स्वामी श्रद्धानंद के जीवन का एक विस्मृत प्रसंग
#डॉविवेकआर्य
[स्वामी श्रद्धानन्द के जीवन का एक विशेष गुण था। वह था निर्भीकता। यह गुण संसार में उन उन महान व्यक्तियों में प्रदर्शित होता हैं जो ईश्वरीय मार्ग के पथिक होते हैं। केवल और केवल सत्य से अनुराग, ईश्वर से अथाह प्रेम, आत्मा को सदा अनश्वर मानना, कर्मफल व्यवस्था में दृढ़ विश्वास, प्राणिमात्र के प्रति प्रबल सेवा भावना, सदाचार और संयम युक्त नियमित दिनचर्या, वेदादि धर्मशास्त्रों का साक्षात ज्ञान। यह गुण जिनमें होंगे वह व्यक्ति पहाड़ के समान भी कष्ट हो उसे निर्भीकता से झेल जायेगा। स्वामी दयानन्द शताब्दियों पश्चात पैदा हुई ऐसी ही एक महान विभूति थे। जिनके महान जीवन से न जाने कितनों उद्दार हुआ। ऐसी ही एक महान आत्मा जो दयानन्द रूपी कुंदन के स्पर्श से सोना बन गई। जिनका पुरा जीवन आर्यसमाज पर आई हर विपदा को दूर करने के लिए समर्पित हुआ। उनका नाम था स्वामी श्रद्धानंद। उनके पूर्वाश्रम का नाम महात्मा मुंशीराम जिज्ञासु था। स्वामी जी के जीवन चरित्र में अनेक अवसर उनकी निर्भीकता के हमें पढ़ने को मिलते हैं। इस लेख में उनके जीवन के ऐसे ही एक निर्भीक प्रसंग को हम पढ़ेंगे जिसमें हम विस्मृत कर चुकें हैं। इस लेख की सामग्री स्वामी जी के धर्मशाला प्रवास से सम्बंधित है। यह सामग्री मुझे आचार्य रामदेव जी द्वारा अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित वैदिक मैगज़ीन पत्रिका के सम्वत 1967 के अंकों से मिली हैं। यहाँ पर इसका संक्षिप्त हिंदी अनुवाद दिया जा रहा हैं। – डॉ विवेक आर्य]
1909 में पटियाला में आर्यसमाज की रक्षा करने के पश्चात स्वामी श्रद्धानंद (तत्कालीन महात्मा मुंशीराम) जी का स्वास्थ्य कुछ बिगड़ गया था। आप उन दिनों पटियाला अभियोग पर एक पुस्तक का लेखन भी कर रहे थे। इस अंग्रेजी पुस्तक का नाम था-“The Aryasamaj and its Detractors- A vindication” । आप गुरुकुल के कुछ ब्रह्मचारियों और अपने जमाता डॉ सुखदेव जी के साथ धर्मशाला के पहाड़ों में स्वास्थ्य लाभ के लिए चले गए। महात्मा जी पूर्व में शीर्घ अंग्रेज अधिकारी सर जॉन हेविट (Sir John Hewett) से मिलकर आर्यसमाज के पक्ष को भली प्रकार से प्रस्तुत कर चुके थे कि आर्यसमाज एक धार्मिक संस्था हैं। जिसका उद्देश्य अंग्रेज सरकार के विरुद्ध किसी भी कार्य में भाग लेना नहीं हैं। आर्यसमाज सरकारी नियमों का पालन करने के प्रति प्रतिबद्ध है। महात्मा जी के पक्ष को सुदृढ़ रूप से स्थापित करने के पश्चात भी उन्हें रेल में सफ़र करते समय प्रताड़ित करने का प्रयास किया गया। धर्मशाला में जहाँ वह रुके थे उस स्थान के आसपास CID के जासूस सदा उन पर निगरानी रखते थे। उनकी गतिविधियों के बारे में आस-पड़ोस में पूछते रहते थे। उनकी डाक के साथ भी छेड़खानी की जा रही थी। उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जा रहा था जैसे कि वह कोई संगीन अपराधी हो। महात्मा जी ने इस दुर्व्यवहार को गंभीरता से लिया।
