डा ईश नारंग , प्रधान आर्य गुरुकुल, दयानंद विहार दिल्ली
श्रावणी उपाकर्म मूलत: वेद के अध्ययन की परंपरा से जुड़ा हुआ पर्व है। अथवा यह कहें कि यह स्वाध्याय पर्व है। आर्यवर्त की परंपरा में श्रावण मास की पूर्णिमा से आरंभ होकर पौष मास की पूर्णिमा तक लगभग 4.5 मास का यह स्वाध्याय पर्व होता था ।
पारस्कर गृह्यसूत्र के दूसरे कांड, की दसवीं कंडिका का दूसरा मंत्र इस में प्रमाण है।
॥ ‘औषधिनाम प्रादुर्भावे श्रवनेन श्रवण्याम पौरणमस्या श्रवरनस्य पंचमों हस्तेन वा २। १०।२॥
इसका अर्थ है — जब औषधियां / वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं श्रावण मास के श्रवण नक्षत्र व चंद्र के मिलन (पूर्णिमा) या हस्त नक्षत्र में चंद्र के होने के समय (श्रावण पंचमी) को इसका उपाकर्म होता है।
इस कार्य को आरंभ करने को उपाकर्म और पौष में समापन को उत्सर्ग की संज्ञा दी गई है।आज के दिन जिनका यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका होता है, वह पुराना यज्ञोपवीत उतारकर नया धारण करते हैं। यज्ञोपवीत आत्म संयम का संस्कार है। इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। और इसे धारण करने वाला व्यक्ति ‘द्विज’ कहलाता है।
कालांतर में अनेक प्रकार की लोक परम्पराएं इसके साथ जुड़ती गई। रक्षा बंधन का पर्व भी उन्हीं परंपराओं मे एक है। यह प्रथा कब शुरू हुई और कैसे हुई , इस विषय में अनेक कथाएं है जिन पर पूरी तरह से विश्वास नहीं किया जा सकता। एक कहानी चित्तौड़ की महारानी कर्णावती द्वारा मुग़ल राजा हुमायूँ को भेजी गई राखी की भी है, जो कि सर्वथा असत्य प्रतीत होती है और मेकउले के मानस पुत्रों द्वारा जोड़ दी गई लगती है। पाकिस्तान में जिस जनपद से मेरे पूर्वज आए थे वहाँ इसे सावनी धावनि के नाम से मनाया जाता । नदी किनारे जा कर मनोरंजन आदि के कार्यक्रम आयोजित किए जाते थे। श्रावणी के मूल भाव को छोड़ कर यह मनोरंजन का पर्व बन गया। ऐसे ही अनेक प्रकार के कर्मकांड भी इस पर्व के साथ पौराणिकों ने जोड़ दिए । किन्तु समय के साथ हुआ यह कि जन साधारण इन कर्म कांडों में ही उलझ गया और इसके मूल भाव – स्वाध्याय को भूल गया ।
स्वाध्याय शब्द के दो अर्थ हैं। पहला अर्थ है वेद और वेद सम्बन्धी ग्रन्थों का अध्ययन। दूसरा अर्थ है स्व + अध्याय अर्थात् अपना अध्ययन। अपने अध्ययन से अभिप्राय है आत्म-निरीक्षण- self introspection .
वास्तव में वैदिक धर्म में स्वाध्याय की महिमा का अनेक स्थानों पर वर्णन किया गया है। वेद अध्ययन प्रत्येक वर्ण और प्रत्येक आश्रम के लिए अनिवार्य और और आवश्यक बताया गया है। वर्णों की बात करें तो ब्राहमण का तो मुख्य कार्य ही अध्ययन और अध्यापन बताया गया है। क्षत्रिय और वैश्य को भी द्विज की संज्ञा स्वाध्याय करने के निर्देश के कारण ही दी गई है।
इसी प्रकार चार आश्रमों की बात करें तो प्रथम आश्रम केवल अध्ययन के लिए ही है। इस आश्रम के समाप्त होने पर समावर्तन के समय भी आचार्य स्नातक को “सत्यं वद । धर्मं चर । स्वाध्यायात् मा प्रमदः:” –(तैत्तिरीयोपनिषद् १/११) अर्थ है ( औपचारिक शिक्षा के बाद भी) ‘स्वाध्याय करने में प्रमाद मत करना । फिर तीसरा आश्रम वानप्रस्थ में भी मुख्य कर्म स्वाध्याय और तप ही रह जाता है । सन्यासी का भी मुख्य कार्य स्वयं पढे हुए को दूसरों को उपदेश द्वारा पढ़ाना ही होता है। सन्यासी के लिय उपदेश है कि वह यज्ञ आदि सब कर्मों को तो त्याग देवे किन्तु वेद के स्वाध्याय / उपदेश का त्याग नहीं करे।
योगदर्शन में भी स्वाध्याय की महिमा का वर्णन करते हुए महर्षि पतञ्जलि ने लिखा है―
तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग: । ―(योग० २/१)
तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान इनको क्रियायोग कहते हैं। क्रियायोग का अर्थ है योग के साधन। इन तीनों में एक ‘स्वाध्याय’ है
