भी महत्वपूर्ण हैं।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को 26 जनवरी 1950 को पहली बार राष्ट्रपति बनने पर 31 तोपों की सलामी दी गयी। 1952 में डा. राजेन्द्र प्रसाद को पहली चुनी हुई संसद ने विधिवत पहला राष्ट्रपति बनाया। 13 मई 1952 को उन्होंने इस पद की व गोपनीयता की शपथ ली। दूसरी बार 13 मई 1957 को उन्होंने इस पद को सुशोभित करने का इतिहास रचा। इस प्रकार लगभग 12 वर्ष तकराष्ट्रपति पद पर रहने का अभी तक का रिकार्ड उन्हीं का है। 1962 में भी डा. राजेन्द्र प्रसाद ने अन्य लोगों को आगे आने के लिए रास्ता छोडकर एक प्रकार से पद त्याग ही किया था। उनकी तडक़ भडक़ और शानो शौकत की जिंदगी जीने वाले पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से अधिक नहीं निभी, लेकिन डॉ राजेन्द्र प्रसाद की छवि और व्यक्तित्व के सामने नेहरू जी भी चुप रह जाते थे।
डा. राजेन्द्र प्रसाद ने राष्ट्रपति रहते हुए हिंदू कोड बिल का विरोध मौखिक रूप से किया था। इससे नेहरू के एकच्छत्र राज को झटका लगा था। यद्यपि संवैधानिक गरिमा का ध्यान रखते हुए डा. राजेन्द्र प्रसाद ने इस बिल पर हस्ताक्षर कर दिये थे, लेकिन अपना विरोध जताकर ही किये थे। काल ने सिद्घ कर दिया कि नेहरू की अपेक्षा कहीं डा राजेन्द्र प्रसाद ही सही थे। वह राष्ट्रपति भवन में सत्यनारायण कथा का आयोजन कराया करते थे। नेहरू को यह बात पसंद नहीं थी लेकिन फिर भी वह राष्ट्रपति विशुद्घ धर्म सापेक्षता का प्रतीक बना दी जाएगी लेकिन भारत के धर्मनिरेपक्ष स्वरूप को सही प्रकार संचालित करते हुए भी हमारे राष्ट्रपति ने अपनी धार्मिक छवि का कोई दुष्प्रभाव भारतीय राजनीति पर नहीं पडऩे दिया। यही उनकी महानता थी।
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
भारत के पहले राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद विशुद्घ राजनीतिज्ञ थे, तो दूसरे राष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन विशुद्घ शिक्षा प्रेमी थे। उनके नाम पर कई लोगों को इसीलिए आपत्ति रही थी कि एक राजनीतिज्ञ की वजाय शिक्षाविद को राष्ट्रपति क्यों बनाया जा रहा है? लेकिन नेहरू की इच्छा के आगे किसी की नहीं चली और 13 मई 1962 को भारत के दूसरे राष्ट्रपति के रूप में डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने पद और गोपनीयता की शपथ ली। इन्होंने राष्ट्रपति के रूप में अपने वेतन को घटाया और उसे 2000 तक ला दिया। इनके पास डा. राजेन्द्र प्रसाद जैसा लंबा राजनैतिक अनुभव तो नहीं था, लेकिन इनकी ख्याति उस समय एक लब्ध प्रतिष्ठित दार्शनिक की अवश्य थी? दूसरे डा. राजेन्द्र प्रसाद के कार्यकाल में ये भारत के उपराष्ट्रपति भी रह चुके थे। 40 वर्ष तक अध्यापन कार्य करने के कारण इनके जन्मदिवस 5 सितंबर को भारत में शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की परंपरा का श्रीगणेश हुआ। 1967 में इनका कार्यकाल समाप्त हुआ तो कांग्रेस ने इन्हें पुन: राष्ट्रपति का दायित्व संभालने का अनुरोध किया। लेकिन इन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया। 1967 में ये अपने गृह नगर मद्रास (चेन्नई) लौट गये।
डॉ. जाकिर हुसैन