उन्होंने 15 जून,1910 को जिला पुलिस अधिकारी को पत्र लिखा-
मैं धर्मशाला में स्वास्थ्य लाभ के लिए आया हूँ। बाकि समय में अपनी पुस्तक के लेखन में व्यतीत करना चाहता हूँ । मैंने पाया कि आपका एक कर्मचारी यह जानने का प्रयास कर रहा है कि मैं अपनी पुस्तक में क्या लिख रहा हूँ। यह जानकारी मैं अपने मित्रों से साँझा कर रहा हूँ। अगर वह व्यक्ति मुझसे आकर सीधा पूछ लेता तो मैं यह जानकारी उसे सीधा ही बता देता। अभी तक मेरे स्वास्थ्य ने मुझे लेखन कार्य का अवकाश नहीं दिया है। मैं जो लिखना चाहता हूँ उसे एक सार्वजानिक सूची के रूप में सलंग्न कर रहा हूँ।
अगर आपको इसके अतिरिक्त कुछ अन्य जानकारी चाहिए तो आप मुझे सीधा लिख सकते हैं। मैं किसी भी प्रकार की अनावश्यक गलतफहमी नहीं चाहता।
आपका विनीत
मुंशीराम जिज्ञासु
इस पत्र के साथ एक अंग्रेजी में विज्ञप्ति सलंग्न थी जिसका शीर्षक था “The Aryasamaj and its Detractors- A vindication” इस विज्ञप्ति में आर्यसमाज को एक धार्मिक संगठन ठहराया था। उन्होंने यह भी लिखा कि भारत देश में, जो वैदिक धर्म का उत्पत्ति देश है, वहां भी सभी धार्मिक संस्थाओं में आर्यसमाज के विषय में जनता सबसे अधिक भ्रांतियों का शिकार हैं। ऐसे में विदेशी लोगों का भ्रम में पढ़ना स्वाभाविक है क्यूंकि उनकी जानकारी का मुख्य स्रोत्र पक्षपाती अंग्रेजी प्रेस हैं।
आत्मा को गर्वित करने वाली आर्यसमाज की शिक्षा जहाँ एक और हज़ारों पुण्यात्माओं का अज्ञान और अन्धविश्वास से पुनरुद्धार कर रही हैं। वहीं इसकी सफलता लाखों पक्षपाती मत-मतान्तर को असहनीय हो रही हैं। इसलिए वे इस शैशव काल अवस्था में चल रही संस्था का समूल मिथ्याप्रचार और निंदा से समाप्त करना चाहते हैं। प्रसिद्द पटियाला अभियोग इसी विरोध का अंतिम परिणाम था जिसमें अभियोग पक्ष के भाषण का निचोड़ आर्यसमाज के विरोधियों से मेल खाता था।
मैं जो कार्य कर रहा हूँ उसमें पटियाला अभियोग के विषय में विस्तार से जानकारी होगी, मिस्टर ग्रे महोदय के विख्यात भाषण की समुचित समीक्षा और भ्रम निवारण होगा। साथ में आर्यसमाज आंदोलन की विचारधारा, उसके संस्थापक स्वामी दयानन्द के विषय में जानकारी होगी। आर्यसमाज के सिद्धांतों की आलोचना की तार्किक समीक्षा भी लिखी जाएगी ताकि अध्ययनशील जनता के समक्ष आर्यसमाज के वास्तविक रूप को रखा जा सके। यह ग्रन्थ 800 से 1000 पृष्ठों का होगा। जो दिसंबर 1910 तक प्रकाशित होगा।
स्वामी जी के पत्र का उत्तर जिला पुलिस अधिकारी ने 24 जून, 1910 को निम्न प्रकार से दिया-
माननीय महोदय
आपने अपनी प्रकाशित होने वाली पुस्तक की जानकारी देकर उचित कदम उठाया। मेरा विश्वास है कि धर्मशाला की वायु आपको अवश्य शारीरिक लाभ देगी और आप शीघ्र ही अपने कार्य को संपन्न कर पाएंगे। वह कार्य निष्पक्षता और संयम से होगा और आप सभी आलोचकों को समुचित उत्तर देकर उनकी शंकाओं का समाधान करेंगे।
