बाबा रामदेव ने पिछले सप्ताह अपनी पंजाब यात्रा के दौरान 1984 के दंगों को लेकर कांग्रेस की आलोचना की। उन्होंने कहा है कि केन्द्र में मनमोहन सिंह की सरकार कमजोर सिद्घ हुई है, और उसके मुखिया सरदार मनमोहन सिंह ने भी कभी 1984 के दंगों के लिए क्षमायाचना की आवश्यकता पंजाब के लोगों के प्रति नहीं समझी।
बाबा रामदेव ने 1984 के दंगों को लेकर जो टिप्पणी की है उसमें उनकी शुद्घ राजनीतिक मानसिकता और राजनीतिक द्वेष भाव झलकता है। वह राजनीति में यदि इसी लाइन पर चलना चाहते हैं तो मानना पड़ेगा कि वह भी राजनीति के गिरे हुए मूल्यों में आस्था रखते हैं और कोई नया चिंतन राजनीति के आज विद्रूपित स्वरूप को सुधारने का उनके पास नहीं है। वह सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए हथकंडों की ओच्छी राजनीति में विश्वास करते हैं। राजनीतिज्ञों की जिस मानसिकता को लेकर वह राजनीतिज्ञों को बेईमान कहते हैं, उसी से वह स्वयं ग्रसित हैं। उनसे उम्मीद की जाती थी कि वह घावों पर मरहम लगाएंगे न कि नमक छिड़केंगे, लेकिन वह नमक छिड़कने लगे भावनात्मक ब्लैकमेलिंग करते हुए लोगों को भड़काने लगे। पंजाब के घावों को भी उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ जागरण के अपने अभियान की तरह ही समझा। जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए था। भ्रष्टाचार एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन हो सकता है, लेकिन आतंकवाद के साये से निकले पंजाब के घावों का राष्ट्रीयकरण नहीं किया जा सकता।
बाबा रामदेव अच्छे लगते यदि वह 1984 से 12 वर्ष पूर्व 1972 में आये अलगाववादी आनन्दपुर प्रस्ताव की पृष्ठभूमि में खड़े पाकिस्तान की कुचालों का पर्दाफाश करते और बताते कि बांग्लादेश की हार का बदला लेने के लिए पाकिस्तान ने किस प्रकार लगभग डेढ़ दशक तक पंजाब में आतंकवाद की आग बरपाई। जिसमें पंजाब की जनता घुट-घुटकर जीती रही। वह बताते कि इस दौरान गुरूओं की इस भूमि पर हिन्दुत्व की उस भावना का कितनी बार कत्ल किया गया जिसकी सुरक्षार्थ गुरूओं ने शिष्य परंपरा चलायी जो बाद में सिख परंपरा में तब्दील हो गयी। यह हमारे इतिहास पर किया गया कुठाराघात था जो आतंकवादियों ने निरंतर 15 वर्ष तक किया। इसके पीछे विदेशी ताकतें रहीं जिन्होंने हिंदुस्तान को पुन: बंटवारे के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया था। अद्र्घ शताब्दी से भी पहले ही भारतीय उपमहाद्वीप का बंटवारा होने की संभावनाएं बलवती होती जा रही थीं, जो तत्कालीन भारतीय नेतृत्व के लिए चिंता का विषय थीं। पूरा राष्ट्र अपने प्यारे पंजाब में आतंक की खेली जा रही होली से तंग आ चुका था। अपने ही भाईयों के खिलाफ सख्ती उचित प्रतीत नहीं होती थी। लेकिन जब आतंकियों ने स्वर्ण मंदिर जैसे पवित्र स्थल को ही अपनी आतंकी गतिविधियों का केन्द्र बना लिया तो भारी मन से राष्ट्र की भावनाओं के दृष्टिगत इंदिरा गांधी ने स्वर्णमंदिर में सेना भेजी, जहां भिंडारांवाला हर प्रकार के पापपूर्ण कृत्य कर रहा था। पवित्र भूमि से अपवित्र गठबंधन अंजाम लेता जा रहा था। इसलिए इस पवित्र भूमि को तत्काल आतंकियों से मुक्त कराना बहुत आवश्यक था। यह कार्य गुरूओं की भावनाओं के अनुकूल था, क्योंकि जो पुण्य आत्मायें हिंद की चादर कहलाईं उनकी पवित्र भूमि हिंद से अलग होने जा रही थी। ऑपरेशन ब्लू स्टार इतिहास की दु:खद घटना थी। लेकिन इतिहास ने उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया था कि जहां जहर का प्याला पीना ही समस्या का उपचार नजर आ रहा था। यद्यपि यह सही है किइस परिस्थिति के लिए कांग्रेस की और खासतौर से इंदिरा गांधी की नीतियां बहुत हद तक जिम्मेदार थीं।