8 जुलाई को चन्द्रशेखर जी को गए पांच साल हो गए। अगर होते तो 85 साल के हो गए होते। उनको लोग बहुत अच्छा संसदविद कहते हैं । वे संसद में थे इसलिए संसदविद भी थे लेकिन लेकिन सच्चाई यह है कि वे जहां भी रहे धमक के साथ रहे और कभी भी नक़ली जि़ंदगी नहीं जिया। चन्द्रशेखर जी को एक ऐसे इंसान के रूप में याद किये जाने की जरूरत है जो राजनेता भी थे नहीं, लेकिन वे सही अर्थ में स्टेट्समैन थे। वे दूरद्रष्टा थे और राष्ट्र और समाज के हित को सर्वोपरि मानते थे। वे संसदीय राजनीति के कुछ उन गिने चुने शिखर पुरुषों में शुमार हैं जिन्होंने हर लोकतातंत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए हर कीमत अदा की। आज चन्द्रशेखर की विरासत को संभालने वाला कोई नहीं है क्योंकि उनकी राजनीति को आगे ले जाने वाली कोई पार्टी ही कहीं नहीं है । जिस पार्टी को उन्होंने अपनी बनाया था उसके वे आखिऱी कार्यकर्ता साबित हुए। पचास के दशक में आचार्य नरेंद्रदेव के सान्निध्य में उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की राजनीति में हिस्सा लेना शुरू किया लेकिन 1964 आते आते उनको लग गया कि उनकी और आचार्य जी की राजनीति की सबसे बड़ी वाहक जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस पार्टी ही रह गयी थी। शायद इसीलिये उन्होंने अपनी पार्टी के एक अन्य बड़े नेता, अशोक मेहता के साथ कांग्रेस की सदस्यता ले ली। लेकिन उनका और शायद देश के दुर्भाग्य था कि उसके बाद ही से कांग्रेस में जो राजनीतिक शक्तियां उभरने लगीं, वे पूंजीवादी राजनीति को समर्थन करने वाली थीं। कांग्रेसी सिंडिकेट ने कांग्रेस की राजनीति को पूरी तरह से काबू में कर लिया। सिंडिकेट से इंदिरा गाँधी ने बगावत तो किया लेकिन वह पुत्रमोह में फंस गयीं और उन्होंने ने भी तानाशाही का रास्ता अपना लिया। नतीजा यह हुआ कि चन्द्र शेखर जी को जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में चल रहे तानाशाही विरोधी आन्दोलन का साथ देना पड़ा। यह भी अजीब इत्तेफाक है कि जिस साम्प्रदायिक राजनीति का चन्द्रशेखर जी ने हमेशा ही विरोध किया था, उसी राजनीति के पोषक लोग जेपी के आन्दोलन में चौधरी बने बैठे थे। हालांकि समाजवादी लोग सबसे आगे आगे नजऱ आते थे लेकिन सबको मालूम था कि गुजरात से लेकर बिहार तक आर एस एस वाले ही वहां हालत को कंट्रोल कर रहे थे। बाद में जो सरकार बनी उसमें भी आर एस एस की सहायक पार्टी जनसंघ वाले ही हावी थे। चन्द्रशेखर और मधु लिमये ने आरएसएस को एक राजनीतिक पार्टी बताया और कोशिश की कि जनता पार्टी के सदस्य किसी और पार्टी के सदस्य न रहें। लेकिन आर एस एस ने जनता पार्टी ही तोड़ दी और अलग भारतीय जनता पार्टी बना ली। लेकिन चन्द्र शेखर ने अपने उसूलों से कभी समझौता नहीं किया उनके जाने के पांच साल बाद यह साफ़ समझ में आता है कि उनकी विरासत को जिंदा रखने के लिए किसी संस्था की ज़रुरत नहीं है । उनकी जि़ंदगी ही एक ऐसी संस्था का रूप ले चुकी थी जिसमें बहुत सारी सकारात्मक शक्तियां एकजुट हो गयी थीं।उनकी जि़ंदगी ने देश की राजनीति को हर मुकाम पर प्रभावित किया। इंदिरा गाँधी ने जब सिंडिकेट के चंगुल से निकल कर राष्ट्र की संपत्ति को जनता की हिफाज़त में रखने के लिए बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तो चन्द्रशेखर ने उनको पूरा समर्थन दिया और सिंडिकेट वालों के लिए राजनीतिक मुश्किल पैदा की। लेकिन वही इंदिरा गाँधी जब पुत्रमोह में तानाशाही और गैर जि़म्मेदार राजनीतिक परंपरा की स्थापना करने लगीं तो चन्द्रशेखर ने उनको चेतावनी दी और बाद में तानाशाही प्रवृत्तियों को ख़त्म करने के आन्दोलन में अग्रणी भूमिका निभाई।
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