हिन्दू धर्म में एक ईश्वर के अतिरिक्त वृक्ष आदि की पूजा, भाग -3
डॉ डी के गर्ग
पूजा क्या है ? जन सामान्य की दृष्टि से पूजा किसे कहते हैं ?
जन सामान्य की दृष्टि में पूजा का तात्पर्य तो केवल इतना मात्र है कि किसी मूर्ति के आगे सिर झुका देना, अगरबत्ती या धूप जला देना, अधिक से अधिक शंख, घंटा आदि बजाकर आरती कर लेना देव पूजा है। पूजा पाषाण की मूर्ति की भी होती है , पेड़ पौधों को कलावा बांधकर,मशीन ,घर के सामने नीबू और काला धागा बांधना पूजा का हिस्सा है ? घर में बने मंदिर में १०-१२ तस्वीरों के सामने घंटी बजायी ,अगरबत्ती जलाई और बस पूजा हो गयी।
अब आप विचार करें कि क्या मन्दिर, गुरुद्धारा, मस्जिद तथा चर्च में की जानेवाली तथाकथित पूजा से क्या वायु, जल एवं अन्न की शुद्धता के लिए कोई प्रयत्न होता है, जबकि वर्त्तमान में तो यत्र-तत्र सर्वत्र दूषित पर्यावरण पर अनेक देश क्या सारा विश्व ही चिन्तित है। तो इन तथाकथित पूजाओं से हमें क्या लाभ मिल रहा है, यह चिन्तनीय है। निस्सन्देह यह पूजा नहीं, सच्ची देव पूजा नहीं है।
ईश्वर के अतिरिक्त जड़ और चेतन की पूजा क्या है?
ये पूजा देव पूजा कहलाती है ।वास्तविक देव पूजा क्या है?
देव पूजा शब्द में से पहले देव किसे कहते हैं ?
निरुक्त (७/१५) में वर्णित -‘देवो दानाद् व दीपनाद् वा द्युस्थानों भवतीतिवा’
जड़ देव वह हैं जो देता है, बदले में कुछ चाहता नहीं हैं। सूर्य देवता, वायु देवता, वृक्ष देवता, पृथिवी देवता आदि जड़ देव जीवन देते हैं, बदले में कुछ नहीं चाहते हैं।
चेतन देवों में माता, पिता, आचार्य, अतिथि, सन्त आदि आते है तथा समस्त देवों का देव परमपिता परमेश्वर है। ये सभी अर्थात् यथोचित व्यवहार, सम्मान, सुरक्षा द्वारा अधिक कल्याण, ग्रहण करना चाहते हैं। इस प्रकार चेतन देवों की तो हम पूजा करते रहते हैं, सम्मान करते रहते हैं, कुछ मूर्खतावश बाबाओं और धर्मगुरुओं की आरती उतारते है,तसवीर पूजते है ये अधर्म है।
जड़ की पूजा कैसे की जाये?
इस प्रश्न के समाधान से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि ये जड़ देवता हमारा क्या और कैसे कल्याण करते हैं?
हम जानते है कि बिना वायु, जल एवं अन्न के हमारा जीवन चलता नहीं है। यदि हम दूषित जल, अन्न ग्रहण करेंगे तो अस्वस्थ होंगे। आनेवाली सन्तान लूली, लंगड़ी विक्षिप्त आदि रोगों से युक्त होगी। इसका कारण हम मनुष्य ही हैं, और हमारी मात्र भौतिक उन्नति है। निश्चय से मन्दिरों में आरती करने से ये तीनों लोक, यह पर्यावरण शुद्ध नही होगा और संसार की कोई पूजा पद्धति इन्हें शुद्ध, स्वस्थ करने में सक्षम नहीं है। इसीलिए हमारे दूरदर्शी महान् वैज्ञानिक ऋषियों, महर्षियों ने ‘यज्ञ’ की पावन पद्धति का आविष्कार किया था तथा यज्ञ को ही ‘देवपूजा’ कहा।
यज्ञ ही देव पूजा है:
यज्ञ देवपूजा कैसे? यह तो स्वीकार है कि इन जड़ देवों के शुद्ध होने से हमारा जीवन स्वस्थ्य एवं सुखमय होता है। वायु, जल, अन्न जीवन के लिए आवश्यक तत्व हैं। इनकी पूजा हम कैसे करें, बात बड़ी उलझन की है।
थोड़ा विचार करें तो हमारे शास्त्रों ने सारे रहस्य स्पष्ट कर दिये हैं। जैसे हम अन्न जल से भोजन द्वारा अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं तो क्या क्या अन्न को उनके शरीर में मलने से, सिर पर डाल देने मात्र से उन्हें अन्न जीवन प्रदान करेगा, उनकी तृप्ति होगी? उत्तर है ,बिलकुल नहीं, उनकी तृप्ति मुख द्वारा भोजन ग्रहण करने से होती है। इस प्रकार चेतन देवों का जीवन मुख द्वारा अन्न जलादि ग्रहण करने से चलता है। क्योंकि अन्न सूक्ष्म होकर उदर में जाता है,फिर पेट के यन्त्र उसे और सूक्ष्म करके सारे शरीर को ऊर्जा प्रदान करते हैं।
इस आधार पर जड़ देवों की पूजा के लिए, उन्हें तृप्त करने के लिए उनके मुख में भोजन जाना चाहिए। प्रश्न ये है की उनका मुख क्या है, क्या हो सकता है जो इन्हें सूक्ष्म भोजन के रूप में ग्रहण कराकर ऊर्जा प्रदान करें, इन्हें जीवनी शक्ति से युक्त रख सके?