भारत के तीसरे राष्ट्रपति के रूप में डा. जाकिर हुसैन आये। 13 मई 1962 को वे भारत के उपराष्ट्रपति बने थे। 7 जुलाई 1957 से 1962 तक वह बिहार के गर्वनर भी रह चुके थे। डा राधाकृष्णन ने जब पुन: राष्ट्रपति बनने से इनकार कर दिया तो कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार के रूप में डा. हुसैन को मैदान में उतारा। प्रचार अभियान के दौरान डा. हुसैन मिसीगन विश्वविद्यालय के 195वें वार्षिक अधिवेशन में भाग लेने हेतु दिल्ली से बाहर चले गये थे और तीन दिन पहले ही लौटे। 9 मई 1967 को वह भारत के तीसरे राष्टï्रपति निर्वाचित किये गये। 13 मई 1967 को सुबह 8.30 बजे उन्होंने संसद के केन्द्रीय कक्ष में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश के एन वंचू से पद और गोपनीयता की शपथ ग्रहण की। राष्ट्रपति के रूप में डा. जाकिर हुसैन को संपूर्ण देश का प्यार और सम्मान मिला। इनका कार्यकाल मात्र भाग दो वर्ष का रहा।राष्ट्रपति पद पर रहते हुए ही इनकी मृत्यु हो गयी।
तब संवैधानिक परंपरा के अनुसार भारत के उपराष्ट्रपति वाराहगिरि वेंकट गिरि ने इनका कार्यभार संभाला।
वाराहगिरि वेंकट गिरि
24 अगस्त 1969 को भारत के चौथे राष्ट्रपति के रूप में प्रात: नौ बजे पद और गोपनीयता की शपथ ली। डा. खुशवंत सिंह ने इन्हें तब तक के सारे राष्ट्रपतियों में सर्वाधिक दुर्बल राष्ट्रपति कहकर उल्लेखित किया है। लेकिन यहां राष्ट्रपतियों की तुलना करना उचित नहीं होगा। इतना अवश्य था कि कांग्रेस भी अंतर्कलह के कारण गिरि की निष्ठा प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रति थी और वही उन्होंने बनाये भी रखी। उन्होंने अपने पहले संबोधन में इंदिरा गांधी को अपनी पुत्री के रूप में संबोधित किया था। जिस पर कई लोगों ने आपत्ति और आश्चर्य व्यक्त किया था। लेकिन वीवी गिरि ने यह भली भांति स्पष्ट कर दिया था कि संवैधानिक परंपराएं अलग हैं और उनका निर्वाह करना भी एक अलग पक्ष है। जबकि व्यक्तिगत संबंध और मर्यादाएं एक अलग चीज है। इंदिरा गांधी ने वीवी गिरि के निर्वाचन के लिए तब कांग्रेसियों को अपनी अंतरात्मा की आवाज पर वोट करने के लिए कहा था। वीवी गिरि को 50.2 प्रतिशत वोट मिले थे और लगभग नगण्य अंतर से ही वह जीत पाये थे। उनके विरूद्घ नीलम संजीवा रेड्डी चुनाव मैदान में थे। यदि रेड्डी जीते गये होते तो इंदिरा गांधी और वी.वी. गिरि की तकदीर की तस्वीर ही दूसरी हो सकती थी। इसलिए वस्तुस्थिति को समझकर गिरि इंदिरा गांधी के प्रति आभारी रहे तो इसमें गलत तो कुछ हो सकता है पर निंदनीय नहीं। 24 अगस्त 1974 को इन्होंने राष्ट्रपति छोड़ा। उसी दिन डाक विभाग ने इनके सम्मान में एक 25 पैसे का नया डाक टिकट जारी किया। वह एक विदेशी शिक्षा प्राप्त विधिवेत्ता, सफल छात्र नेता, एक अतुलनीय श्रमिक नेता, निर्भीक स्वतंत्रता सैनानी, एक जेल यात्री, एक प्रमुख वक्ता, एक त्यागी पुरूष जिन्होंने केन्द्रीय मंत्री पद को त्याग दिया था, अपने सिद्घांतों पर अडिग रहने वाले नैष्ठिक पुरूष थे। उन्हें 1975 में भारत रत्न से सुशोभित किया गया था।
फखरूद्दीन अली अहमद
भारत के पांचवें राष्ट्रपति के रूप में फखरूद्दीन अली अहमद का नाम है। इन्होंने 24 अगस्त 1974 को शपथ ग्रहण की। डा. जाकिर हुसैन के पश्चात ये दूसरे ऐसे अल्पसंख्यक नेता थे जो राष्ट्रपति बने। निर्वाचन का परिणाम 20 अगस्त 1974 को ही आ गया था। इन्हें निर्वाचन में 80 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त हुए थे। इन्हें विपक्ष के त्रिदीप चौधरी ने संयुक्त प्रत्याशी के रूप में चुनौती दी थी। अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य के रूप में ये 1946 से ही संगठन में थे। 