अनन्या मिश्रा
भारतीय संस्कृति में गुरुओं को हमेशा भगवान से ऊंचा दर्जा दिया गया है। बता दें कि आज ही के दिन यानी की 1 सितंबर को अमृतसर शहर के संस्थापक और सिखों के चौथे गुरु, गुरु राम दास का निधन हो गया था। उन्होंने ही अमृतसर शहर की स्थापना की थी। आइए जानते हैं उनकी डेथ एनिवर्सरी के मौके पर गुरु राम दास के जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातों के बारे मे…
पाकिस्तान के लाहौर में 24 सितंबर 1534 को गुरु रामदास का जन्म हुआ था। इनकी माता का नाम दया कौर और पिता का नाम बाबा हरि दास जी सोढ़ी था। गुरु रामदास का परिवार काफी ज्यादा गरीब था। उन्हें अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए उबले चने बेचने पड़ते थे। बता दें कि गुरु रामदास को बचपन में ‘जेठाजी’ कहकर बुलाते थे। जब रामदास महज 7 साल के थे, तो उनके माता-पिता का साया उनके सिर से उठ गया। जिसके बाद रामदास का पालन पोषण उनकी नानी द्वारा किया गया।
अपनी नानी के पास रहते हुए रामदास ने करीब 5 सालों तक उबले हुए चने बेचकर अपना जीवन यापन किया। इसके बाद वह नानी को साथ लेकर गोइंदवाल आ गए और फिर हमेशा के लिए यहां पर बस गए। रामदास उबले चने बेचने लगे और अपना बचा हुआ समय गुरु अमरदास साहिब जी की ओर से संगत के साथ विचार चर्चा के लिए होने वाले धार्मिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेने लगे। इस दौरान गुरु रामदास ने गोइंदवाल साहिब के निर्माण की सेवा की।
बचपन में ही गुरु रामदास की मुलाकात एक सत्संगी मंडली से हो गई। यहीं से उनके नए जीवन की शुरूआत हुए। गुरु रामदास अपने गुरु अमरदास की सेवा के लिए पहुंच गए और निस्वार्थ भाव से सेवा करने लगे। इनकी सेवा भाव को देखकर गुरु अमरदास जी काफी ज्यादा प्रभावित हुए। उन्होंने अपनी बेटी का विवाह गुरु रामदास के साथ करने का निर्णय लिया। हालांकि शादी के बाद भी उन्होंने कभी खुद को जमाई के तौर पर पेश नहीं किया। बल्कि पहले की तरह की सच्चे मन से सेवा में लगे रहे।
बता दें कि गुरु अमरदास जी की एक और पुत्री थी उनके पति भी वहां सेवा किया करते थे। लेकिन अमरदास जी का मन हमेशा रामदास के साथ ही लगता था। गुरु अमरदास हमेशा से गुरु रामदास को अपनी गद्दी का उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। लेकिन अपनी मर्यादा को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अपनी दोनों बेटियों के पति की परीक्षा ली। गुरु अमरदास ने अपने दोनों जमाइयों को आदेश दिया कि उन दोनों को ‘थड़ा’ बनाना है। जब दोनों ने ‘थड़ा’ बनाना शुरू किया। इसके बाद जब गुरु अमरदास ने दोनों के काम को देखा तो कहा कि यह गलत बना है। इसे हटाकर कुछ नया निर्माण करें।
इसके बाद दोनों जमाइयों ने थड़ा को फिर से बनाना शुरू किया। आखिरी में जब थड़ा बनकर तैयार हुआ तो फिर से गुरु अमरदास को दिखाया गया। लेकिन उन्होंने फिर मना कर दिया और कहा कि किसी का भी थड़ा अच्छा नहीं बना है। जिसके बाद दोनों ने यह कार्य करना फिर से शुरु किया। यह क्रम 4-5 बार चलता रहा। अंत में गुरु अमरदास के दूसरे जमाई ने यह कहते हुए थड़ा बनाने से इंकार कर दिया कि अब इससे अच्छा थड़ा उससे नहीं बन सकता है। ऐसे में गुरु रामदास परीक्षा में सफल हो गए।
परीक्षा में पास होने के बाद अमरदास जी ने गुरु रामदास को राजगद्दी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। जिसके बाद गोविंद बाल जिला अमृतसर में गुरु अमर दास जी ने उन्हें गुरु गद्दी सौंप दी। गुरु रामदास ने अपना कार्यभार सिखों के चौथे गुरु के रूप में संभाला। इसके बाद गुरु रामदास ने अपना डेरा एक तालाब के किनारे निश्चित किया। यहां पर तालाब के अंदर पानी में काफी ज्यादा अद्भुत शक्ति थी। तालाब के पानी को अमृत के समान समझा जाता था। इसलिए वहां से उसका नाम अमृत रखा और तालाब को सरोवर कहते हैं। इसलिए इसका नाम अमृतसर पड़ गया। इसके साथ ही गुरु रामदास ने ही अमृतसर में लंगर प्रथा को शुरू किया। साथ ही यह घोषणा भी करवाई कि किसी भी समुदाय या धर्म का व्यक्ति लंगर खा सकता था। उनको 30 के आसपास रागों का ज्ञान था और इन्होंने 638 से ज्यादा भजनों का निर्माण किया था।
गुरु रामदास ने पूरे चार साल तक अपना कार्यभार संभाला। जिसके बाद 1 सितंबर 1581 को उनका निधन हो गया। गुरु रामदास के निधन के बाद सभी सिख समुदाय में उदासी का माहौल हो गया। वहीं गुरु रामदास के दुनिया से अलविदा कहने के बाद उनके सबसे छोटे बेटे ‘अर्जुन साहिब’ को सिखों का पांचवा गुरु घोषित किया गया।