शतपथ ब्राह्मण में लिखा है-‘अग्निर्वै मुखं देवानाम्’
इन जड़ देवों का मुख अग्नि है, क्योंकि अग्नि में डाले हुए पदार्थ, पदार्थ विज्ञान के अनुसार नष्ट नहीं होते हैं अपितु रूपान्तरित होकर, सूक्ष्म होकर शक्तिशाली बनते हैं। सूक्ष्म होकर अन्तरिक्ष में वायु के माध्यम से फैलते हैं, व्यापक हो जाते हैं। सभी को जीवन-शक्ति से संयुक्त कर देते हैं। अन्तरिक्ष में, द्युलोक में, व्याप्त पर्यावरण को शुद्ध करने में सक्षम हो जाते हैं।
तभी-‘अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः’(यजु 23/62)
इस यज्ञ को भुवन की नाभि कहा है, जो पदार्थ अग्नि में डालते हैं, वे सूक्ष्म होकर वायु के माध्यम से ऊर्जस्वित होकर, शक्ति सम्पन्न होकर द्युलोक तक पहुँचते हैं। मनु महाराज ने स्पष्ट लिखा है-
अग्नौ प्रास्ताहुतिः… प्रजाः।-मनु. ३/ ७६
अर्थात् अग्नि में अच्छी प्रकार डाली गयी पदार्थों (घृत आदि) की आहुति सूर्य को प्राप्त होती है-सूर्य की किरणों से वातावरण में मिलकर अपना प्रभाव डालती है, फिर सूर्य से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न पैदा होता है, उससे प्रजाओं का पालन-पोषण होता है। गीता में वर्णित है-
अन्नाद् भवन्ति…कर्मसमुद्भवः।-गीता ३/१४
अर्थात् अन्न से प्राणी, वर्षा से अन्न, देवयज्ञ से वर्षा तथा देवयज्ञ तो हमारे कर्मों के करने से ही सम्पन्न होगा।
स्पष्ट है की यज्ञ ही जड़ पदार्थ की पूजा है।और निश्चय से देवयज्ञ ही वह साधन है जिस के द्वारा हम यथोचित रुप में चेतन देवों का सम्मान करते हैं तथा जड़ देवों की भी पूजा अर्थात् यथोचित व्यवहार द्वारा इन्हें दूषित नहीं होने देते हैं। अग्नि में डाले गये पदार्थ सूक्ष्म होकर वृक्ष देवता, वायु देवता, पृथिवी देवता, सूर्य देवता, चन्द्र देवता आदि सभी लाभकारी देवों को शुद्ध, स्वस्थ, पवित्र रखते हैं, और ये देव हमें स्वस्थ एवं सुखी बनाते हैं।
यज्ञ का जीवन में अत्यन्त महत्त्व है। यही सच्ची देवपूजा है। इसीलिए महाभारत काल पर्यन्त यज्ञ का ही विधान प्राप्त होता है। किसी मूर्तिपूजा आदि का विधान नहीं मिलता
क्योंकि यज्ञ के अतिरिक्त अन्य किसी पूजा पद्धति से जल-वायु आदि शुद्ध नही होगा। अतः सच्चे अर्थों में यज्ञ ही देवपूजा है ।
, सच्ची देवपूजा है। प्रतिदिन दैनिक यज्ञ करके इस देवपूजा को सम्पन्न करना हमारा नैतिक कर्तव्य है।
मन्दिरो में जाकर या घर पर देंवी-देवताओं की जड़ मूर्ति स्थापित करना उनके ऊपर पुष्प, फल, नैवेद्य आदि अर्पित करते हुए उनकी पूजा करना अवैदिक है।इसी तरह पीपल आदि वृक्षों की आरती करना ,धागा बांधना,पीतल की गौ पूजन ,किसी व्यक्ति की तस्वीर पूजना भी ईश्वर की वास्तविक उपासना से दूर अज्ञान के मार्ग पर भटकना है। अतः जड़ वस्तुओं की पूजा कभी भी नहीं करनी चाहिए।
परमात्मा कैसा है? जो एक ही है ,जिसकी उपासना करे,आइये परमात्मा से जानें!
यजुर्वेद ४०/८ में एक मंत्र आता है:
स पर्यगात् शुक्रम् अकायम् अव्रणम् अस्नाविरम् शुद्धम् अपापविद्धम् । कवि: मनीषी परिभू: स्वयंभू: याथातथ्यतो अर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्य: समाभ्य:।।
अर्थ –
परमात्मा सब जगह पहुंचा हूआ है अर्थात् सर्वव्यापी है, शीघ्रकारी सर्वशक्तिमान है, अकायम् – कायारहित बिना शरीर का है, इसलिए छिद्र छेद रहित है ( मानव शरीर नौ छेदों वाला है ईश्वर शरीर रहित होने से छिद्र रहित है) नसनाडी के बंधन से रहित है, अविद्या आदि दोषों से मुक्त है, वह पापों से मुक्त पापों से रहित है पापकारी नहीं है, सर्वज्ञ है, सब जीवों की मनोवृत्तियों का जानने वाला अन्तर्यामी है, दुष्ट पापियों का तिरस्कार दंड देने वाला है, स्वयंभू है जिसका माता पिता से उत्पत्ति गर्भवास जन्म वृद्धि और मरण नहीं होता वह परमात्मा सनातन प्रजाओं के लिए यथार्थ भाव से सब पदार्थों को विशेषकर बनाता है।
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