उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने विधायकों की विकास निधि से विधायकों को 20 लाख तक की गाड़ी खरीदने तक की जो छूट दी थी, उस निर्णय की तीखी आलोचना के चलते उन्होंने अपना निर्णय वापस ले लिया है। मुख्यमंत्री ने अपना निर्णय वापस लेकर उचित और प्रशंसनीय कार्य किया है। इससे पूर्व वह प्रदेश के बाजारों और मॉल्स को 7 बजे बंद करने संबंधी अपनी सरकार के निर्णय को भी वापस ले चुके हैं। अखिलेश अपनी समझदारी और वैचारिक गंभीरता से लोगों को प्रभावित कर रहे हैं। उनसे प्रदेश की जनता को जो उम्मीदें थी उन उम्मीदों को युवा मुख्यमंत्री ने तोड़ा नहीं है, अपितु और बढ़ाया ही है। विधायक निधि से जो पैसा मिलता है, इसकी शुरूआत पी.वी नरसिंहाराव के समय में उस समय 1993 में हुई थी जब उन्हें अपनी सरकार को बचाने के लिए सांसदों की खरीद फरोख्त करनी पड़ रही थी और उन्हें सांसदों को खुश करने के लिए कुछ करने की आवश्यकता महसूस हो रही थी। तब उन्होंने सांसद निधि देने की प्रथा का प्रचलन किया था। बाद में राज्यों ने इस निधि को विधायक निधि के रूप में अपने-अपने यहां लागू किया। आज विधायक निधि के विषय में यदि देखा जाए तो इसका दुरूपयोग अधिक हो रहा है। अधिकांश विधायकों, सांसदों के बिचौलिये आपको उनके इर्द-गिर्द मिल जाएंगे, ये बिचौलिये आपको किसी विकास कार्य के लिए अपने आका से धन मुहैया करा सकते हैं। बस आपको इनसे उस मिलने वाली राशि से खुद कितनी लेनी है और कितनी इनके लिए छोडऩी है इस बात का सौदा करना खास बात होती है। आमतौर पर आपके लिए 60 प्रतिशत और इनके लिए 40 प्रतिशत का एक रेट इस समय मार्केट में है, यदि आप उसके अनुसार सहमत हैं, तो आपका काम बन गया समझो। जनप्रतिनिधियों को जो विकास निधि मिलती है उससे वह स्वयं और उनके गुर्गे खूब गुलछर्रे उड़ाते हैं, समाज का यह भी एक सच है लेकिन इन्हीं गुलछर्रेबाज जनप्रतिधिनियों में कुछ हमारे नितांत ईमानदारी जनप्रतिनिधि भी हैं। समस्या उनके लिए आती है कि वो क्या करें? जो गुलछर्रे उड़ा रहे हैं वो तो पब्लिक के पैसा से मौजू कर रहे हैं, पर जो ईमानदार हैं उन्हीं गाड़ी क्यों न दी जाए? आलोचना के स्वर इन ईमानदार जनप्रतिधियों के लिए कैसे रहेंगे, मुखर या शांत? या कुछ बोलेंगे? बदमाश अपनी बदमासी करते रहें और अगला चुनाव भी जनता के पैसे से जीतने का प्रबंध करते रहे तो कुछ बात नहीं, पर एक ईमानदार (जिसकी सबके तलाश रहती है) अपनी ईमानदारी के कारण चुनाव हो जाऐं तो उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। इसे हम व्यवस्था का दोष कहें या अपनी नजरों का धोखा। हम तराशे और तलाशे हुए हीरे को आखिर अपने हाथों से क्यों गंवा देते हैं। हमारी इस प्रवृति के कारण ही मैदान बेईमानों के हाथ में आ जाता है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को चाहिए कि वो ईमानदार प्रतिनिधियों के लिए दलीय भावना से ऊपर उठकर कोई ऐसा पारदर्शी, निर्णय लें, कि जिससे उन्हें राजनति करने और राजनीति में जमने का मौका मिले। देश की जिन्हें चाहत है, उनकी देश को भी चाहत होनीचाहिए। उन पर यदि कुछ अधिक खर्चे भी आते हैं, तो आने दें। वो उन चोरों से बेहतर हैं जो देश के माल को मोरी में फेंक रहे हैं। मुख्यमंत्री युवा हैं और युवा ही कुछ प्रचलित परंपराओं और कुप्रथाओं को बदलने की पहल किया करते हैं। उनके दोनों निर्णय पूर्णत: परिवर्तनीय नहीं थे, आवश्यकता निर्णयों की समीक्षा की है। विपक्ष ने समीक्षा के लिए कोई विकल्प न सुझाकर सिर्फ शोर मचाना ही अपना कत्र्तव्य समझा, जिसे कतई उचित नहीं माना जा सकता। प्रदेश में बिजली संकट है, यह सब मानते हैं, पर बाजार में 7 बजे बंद नहीं किये जा सकते, तो क्या इन्हें 8.30 से 9 बजे तक बंद न कर दिया जाए या मॉल्स में बिजली 8 बजे के बाद न दी जाए-ऐसे कुछ विकल्प क्या पेश नहीं किये जा सकते थे? मॉल्स की चिंता तो है पर किसान के धान की रोपाई की चिंता नहीं है, इसी प्रकार विधायक निधि के बारे में सोचा जा सकता था-सकारात्मक सोच ही राजनीति को शुचिता प्रदान करती है। अखिलेश अपनी सोच पर खरे हैं, पर वह गलत सलाहकारों से घिरे हैं, यह बात सच है।
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