1964 से 1974 तक ये केन्द्रीय संसदीय बोर्ड के सदस्य रहे। इनके राष्ट्रपति बनने पर केन्द्रीय मंत्रिपरिषद में मुस्लिमों की संख्या में वृद्घि हुई। दूसरे असम को केन्द्रीय मंत्रिपरिषद में प्रतिनिधित्व मिला। 25 जून 1975 को देश में आपातकाल की घोषणा करने वाले राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ही थे। इससे उनके स्वच्छ दामन पर दाग लग गया। इंदिरा गांधी रात्रि 12 बजे राष्ट्रपति भवन गयीं और राष्ट्रपति को सोते से जगाकर आपातकाल की घोषणा संबंधी अध्यादेश पर उनके हस्ताक्षर लिये। कहा जाता है कि इसके पश्चात फखरूद्दीन अली अहमद सो नहीं पाये थे। शायद वह स्वयं को माफ भी नहीं कर पाये और इसी कारण वह हृदयाघात के शिकार हुए। फलस्वरूप 11 फरवरी 1977 को वे इस संसार से चले गये। वह इस दुर्भाग्य को सहन नहीं कर पाये कि आपातकाल के कागजों पर उन्हें हस्ताक्षर करने पड़े। इंदिरा गांधी ने उन्हें अपने लिये प्रयोग किया, और यह भारतीय गणराज्य का दुर्भाग्य रहा कि भारत का राष्ट्रपति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह नहीं कर पाया। संवैधानिक रक्षक के द्वारा ही संविधान को ताक पर रखवा दिया गया।
नीलम संजीवा रेड्डी
भारत के राष्ट्रपति के चुनाव को रोमांचक बनाने वाले भारत के छठे राष्ट्रपति नीलम संजीवा रेड्डी थे। 1969 में वो वी.वी गिरि से बहुत कम अंतर से हारे थे। तब उस चुनाव ने बड़ा रोमांच पैदा किया था। अब 1977 का काल था। इंदिरा गांधी चुनाव हार गयीं थीं। जबकि फखरूद्दीन अली अहमद स्वर्ग सिधार गये। इसलिए सारा हिसाब किताब पाक साफ करने के लिए मोराजी देसाई ने नीलम संजीवा रेड्डी को पुन: राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाया। कुल 21 प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे। लेकिन सभी के नामांकन किसी न किसी कारण से निरस्त हो गये। नाम वापसी की अंतिम तिथि 21 जुलाई थी। इसलिए 21 जुलाई की शाम 5.30 बजे उन्हें भारत का अगला राष्ट्रपति घोषित किया गया। 25 जुलाई 1977 को उन्हें प्रात: 10 बजे संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष में पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई गयी। शपथ मुख्य न्यायाधीश एम.एच. बेग ने दिलाई थी। उस समय उनकी आयु 64 वर्ष की थी। उन्होंने हिंदी, अंग्रेजी दोनों में शपथ ग्रहण की थी।
11 फरवरी 1977 तक भारत के उपराष्ट्रपति बी.डी. जती ने राष्ट्रपति के दायित्वों का निर्वाह किया था। क्योंकि फखरूद्दीन अली अहमद के असामयिक निधन से पद रिक्त हो गया था। बी.डी. जत्ती प्रभारी राष्ट्रपति थे, पूर्ण राष्ट्रपति नहीं। इसलिए उन्हें राष्ट्रपतियों की नामावली में सम्मिलित नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार जाकिर हुसैन की मृत्यु के पश्चात उपराष्ट्रपति वी.वी. गिरि राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बन गये थे तो उस समय मुख्य न्यायाधीश मौहम्मद हिदायतुल्ला ने 35 दिन तक इस पद के दायित्वों का निर्वाह किया। लेकिन यह भी प्रभारी राष्ट्रपति ही कहलाये गये हैं। नीलम संजीवा रेड्डी 26 मार्च 1977 को सर्वसम्मति से लोकसभाध्यक्ष चुने गये। 13 जुलाई 1977 तक वह इस पद पर रहे। इन्हें अपने पांच वर्ष के राष्ट्रपति के कार्यकाल में मोरारजी देसाई, चरण सिंह और इंदिरा गांधी जैसे तीन प्रधानमंत्रियों से संपर्क साधना पड़ा था। चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनाना इनको विवादास्पद बना गया था।
