अहसान मानें उनका जो उपस्थित थे, उपस्थित रहे

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  • डॉ. दीपक आचार्य

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इसे महत्त्वाकांक्षा, नाम छपास की भूख, लोकप्रियता की चाह, अपने अस्तित्व के सार्वजनीन प्राकट्य की सनक या अहंकार का मकड़जाल कुछ भी कह लेंकिन वर्तमान युग की यह सर्वाधिक प्रचलित और व्यापक परम्परा हो चली है जो किसी महामारी से कम नहीं बल्कि इसे महानतम और अद्वितीय महामारी की संज्ञा दी जा सकती है।

समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाले अधिकांश समाचारों में खूब सारे पेरेग्राफ ऐसे होते हैं जिनमें ढेरों नामों की लम्बी सूची होती है जिसके अन्त में लिखा होता है उपस्थित रहे/उपस्थित थे। और आए दिन ऐसे समाचार भी बहुतायत में होते हैं जिनमें केवल नामों ही नामों की भरमार रहती है, समाचार तत्व इनमें गौण रहता है।

इस किस्म के समाचारों को पढ़कर ऐसा लगता है कि ये केवल नाम सूची से रूबरू कराने के लिए ही हैं, इनका और कोई उद्देश्य या मर्म निकाला नहीं जा सकता। कोई सा समारोह, कार्यक्रम, बैठक या आयोजन हो, इनसे जुड़े समाचारों का अधिकांश हिस्सा उपस्थित रहने वाले लोगों के नाम ही खा जाते हैं और ऐसे में कई बार यह होता है कि नामों की पूरी सूची तो आ जाती है किन्तु मूल समाचार तत्व ढूंढे़ नहीं मिलता, ब्रेकिंग न्यूज की तरह समाचार की छोटी सी झलक ही देखने को मिल पाती है।

समाचारों में आयोजन से जुड़े निर्णयों, विशिष्टजनों के वक्तव्यों, मूल उद्देश्यों और संदेशों से संबंधित जानकारी अथवा सूचनाओं का समावेश होना चाहिए लेकिन देखा यह गया है कि इसमें इन मूल तत्वों की बजाय उन लोगों के नाम अधिकांश संख्या में अंकित होते हैं जिनकी आयोजन में श्रोताओं अथवा सामान्य संभागियों से अधिक भूमिका नहीं हुआ करती और न इनका आयोजन से कोई सीधा संबंध होता है।

आजकल लगभग हर प्रकार के आयोजन में भाग लेने वालों में खूब सारी संख्या में ऐसे लोग होते हैं जिनका दुराग्रह होता है कि इन आयोजनों से संबंधित समाचारों में उनकी उपस्थिति दर्शायी जाए।

आयोजकों से लेकर कवरेज करने वाले व्यक्तियों तक के लिए आजकल यह सबसे बड़ा संकट है कि किसके नाम लिखें, किसके न लिखें, और कितनों के नाम लिखें।

हर कोई चाहता है कि उसका नाम ’उपस्थित रहे’ वाले पेरेग्राफ में आना ही चाहिए, चाहे उसकी कोई भूमिका न हो। मतलब ये कि ये दुराग्रही और अहंकारी लोग अपने आपको इलाके का वीआईपी या वीवीआईपी समझते हैं और इनका स्पष्ट मानना है कि उनकी उपस्थिति से ही आयोजन सफलता पाता है तथा आयोजन में उनकी निष्क्रिय भागीदारी अथवा उनकी प्रत्यक्ष देह की पावन मौजूदगी के कारण ही आयोजन गरिमामय हो पाता है अन्यथा नहीं।

खाली पीपों की तरह बजकर अपने वजूद को सिद्ध करने के आदी ये लोग समाचारों में अपनी उपस्थिति को लेकर बेहद चिन्तित और आशंकित रहते हैं। कितना ही अच्छा और प्रभावी समाचार हो, उपस्थिति वाले पेरे में शामिल लोगों के नामों की भारी भीड़ पूरे समाचार का ऐसा कबाड़ा कर डालती है कि कुछ कहा नहीं जा सकता।