पवित्र स्वर्ण मंदिर इस कार्यवाही में क्षतिग्रस्त हुआ। उसके स्वरूप को देखकर सारे देश को कष्ट हुआ। इंदिरा गांधी भी आहत हुईं। इसलिए तुरंत उसके लिए सेवा कार्य शुरू कराये गये और स्वर्ण मंदिर की मरम्मत का कार्य जोरों से शुरू हो गया। इंदिरा गांधी का यह कार्य उनकी ओर से एक प्रकार से क्षमा याचना ही थी। इसके बाद भी सरकारी सेवाकार्यों को अपवित्र माना गया और कुछ लोगों ने अपने समाज के पैसे से मंदिर का निर्माण कराना आरंभ किया। इसे भी भावनाओं का सम्मान करने के नाम पर स्वीकार किया गया। तब इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गयी। उसके बाद देश भर में प्रतिक्रिया की ऐसी आंधी चली कि सिक्खों का नरसंहार किया गया। इतिहास की घोर बिडंबना का देश शिकार हो गया। वक्त गुजरा और सारा देश बीते हुए समय पर अफसोस करने लगा। जिस कांग्रेस के राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए 1984 के दंगे हुए थे, उन्हें 1989 के चुनावों में सत्ता से बेदखल कर देश ने कांग्रेस को दंडित किया। उसके बाद से आज तक कांग्रेस कभी भी स्पष्ट बहुमत लेकर केन्द्र में सरकार नहीं बना पायी।
मनमोहन सिंह को पी.एम. बनाकर सोनिया ने कांग्रेस की ओर से पंजाब की भूमि से यद्यपि पुन: क्षमायाचना की है, लेकिन मनमोहन सिंह ने देश की जनता को निराशा ही दी है। वह सोनिया की कठपुतली हैं और देश के सम्मान को सुरक्षित नहीं रख पाये हैं।
बाबा रामदेव से कुछ ऐसी बातों की उम्मीद थी लेकिन उनके वक्तव्य को सुनकर ऐसा लगा कि जैसे कोई संत न बोलकर नेता प्रतिपक्ष बोल रहा हो। अपनी भाषा में संतुलन बनाना बहुत आवश्यक होता है। बोलते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सत्ता यदि हमारे पास आती है तो हम क्या करेंगे? इसीलिए स्थानापन्न नीतियां हर पार्टी के पास होनी चाहिए। बाबा रामदेव आलोचना के लिए आलोचना ना करें, बल्कि समस्या का समाधान देने का प्रयास करें। इसी में उनका संतत्व राष्ट्र के लिए उपयोगी हो सकता है। वह चाहे कितना ही भड़काऊ बोल लें, लेकिन देश की जनता ने 4 जून 2011 को उनकी वीरता उस समय देख ली थी जब वह औरतों के कपड़े पहन कर रामलीला मैदान से जान बचाकर भागे थे। एक संत पांच हजार लोगों की संख्या की अनुमति ले और फिर प्रशासन को एक लाख आदमी इक_ïे करने की चुनौती दे, तो क्या होगा?
सारा देश बाबा के प्रति सहानुभूति से उस समय भर गया था लेकिन तर्क तो उस समय भी जिंदा था और आज भी जिंदा है। जिसका बाबा के पास भी कोई जबाव नहीं है। क्या ही अच्छा हो कि राजनीति में गंदगी फैलाने वाली कांग्रेस और सभी दलों की वह राजनीतिक शुचिता को भंग करने वाली नीतियों की पोल खोलें, परंतु राष्ट्रहित में संतुलित बोलने के अपने धर्म को ना भूलें। पुरानी लीक को पीटने की बजाए वह नये मूल्यों की स्थापना करें, इसीलिए देश उन्हें चाहता है। लेकिन वह जिस प्रकार मुस्लिम तुष्टिकरण कर रहे हैं और छदमवादी नीतियों को अपनाकर कांग्रेसी कल्चर का प्रदर्शन कर रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि वह भी कांग्रेस का कोई नया संस्करण बनने जा रहे हैं। कांग्रेस की नीतियां यदि देश के लिए घातक रही हैं तो बाबा रामदेव की सोच भी घातक ही रहेगी। वह सरदार पटेल की तरह स्पष्ट वादी नहीं हैं, बल्कि नेहरू की तरह अस्पष्ट है और काले अंग्रेजों को गाली देकर सत्ता तक पहुंचने की योजना बनाते जान पड़ रहे हैं। व्यवस्था परिवर्तन उनका घोषित लक्ष्य है, लेकिन जो संकेत वह दे रहे हैं-उससे लगता है कि सत्ता परिवर्तन ही उनका असल मकसद है। देश की जनता को सावधान होना होगा क्योंकि सत्ता परिवर्तन के नाटकों से कभी भी व्यवस्था परिवर्तन नहीं होने वाला। बोतल फेंकी जाए या न फेंकी जाए लेकिन विषैली शराब फेंकनी आवश्यक है। पर बाबा ऐसा करते जान नहीं पड़ रहे। वह तुष्टिïकरण और छदम धर्म निरपेक्षता व कथित सर्वधर्म समभाव आदि की जहरीली शराब को ही देश को पिलाना चाहते हैं। ऐसे बाबा से तो बचना ही आवश्यक है।