आज की भोर(05/07/2012)अंधविश्वासी न बनो
यह विलक्षण बालक काफी कम उम्र से ही भय अथवा अंधविश्वास न मानता था। उनके बचपन का एक अन्य खेल था, पड़ोसी के घर चम्पा के पेड़ पर चढ़कर फूल तोड़ना और ऊधम मचाना। पेड़ के मालिक ने अपनी डाँट-फटकार से कोई लाभ न होता देख, एक दिन नरेन के साथियों से अत्यंत गंभीरतापूर्वक कहा कि उस पेड़ पर एक ब्रह्मदैत्य निवास करता है और उस पर सभी बच्चे भयभीत हो गए और उस पेड़ से दूर-दूर रहने लगे। परंतु नरेन उन्हें समझा-बुझाकर पुन: वहीं ले आए और पहले के समान ही पेड़ पर चढ़कर खेलने लगे और शैतानीपूर्वक वृक्ष की कुछ डालियाँ भी तोड़ डालीं। फिर वे अपने साथियों की ओर उन्मुख होकर बोले – ‘तुम लोग भी कैसे गधे हो। देखो मेरी गरदन कैसी सही सलामत है। बूढ़े बाबा की बात बिल्कुल झूठी है। दूसरे लोग जो कुछ भी कहते हैं, उसकी जाँच किए बिना कभी भी विश्वास न करना।’
सत्य की स्वयं ही उपलब्धि करो
ये सरल तथा स्पष्ट शब्द जगत के प्रति उनके भावी संदेश का संकेत देते हैं। परवर्ती काल में अपने व्याख्यानों में वे प्राय: ही कहा करते थे – ‘किसी बात पर सिर्फ इसी कारण विश्वास न कर लो कि वह किसी ग्रंथ में लिखी है। किसी चीज पर इसलिए विश्वास न कर लो कि किसी व्यक्ति ने उसे सत्य कहा है। किसी बात पर सिर्फ इस कारण भी विश्वास न करना कि वे परंपरा से चली आ रही है। अपने लिए सत्य की स्वयं ही उपलब्धि करो। उसे तर्क की कसौटी पर कसो। इसी को अनुभूति कहते हैं।
नीचे लिखी घटना उनके साहस एवं प्रत्युत्पन्नमति का एक अच्छा उदाहरण है। व्यायामशाला में एक दिन वे एक भारी झूला खड़ा करना चाहते थे। उन्होंने आसपास उपस्थित कुछ लोगों से इसमें सहायता करने का अनुरोध किया। हाथ बटाने वालों में एक अँगरेज नाविक भी थे। झूला खड़ा करते समय उसका एक भाग नाविक के सिर पर गिर पड़ा और वे चोट खाकर अचेत हो गए।
बाकी सभी लोग उन्हें मृत समझकर पुलिस के भय से रफूचक्कर हो गए परंतु नरेन ने अपने वस्त्र का एक टुकड़ा फाड़कर नाविक के चोट पर पट्टी बाँधी, उनके चेहरे पर पानी के छींटे दिए और धीरे-धीरे उन्हें होश में ले आए। तत्पश्चात घायल नाविक को अपने पड़ोस के विद्यालय भवन में लाकर एक सप्ताह तक उनकी सेवा की। उनके स्वस्थ हो जाने के पश्चात नरेन ने अपने मित्रों से थोड़ा धन संग्रह किया और नाविक को सौंपकर उन्हें विदाई दी।
बचपन के इन क्रीड़ा-कौतुकपूर्ण जीवन के बीच भी नरेन के हृदय में परिव्राजक संन्यासी जीवन के प्रति आकर्षण बना रहा था। अपने हथेली पर की एक रेखा विशेष की ओर संकेत करते हुए वे अपने मित्रों से कहा करते – ‘मैं अवश्य ही संन्यासी बनूँगा, एक हस्तरेखाविद् ने बताया है।’
किशोरावस्था में प्रवेश करते हुए नरेन के स्वभाव में अब कुछ विशेष परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगे थे। बौद्धिक जीवन की ओर उनका झुकाव बढ़ गया। अब वे इतिहास एवं साहित्य के महत्वपूर्ण ग्रंथों का अध्ययन करने लगे, समाचार पत्र पढ़ने लगे और सार्वजनिक सभाओं में जाने लगे। संगीत उनके दिल बहलाव का प्रमुख साधन बन गया। उनका मत था कि संगीत के माध्यम से उदात्त भावों की अभिव्यक्ति होनी चाहिए और जिससे गायक की भी भावनाएँ जाग्रत हो उठें।