मैंने पाया की पुस्तक पटियाला अभियोग पर होगी जिसमें मिस्टर वारबुर्टोन (Mr Warburton) और उनके कार्यों का उल्लेख होगा। मैं आपको दो विषयों की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ। पहला तो यह कि मिस्टर वारबुर्टोन यूरोप निवासी नहीं हैं। वह एशिया महाद्वीप के निवासी है। दूसरा यह कि उनकी अपने प्रान्त में छवि एक सम्मानित और उत्कृष्ट पुलिस अधिकारी की हैं। उनके विषय में एक पंजाबी लोकोक्ति भी प्रसिद्द है।
“वारबुर्टोन दा सुनदिया नाम चोर जवाहिरान सोग तमन ”
आपके अनेक देशवासी मिस्टर वारबुर्टोन का अत्यधिक सम्मान करते है। मैंने अपने एक मुल्तान स्थित मित्र से आपके द्वारा हरिद्वार में किये गए कार्य की प्रशंसा सुनी हैं। आपकी गुरुकुल कॉलेज की योजना बहुत उत्तम है और मेरे विचार से प्रशंसनीय भी हैं। मुल्तान छोड़ने से पहले मैं गुरुकुल डेरा बुद्दू गया था और मेरे पास उसकी प्रशंसा के अतिरिक्त कुछ शब्द नहीं हैं।
जहाँ तक पुलिस की छानबीन की बात है। मैं यह कहना चाहूंगा कि कुछ वर्ष पहले मैं जर्मनी के एक विशाल नगर में रहता था। मुझे वहां अपनी उपस्थिति की जानकारी पुलिस को देनी होती थी। ऐसे ही पेरिस में तीन वर्ष से कुछ अधिक रहते हुए भी पुलिस को अपने विषय में लिखित जानकारी देनी होती थी। भारत में व्यक्तिगत स्वतंत्रता यूरोप और अमेरिका की तुलना में बहुत अधिक प्राप्त है। मैंने भी आपको एक प्रबुद्ध नेता मानते हुए और आपके विचारों से प्रभावित होकर आपकी जानकारी लेनी चाही। जियो और जीने दो का श्रेष्ठ सिद्धांत है। आप एक सामाजिक और धार्मिक सुधारक है, जिन्हें मेरे जिले में कोई शिकायत का मौका अब नहीं मिलेगा। मैं आपको अपनी गतिविधियों की जानकारी देने के लिए धन्यवाद देता हूँ। हमें अपने कर्त्तव्य का निर्वाहन करना होता है। हम किसी की प्रसिद्धि से प्रभावित न होकर कार्य करते हैं और न ही किसी के अधिकारों का अनावश्यक अतिक्रमण करना चाहते हैं। हम समाज के हित में सभी कार्य करते है जो कभी कभी कुछ लोगों को कष्टप्रद लगते है।
आपके जैसे सुपठित व्यक्ति को सम्मान प्राप्त हो।
– जिला पुलिस अधिकारी
महात्मा मुंशी राम जी ने दिनांक 27 जून, 1910 को पुलिस अधिकारी को पत्र लिखा। महात्मा जी लिखते है-
मैं आपके उदार और नम्र प्रतिउत्तर देने के लिए धन्यवाद करता हूँ। मैं आपको ध्यान दिलाना चाहता हूँ कि मैं मिस्टर वारबुर्टोन से भली प्रकार से परिचित हूँ। मुझे उनसे वार्तालाप करने के लिए बहुत तैयारी करनी पड़ी थी। मैं यह समझता हूँ कि मैं उनकी खूबियों और कमियों, दोनों से परिचित हूँ। मैं सदा बिना किसी पक्षपात के संयम से उन जैसे व्यक्तियों की समालोचना करता हूँ। मैं आशा करता हूँ कि मैं अपनी इस मान्यता पर स्थिर रहूँगा। मैं गुरुकुल और मेरे विषय में आपकी द्वारा दी गई प्रतिक्रिया के लिए आपका आभारी हूँ। मैं आपके द्वारा पत्र के अंत में दी गई मलामत के लिए भी आपको धन्यवाद देता हूँ। मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि मेरा एक पुलिस अधिकारी को उनकी जाँच में हस्तक्षेप करना मतिहीनता कहलाएगी। व्यक्तिगत रूप से पुलिस जाँच से मेरे लिए कोई असुविधा नहीं होती मगर आर्यसमाज के स्थान और प्रतिष्ठा को देखते हुए एक कम महत्व के पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट के आधार पर उसे किसी भी प्रकार की विपत्ति को न्योता नहीं देना चाहता। मेरे पत्र लिखने का केवल यही कारण है और मैं आशा करता हूँ कि आप मेरे इस उद्देश्य को भली प्रकार से समझेंगे।
