प्रणव मुखर्जी केन्द्र की मनमोहन सरकार के संकटमोचक रहे हैं। ऐसा सभी मानते हैं, लेकिन हमारा मानना है कि इस सरकार द्वारा खड़े किये गये संकटों से भी देश को उबारकर लाने वाले सरकार के मार्गदर्शक भी वही रहे हैं। अमेरिका के साथ परमाणु करार के मुद्दे पर मनमोहन सिंह अपनी सरकार की बलि तक देन को तैयार थे। यदि उनकी और उनकी सरकार की सोच को देखा, परखा और समझा जाता तो उस समय विनम्र मनमोहन सिंह भी दो-दो हाथ करने की मुद्रा में थे, उन्हें जिद थी कि परमाणु करार यथावत पारित हो। लेकिन ये प्रणव दा ही थे जिन्होंने सरकार की और देश की शाख उस समय बचायी। उन्होंने परमाणु करार के मसौदे को पहले अमेरीका की कांग्रेस से पास कराने के लिए अमेरीकी प्रशासन को विवश किया और तब उस पर भारत की सहमति की मुहर लगवायी। देश का प्रधानमंत्री जिस मसौदे को उसके कूटनीतिक पक्षों की अनदेखी करते हुए पास कराने पर बाजिद था, उसे प्रणव दा की सूझबूझ ने सही रास्ते पर ला दिया। अमेरिका यदि उस मसौदे को पहले भारत की संसद से पारित करा लेता तो वह अपनी कांग्रेस में मनमाने संशोधन कर सकता था। लेकिन प्रणवदा की कूटनीति ने अमेरिका को अपनी चाल चलने से रोक दिया। भारत के पास भविष्य में अपनी सुरक्षा के दृष्टिगत परमाणु परीक्षण करने का विकल्प सुरक्षित रहा। अब वही प्रणव दा राष्ट्रपति भवन जाने की तैयारी कर रहे हैं। सारी सरकार में एक सर्वाधिक सुयोग्य व्यक्ति जब राष्ट्रपति भवन में पहुंच चुका होगा तो उसकी कमी तो सरकार में अखरेगी ही। वैसे कांग्रेस में प्रणव के बाद कौन की चर्चा अब इस समय जोरों पर है। प्रणव की सीट लेने के लिए लोगों में होड़ है। परंतु विरासतें कभी सीट पाने से तय नहीं होती हैं। विरासतें तो प्रतिभा प्रदर्शन से ही तय होती हैं। अब देखना ये है कि प्रणव की जगह लेने वाला व्यक्ति कितना प्रतिभा संपन्न हो पाता है।
आज हर जगह कंपीटीशन है। राजनीति भी इससे अछूती नहीं है।
राजनीति की नदी का प्रवाह तो इतना तेज है कि यदि उसमें किसी व्यक्ति के एक बार पांव फिसल जाएं तो फिर पैर जमने मुश्किल हैं।राजनीतिक जीवन में 1984 में प्रणव के पांव उस समय उखड़ गये थे जब उन्होंने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद स्वयं को प्रधानमंत्री बनवाना चाहा था, लेकिन राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने उन्हें देश का प्रधानमंत्री न बनाकर राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बना दिया था। तब राजीव गांधी की कोपदृष्टि के भाजन प्रणव बने। लेकिन ये प्रणव ही थे जिन्होंने समझदारी से अपना समय काटा और वह ससम्मान कांग्रेस में पुन: स्थापित हो गये। यदि उनकी समझदारी उस समय उनका साथ छोड़ गयी होती तो आज वह रायसीना हिल्स के इतने करीब न होते।