मनु महाराज ने भी मनुस्मृति में स्वाध्याय पर बहुत बल दिया है। गृहस्थ के लिए मनु महाराज ने पाँच महा यज्ञों का विधान किया है। उन पाँच में से पहला यज्ञ ब्रह्मयज्ञ है― ब्रह्मयज्ञ केवल हमरी संक्षिप्त 19 या 20 मंत्रों वाली संध्या नहीं है। मनु समृति कहती है – अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ: .. । ―(मनु० ३/७०), अर्थात् स्वाध्याय, वेद का अध्यापन , सन्ध्या और योगाभ्यास ब्रह्मयज्ञ कहलाते हैं। मनु महाराज ने नित्य कर्मों और स्वाध्याय में किसी प्रकार की छुट्टी Holiday नहीं मानी है― और कहा है — अनध्याय तो निन्दित कर्मों में होना चाहिए। इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण का वचन है – “स्वाध्यायो वै ब्रह्मयज्ञ”
ऋग्वेद के पहले मण्डल के 38 वें सूक्त का 14वां मंत्र स्वयं वेद के पढ़ने और पढ़ाने का उपदेश देता है
मि॒मी॒हि श्लोक॑मा॒स्ये॑ प॒र्जन्य॑इव ततनः । गाय॑ गाय॒त्रमु॒क्थ्य॑म् ॥―(ऋ० १/३८/१४)
इस का पद पाठ इस प्रकार होगा-
मि॒मी॒हि । श्लोक॑म् । आ॒स्ये॑ । प॒र्जन्यः॑ऽइव । त॒त॒नः॒ । गाय॑ । गा॒य॒त्रम् । उ॒क्थ्य॑म् ॥
ऋषि दयानंद इसका भाष्य करते हुए लिखते है _ हे विद्वान् मनुष्य ! तू (आस्ये) अपने मुख में (श्लोकम्) वेद की शिक्षा से युक्त वाणी को (मिमीहि) निर्माण कर और उस वाणी को (पर्जन्य इव) जैसे मेघ वृष्टि करता है वैसे (ततनः) फैला और (उक्थ्यम्) कहने योग्य (गायत्रम्) गायत्री छन्दवाले स्तोत्ररूप वैदिक सूक्तों को (गाय) पढ़ तथा पढ़ा ॥१४ ॥
इस मंत्र द्वारा वेद मनुष्य को प्रेरणा दे रहा है कि तू वेदवाणी का स्वाध्याय कर। वेदवाणी के स्वाध्याय से जो ज्ञान तुझे प्राप्त हो, तू उसे ऐसे फैला जैसे बादल वर्षा फैलाता है।अर्थात् ज्ञान को अपने तक ही सीमित न रखें बल्कि उसको लोगों में फैलायें, प्रचार करें।एक लोकोक्ति है “ सरस्वती के भंडार की बड़ी विचित्र बात, ज्यों ज्यों इस को खर्च करो त्यों त्यों बढ़ती जात। “
देव दयानंद ने आर्य समाज के नियमों में तीसरे नियम में जो आदेश दिया ‘ वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है – इस नियम का स्रोत यही वेद मंत्र प्रतीत होता है।
एक बात और कहना चाहता हूँ। जैसे बिना पौष्टिक अन्न के शारीरिक उन्नति नहीं हो सकती , इसी प्रकार बिना पौष्टिक स्वाध्याय के मानसिक और आत्मिक उन्नति नहीं हो सकती। मैंने ‘पौष्टिक स्वाध्याय’ शब्द का प्रयोग किया है। अनार्ष ग्रंथों का या उपन्यास आदि का पढ़ना ‘पौष्टिक स्वाध्याय’ नहीं होता।
आर्य समाज का छटा नियम भी एक प्रकार से इसी बात की ओर इंगित करता है । जब हम कहते है “संसार का उपकार करना अर्थात शारीरिक , आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना.. । तो जब इस नियम में आत्मिक उन्नति की बात ऋषि ने कही तो उसका आशय यह है कि स्वाध्याय द्वरा आत्मिक उन्नति करने के बाद ही सामाजिक उन्नति करने की बारी आती है। . आज हम न तो शारीरिक उन्नति की ओर ध्यान देते है न आत्मिक उन्नति की ओर—सीधे सामाजिक उन्नति की बात करने लगते है।
तो आइए आज जब हम ऋषि दयानंद के जन्म के 200 वर्ष के समारोह की अवधि में यह पवित्र श्रावणी पर्व मना रहे हैं तो वेद आदि शास्त्रों के पठन पाठन का व्रत लें । हम में से कुछ को लगेगा कि वेद एवं अन्य आर्ष साहित्य पढ़ना कठिन कार्य है, हम तो संस्कृत नहीं जानते । हमारी इस कठिनाई को ऋषि ने लगभग 150 वर्ष पहले ही पहचान लिया था और जैसे आजकल विद्यार्थी सहायक पुस्तकों , हेल्प बुक या कुंजी का प्रयोग करते है, जो प्रश्न – उत्तर की शैली में होती है , ऋषि ने 150 वर्ष पहले ही सत्यार्थ प्रकाश के रूप में सभी आर्ष ग्रंथों के सार रूप में एक कुंजी, प्रश्न – उत्तर की शैली में हमारे लिए बना दी थी। हम उसी का स्वाध्याय कर लें । वह भी कठिन लगे तो ऋषि का जीवन चरित्र ही पढ़ लें। उसे पढ़ कर हमे प्रेरणा मिलेगी कि हम भी कुछ तो स्वाध्याय इस बार के श्रावणी पर्व पर आरंभ कर लें । हमारा ऋषि दयानंद के जन्म के 200 वर्ष के समारोह की अवधि में यह पवित्र श्रावणी पर्व मनाना सफल हो जाएगा ।