आपका विनीत
मुंशीराम जिज्ञासु
मुंशीराम जी ने पुलिस अधिकारी के साथ साथ लाहौर में डाक विभाग के मुख्याधिकारी को भी अपनी डाक से हो रही छेड़छाड़ को लेकर शिकायत दर्ज करवाई।
स्वामी जी डाक अधिकारी को लिखते है-
मैं धर्मशाला में 9 अप्रैल, 1910 को बदलाव के उद्देश्य से आया था। मैंने पाया की मैं जासूसों की निगरानी में हूँ। पहले 15 दिनों तक मेरी डाक से कोई छेड़छाड़ नहीं हुई थी। पर मैंने पाया की मेरी डाक से छेड़छाड़ की जा रही हैं। जब मैं धर्मशाला आया तो एक हिन्दू अधिकारी कोतवाली स्थित डाकघर का प्रभारी था जिसे मेरे आगमन के कुछ काल बाद ही एक मुसलमान अधिकारी से बदल दिया गया। मैं उस समय चुप रहा क्यूंकि तब तक यह मेरे लिए कोई असुविधा का कारण नहीं था। मगर अब जब मुझसे चुप रहना मुश्किल हो गया। तब मैं आपसे संपर्क कर यह शंका दर्ज करवा रहा हूँ।
1. मैं आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का सदस्य हूँ। सभा के मंत्री डॉ परमानन्द ने पत्र क्रमांक 722 दिनांक 27 जेठ (9 जून, 1910) को मुझे लिखा कि मुझे बैठक का निमंत्रण पिछले दिन भेजा जा चूका हैं। मुझे उनका लिखा पत्र 12 जून को मिल गया मगर बैठक का निमंत्रण अभी तक नहीं मिला।
2. 28 अप्रैल, 1910 को मैंने लंदन के अर्थव्यवस्था संस्थान से विवरण पत्रिका मंगवाई क्यूंकि एक युवक वहां पर प्रवेश के लिए इच्छुक था। 27 मई,1910 को सचिव ने मुझे लिखा कि आपको सभी सामग्री भेजी जा चुकी हैं। मुझे उनका पत्र 12 जून को प्राप्त हो गया जबकि वह सामग्री मुझे अभी तक नहीं मिली।
मैं आपसे विनती करता हूँ कि आप विभागीय जाँच कर यथोचित कार्यवाही करे।
आपका विनीत
मुंशीराम जिज्ञासु
डाक विभाग के अधिकारी ने 21 जून, 1910 को स्वामी जी को पत्र लिखकर सुचना दी कि हम विभागीय जाँच कर आपको उसकी सुचना देंगे।
23 जून, 1910 को उक्त अधिकारी को स्वामी जी ने पत्र लिखा। जिसमें लिखा था-
मैं आपको संज्ञान लेने के लिए धन्यवाद देना चाहता हूँ। मैं आपको सूचित करना चाहता हूँ कि लंदन से निकली डाक मुझे 10 दिन के पश्चात प्राप्त हो गई हैं। पैकेट लंदन के जिस संस्थान से था उस पर political science शब्द लिखा था। क्या इन्हीं शब्दों के कारण इस पैकेट को विभागीय जाँच के लिए रोका गया था। अथवा मैं लंदन से यह पता लगवाना चाहूंगा कि London School of Economics and Political Science जो लंदन के विश्वविद्यालय से मान्यता प्राप्त है में भारतीयों को प्रवेश अयोग्यता के अंतर्गत आता हैं। मुझे अभी तक लाहौर से निकली डाक प्राप्त नहीं हुई हैं।
मुझे जो डाक मिली है उस पर लंदन के डाकघर, धर्मशाला कैंट और कोतवाली बाजार तीन ही डाक विभाग की मोहर मुद्रित हैं।