उपस्थिति मात्र दर्शाने के लिए समाचारों में जगह पाने के भूखे और प्यासे लोगों की जिद और बाद की परवर्ती प्रतिक्रियाओं से हैरान-परेशान और त्रस्त आयोजकों का इस बारे में अनुभव इतना अधिक कड़वा होता है कि इसे शब्दों में बयाँ करना भी पीड़ादायक लगता है।

और बात केवल समाचारों में उपस्थिति दर्शाने की ही नहीं बल्कि तस्वीरों में आने और दिखने-दिखाने का उतावलापन भी हदें पार कर देता है। इस मामले में भी छपासरोगियों की सुरसाई भूख और प्यास का कोई सानी नहीं।

‘उपस्थित रहे’ वाले पैरे में शामिल होने को उत्सुक, उतावले एवं आतुर लोगों की भीड़ लगातार विस्फोटक होती जा रही है। सरकारी क्षेत्र हो या गैर सरकारी, सब तरफ इन महान और गरिमामय उपस्थिति प्रदान करने वालों का प्रतिशत लगातार उछाले मारता जा रहा है। ‘उपस्थित रहे’ इस पेरे में नाम न आए तो फिर देखें कि अंजाम कितना बुरा होता है।

नाम न आए तो ऐसे शिकायती और आत्मक्लेषी, सदा असन्तुष्ट-अतृप्त लोग एकतरफा भ्रम और आशंका के साथ ऐसी दुश्मनी पाल लेते हैं जैसे कि इनके बाप-दादाओं की जमीन-जायदाद पर ही कब्जा कर लिया हो या इनका माल डकार गए हों।

नाम नहीं छपने पर ऐसे लोगों में डिप्रेशन और उन्माद अक्सर देखा जाने लगा है। देश का कोई कोना ऐसा नहीं बचा होगा, जहाँ इस तरह की स्थिति न दिखाई दी हो। हर इलाके में कुछ न कुछ लोग तो ऐसे होते ही हैं जिनका नाम हर बार किसी न किसी आयोजन से जुड़े समाचारों में अंकित होता ही होता है।

और खूब सारे ऐसे हैं जिनकी तस्वीर छपे बिना समाचार का पूर्ण या पठनीय नहीं माना जा सकता। नाम और तस्वीरों के इन भूखे-प्यासों के दुराग्रह और ऐषणाओं का खामियाजा उन लोगों को उठाना पड़ता है जिनकी आयोजनों में सक्रिय भागीदारी रहा करती है।

इस निष्क्रिय और छपास रोगी भीड़ की वजह से समाचारों में उनके साथ न्याय नहीं हो पाता और न ही समाचार का मूल मर्म पाठकों तक पहुंच पाता है। ये नाम पिपासु न किसी पद पर होते हैं, न समाज में इनका कोई योगदान। फिर भी समाजसेवी, प्रबुद्धजन, सामाजिक कार्यकर्ता और गणमान्यजन के रूप में छा जाने की पिपासा का ज्वार हर क्षण उमड़ता रहता है।

इन नाम पिपासुओं में नेताओं से लेकर धंधेबाज, अपराधी, समाजसेवी, बाबा लोग और हर किस्म के लोग शामिल रहा करते हैं। प्रिन्ट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ ही अब सोशल मीडिया पर भी इनकी जबरिया मौजूदगी दिखने लगी है।

इस ज्वलन्त समस्या का कोई न कोई समाधान तलाशने के लिए सभी क्षेत्रों के लोगों को कुछ न कुछ करते हुए मर्यादाओं की सीमा रेखाएं खींचकर दायरों को तय करना होगा अन्यथा यह और अधिक विकराल स्वरूप धारण कर सकती है।

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