ज्ञानी जैल सिंह
भारत के सातवें राष्ट्रपति के रूप में ज्ञानी जैलसिंह का नाम है। ये पंजाब के मुख्यमंत्री रह चुके थे। इंदिरा गांधी ने सत्ता में पुन: वापसी के पश्चात इन्हें देश का गृहमंत्री बनाया था। 11 जून 1982 को इन्हें इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किया। 22 जून 1982 को इन्होंने गृहमंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया। एच.आर. खन्ना पांच विरोधी पार्टियों के प्रत्याशी के रूप में चुनाव मैदान में थे। 15 जुलाई 1982 को इन्होंने 4 लाख 71 हजार 428 मतों से खन्ना को पराजित किया। 25 जुलाई 1982 को ये देश के राष्ट्रपति बने। जस्टिस वाई. वी. चंद्रचूड़ ने इन्हें शपथ दिलाई। ये एक आध्यात्मिक व्यक्ति थे। उर्दू का इन्हें अच्छा ज्ञान था। इनके काल में जब इंदिरा गांधी की 31 अक्टूबर 1984 को हत्या की गयी तो उसी दिन शाम छह बजे इन्होंने राजीव गांधी को देश का प्रधानमंत्री बना दिया। वह इंदिरा को अपना नेता मानते थे और इसलिए उनकी इच्छा राजीव को ही प्रधानमंत्री बनाने की थी। लेकिन अजीब बात रही कि जिसे उन्होंने प्रधानमंत्री बनाया था उसी राजीव से उनकी ठन गयी। कहते हैं कि भारत में पहली बार राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच कड़वाहट इतनी बढ़ी कि लगभग संवादहीनता में बदल गयी। जिसके लिए राजीव गांधी अधिक जिम्मेदार थे। राजीव गांधी का अहंकारी स्वरूप अपने राष्ट्र प्रमुख के लिए उचित नहीं था। ज्ञानी जैल सिंह अहंकार शून्य व्यक्ति थे, अपनी उपेक्षा से तंग आकर एक बार उन्होंने संविधान विशेषज्ञों से इस बात पर सलाह मशवरा करना आरंभ कर दिया था, कि भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी को कैसे बर्खास्त किया जाए। तब राजीव गांधी ने वस्तुस्थिति को समझकर सरदार बूटा सिंह के माध्यम से क्षमा याचना कर स्थिति को संभाला था।
आर. वेंकट रमण
16 जुलाई 1987 को आर वेंकट रमण भारत के 8वें राष्ट्रपति चुने गये। 25 जुलाई 1987 को सवा 11 बजे मुख्य न्यायाधीश आर. एस. पाठक ने उन्हें पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाई। आर वेंकट रमण के पास भी अपना लंबा राजनीतिक अनुभव था। वह रक्षामंत्री, उद्योगमंत्री, गृहमंत्री का अतिरिक्त प्रभार केन्द्र में संभाल चुके थे। अगस्त 1984 में वे देश के उपराष्ट्रपति बनाये गये थे। इसके अतिरिक्त और भी कई ऐसी जिम्मेदारियां उन्होंने निभाईं जिनसे उनका व्यक्तित्व धीर वीर गंभीर व्यक्ति का बना। उनका राष्ट्रपति काल घटनाओं से भरा हुआ था। वी.पी. सिंह ने मंडल की और भाजपा ने कमंडल की राजनीति से भारतीय राजनीति में उठापठक की घमासान मचा दी थी। वी.पी. सिंह को इन्होंने ही प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई। फिर चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई। राजीव गांधी की हत्या इन्हीं के काल में हुई। तब नरसिंहाराव को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई। देश में अभूतपूर्व राजनीतिक अस्त व्यस्तता थी, लेकिन देश का यह सौभाग्य था कि उसे एक सुलझा हुआ संवैधानिक प्रमुख आर वेंकट रमण के रूप में मिला हुआ था। 25 जुलाई 2002 को जब इन्होंने राष्ट्रपति पद छोड़ा तो पदत्याग के दो घंटे बाद ही ये अपने गृहनगर मद्रास (चैन्नई) के लिए अपने परिवार सहित प्रस्थान कर गये थे। इनकी बुद्घिमत्ता, राजनीतिक अनुभव, निश्छल राष्ट्र प्रेम और निष्पक्ष द्रष्टि को सर्वत्र सराहा गया।