[इस सारे प्रकरण से यह सिद्ध हुआ कि स्वामी जी की डाक को डाक विभाग द्वारा जाँच के लिए रोका जा रहा था।-लेखक]
महात्मा मुंशी राम जी की निर्भीकता उनके गुरुकुल के छात्रों में भी झलकती थी। धर्मशाला में हुआ एक ऐसा ही दृष्टान्त हम यहाँ पर देना चाहेंगे। गुरुकुल के ब्रह्मचारी महात्मा जी और डॉ सुखदेव के साथ धर्मशाला घूमने गए थे। वहां पर एक अंग्रेज अधिकारी ने उनके ऊपर ज्यादती करनी चाहे। अपने आत्मस्वाभिमान की रक्षा करते हुए उन्होंने उसे यथोचित उत्तर दिया। यह विस्मृत प्रसंग हमें उस काल में अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर किये जा रहे अत्याचारों की एक छोटी से झांकी प्रस्तुत करता हैं। उस काल के आर्यों का अत्याचारी शासक के सामने निडरता से खड़े होने का भी सन्देश भी देता हैं।
महात्मा मुंशी राम जी का एक लेख इस विषय पर प्रकाशित हुआ। उस लेख में धर्मशाला के अंग्रेज अधिकारी को लिखा पत्र इस प्रकार से था। –
माननीय श्रीमान
मैं 15 विद्यार्थियों के साथ धर्मशाला आया था। कल मेरे चिकित्सक डॉ सुखदेव और तीन छात्र हरिबोली में एक बेंच पर बैठे थे। तब एक काले घोड़े पर सवार अंग्रेज अधिकारी ने हिंदुस्तानी भाषा में उन्हें गलियां दी। उस अधिकारी का नाम अफ. दि. कब्बालड (F D Cobbald) है और वह गोरखा राइफल्स का अधिकारी है। यह सारा व्यक्य मुझे डॉ सुखदेव ने बताया जब मैं वापिस आया। ऐसा ही एक वाक्या डल झील से वापिस लौटते हुए हुआ। तब अंग्रेज अधिकारी ने एक छात्र की छाती पर घोड़े से चोट भी मार दी। वह भी उन्हें सलाम करने के लिए बाधित कर रहा था। गुरुकुल के छात्रों का यह पहला अवसर है जब उनका किसी अंग्रेज अधिकारी से पाला पड़ा है। अंग्रेज अधिकारीयों का व्यवहार उनके मस्तिष्क पर अच्छा प्रभाव नहीं डालेगा। किंग जॉर्ज की निष्ठावान प्रजा होने के नाते मैं इस व्यवहार से बहुत शर्मिंदा महसूस कर रहा हूँ। मैं एक शांतिप्रिय धार्मिक व्यक्ति हूँ जो सामन्य कष्टों पर कभी ध्यान तक नहीं देता। पर धर्मशाला में एक अधिकारी होने के नाते आपकी यह जिम्मेदारी बनती है कि आप अंग्रेज शासन की गरिमा की रक्षा करे। मैं आपसे आग्रह करता हूँ कि आप उक्त अंग्रेज अधिकारी के खेदजनक व्यवहार के लिए क्षमा दिलवाये। जो मेरे विचार से गलतफहमी के कारण हुआ। मैं आपको बार बार आग्रह करने के लिए क्षमा चाहूंगा।
आपका विनीत
मुंशीराम जिज्ञासु
स्वामी जी ने गोरखा राइफल के कमांडिंग अधिकारी को भी ऐसा ही पत्र लिखा। उक्त अधिकारी से स्वामी जी का पत्र व्यवहार हुआ। स्वामी जी को एक छात्र के बीमार होने के कारण वापिस गुरुकुल आना पड़ा। उन्होंने गुरुकुल से उक्त अधिकारी को पत्र लिखकर धर्मशाला छोड़ने की सुचना दी। उक्त अधिकारी ने अंत में क्या उत्तर दिया। यह अभी ज्ञात नहीं है। मुंशीराम जी ने पुरे दृष्टांत को वैदिक मैगज़ीन में अंग्रेजी में “The Gulf between the Rulers and the Ruled” शीर्षक से प्रकाशित किया। स्वामी जी का यह लेख इतिहास के विस्मृत हो चुकें हस्ताक्षर है, जो उनके निर्भीक व्यक्तित्व से हमें परिचित करवाते हैं।