डॉ शंकर दयाल शर्मा
डा. शंकर दयाल शर्मा भारत के नौवें राष्ट्रपति बने। उन्होंने अपने प्रतिद्वंदी जी.जी. स्वेल को भारी मतों से परास्त किया था। जी.जी. स्वेल को 1500 मत मिले थे जबकि डा. शर्मा को 2865 मत मिले थे। भाजपा जनता दल एवं अन्य क्षेत्रीय दल प्रो. जी.जी. स्वेल के साथ थे किंतु सी.पी. आई. (एम) तथा सी.पी.आई. कांग्रेस के साथ डा. शर्मा के लिए खड़े हो गये जिससे उनकी जीत आसान हो गयी। डा. शर्मा को छह लाख पिचहत्तर हजार आठ सौ चौंसठ मत मिले। जबकि प्रो. स्वेल को तीन लाख छियालीस हजार चार सौ उनासी मत मिले थे। अत: डा. शर्मा को 64.78 प्रतिशत मत मिले और प्रो स्वेल को मात्र 33.21 प्रतिशत मत ही मिल सके। राष्ट्रपति बनने से पूर्व डा. शर्मा भारत के उपराष्ट्रपति थे।
1972-1974 में वे कांग्रेस के राष्ट्ररीय अध्यक्ष बने थे। इससे पूर्व 1968-1972 तक वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महासचिव बनाये गये। 10 अक्टूबर 1974 से 24 मार्च 1977 तक वह संचार विभाग के कैबिनेट मंत्री रहे। 1984 में वे आंध्र प्रदेश के राज्यपाल बनाये गये। 1985 में उन्हें महाराष्ट्र का राज्यपाल बनाकर भेजा गया।
तीन सितंबर 1987 को वे उपराष्ट्रपति के पद पर आसीन किये गये। इस पद पर निर्विरोध निर्वाचित होने वाले वे तीसरे व्यक्ति थे। स्वभाव से डा. शर्मा बहुत ही विनम्र और अनुशासन प्रिय व्यक्ति थे। कानून से हटकर निर्णय लेने की वह सोच भी नहीं सकते थे। उपराष्ट्रपति के रूप में राज्यसभा का संचालन करते समय इन्हें राजीव गांधी वी.पी. सिंह, चंद्रशेखर तथा पी.वी. नरसिंहाराव जैसे कई प्रधानमंत्रियों के साथ कार्य करना पड़ा। लेकिन कभी भी इन्होंने किसी के लिए पक्षपाती होने का आरोप अपने ऊपर नहीं आने दिया। उनके राज्यसभा संचालन के समय विपक्षी सांसद बहिगर्मन नहीं करते थे। 1992 में कुछ उद्दण्डी सांसदों ने जब ऐसा किया तो जब तक उन सांसदों ने क्षमा याचना नहीं कर ली वे सभा की अध्यक्षता के लिए नहीं गये। 25 जुलाई 1992 को भारत के नौवें राष्ट्रपति के रूप में इन्हें जस्टिस एम.एच. कानिया ने पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई थी।
के. आर. नारायणन
भारतीय गणराज्य के दसवें राष्ट्रपति के रूप में कोचेरियल रमण नारायणन आये। इनकी पृष्ठभूमि राजनीतिक नहीं थी। वे भारतीय विदेश सेवा के सदस्य थे। वे एक नौकरशाह से उपराष्ट्रपति और फिर उपराष्ट्रपति से राष्ट्रपति बने थे। नौकरशाह से राष्ट्रपति बनने वाले वे पहले व्यक्ति थे। इसके बाद कलाम साहब राष्ट्रपति बने थे-उनकी भी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी। 21 अगस्त 1992 को वह भारतीय गणराज्य के उपराष्ट्रपति बनाये गये। उपराष्ट्रपति रहते हुए के. आर. नारायणन ने राज्यसभा का संचालन किया और सदा ही अपने निष्पक्ष आचरण और व्यवहार का परिचय दिया। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में वे केन्द्रीय मंत्री रहे। उपराष्ट्रपति के रूप में उनका निष्पक्ष आचरण सभी को स्वीकार्य होता था। 25 जुलाई 1997 को उन्हें जस्टिस जे.एस. वर्मा ने पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई। वह मलयाली भाषा के बोलने वाले थे। वह पहले ऐसे राष्ट्राध्यक्ष थे जिन्होंने अपने अधिकार का प्रयोग किया था। ये अपनी बुद्घिमत्ता और तेजी की निर्णायक क्षमता के लिए याद किये जाते हैं।
डॉ एपीजे अब्दुल कलाम
डा. एपीजे अब्दुल कलाम भारत के 11वें राष्ट्रपति बने। ये ऐसे पहले राष्ट्रपति रहे हैं जिनका राजनीति से कभी दूर का भी संबंध नहीं रहा। ये भारत के उपराष्ट्रपति नहीं बने, अपितु सीधे ही राष्ट्रपति बनाये गये। 1998 के पोखरण विस्फोट में डा. कलाम का अविस्मरणीय योगदान था। इस परमाणु विस्फोट से भारत ने ऊंची छलांग भरी और एक झटके में ही परमाणु संपन्न देशों की श्रेणी में जा पहुंचा। इसलिए डा. कलाम को लोगों ने सम्मान के रूप में मिसाइल मैन कहकर पुकारना आरंभ कर दिया था।
भाजपा जो कि उस समय केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व में सत्तारूढ़ थी, इसलिए उसने डा. कलाम को अपना प्रत्याशी बनाया लेकिन कलाम के नाम में ऐसा जादू था कि भाजपा को अछूत मानने वाले दलों ने भी कलाम के नाम पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी। उन्होंने 25 जुलाई 2002 को राष्ट्रपति के रूप में पद की शपथ ली। संभवत: यह राष्ट्रपति हैं जिन्हें विभिन्न संस्थानों ने सर्वाधिक मानद उपाधियां प्रदान कीं। सौभाग्य से वह अब भी हमारे बीच हैं और अब भी वह देश की प्रगति के लिए सदा प्रयत्न शील रहते है। वह 2020 तक भारत को विकसित देशों की पंक्ति में लाकर खड़ा करना चाहते हैं। वह कुरान के पाठ के साथ साथ ही भगवदगीता का भी पाठ करते हैं और वीणा बजाने का भी शोक रखते हैं। वे पूर्णत: मानवतावादी और आध्यात्मिक भी हैं। उन पर चाणक्य का यह कथन पूर्णत: सच सिद्घ होता है कि राजा दार्शनिक और दार्शनिक राजा (राष्ट्रपति ) होना चाहिए। सोनिया गांधी को 2004 में प्रधानमंत्री न बनने की सलाह भी संभवत: कलाम ने ही दी थी, क्योंकि राष्ट्रपति भवन से बाहर निकलकर ही सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री न बनने की घोषणा की थी। डा. कलाम ने राष्ट्रपति के पद पर रहते हुए हमेशा सभी राजनीतिक दलों को नकारात्मक बिंदुओं पर ऊर्जा व्यय करने की बजाए राष्ट्र के विकास के लिए प्रतिबद्घ रहने की सलाह दी।
प्रतिभा देवी सिंह पाटिल
देश की बारहवीं राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल हैं। जुलाई 2007 में भाजपा और अन्य सहयोगी दलों ने उपराष्ट्रपति भैंरो सिंह शेखावत को अपना संयुक्त प्रत्याशी बनाया और कांग्रेस व उसके सहयोगी दलों की प्रत्याशी प्रतिभा देवी सिंह के सामने चुनाव मैदान में उतारा। यद्यपि शेखावत ने स्वयं को एक निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में प्रदर्शित किया। जिससे कि वह अन्य दलों में अपनी पकड़ को और मजबूत कर सकें, तथा लोग उनके भाजपाई मूल स्वरूप को भूल जाएं। लेकिन उनका अंकगणित असफल ही रहा। लगभग चार लाख मतों से प्रतिभा पाटिल विजयी रहीं और 25 जुलाई 2007 को वह रायसीना हिल्स में देश की प्रथम महिला के रूप में प्रथम नागरिक बनकर प्रवेश करने में सफल हो गयीं। राष्ट्रपति चुनाव के पूर्व वह राजस्थान की राज्यपाल थीं। उन्होंने कहा था कि वह एक पॉलिटीकल प्रेसीडेंट सिद्घ होंगीं, रबर स्टांप प्रेजीडेंट नहीं । वह नारी उत्थान के लिए, कृषि क्षेत्र के विकास के लिए, निरक्षरता उन्मूलन के लिए, बेरोजगारी समाप्ति तथा वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास को प्राथमिकता देती है ।आज सारा देश प्रतिभा पाटिल का उत्तराधिकारी ढूंढ रहा है। देखते हैं कौन होगा इस शानदार विरासत का जानदार वारिस, जो रायसीना हिल्स पर विराजमान भारत के गणतांत्रिक राष्ट्रप्रमुख के सिंहासन पर बैठेगा?