इसके सम्बन्ध में वेद उपदेश करते हैं कि-
शिवे ते स्तां द्यावापृथिवो असन्तापे अभिथियो ।
शं ते सूर्य आ तपतु शं वातो वातु ते ह्रदे ।
शिवा अभि क्षरन्तु त्वापो दिव्याः पयस्वतीः ।।14।।
शिवास्ते सन्त्वोषधय उत् त्वाहार्थमधरस्या उत्तरां पृथिवीमभि ।
तत्र त्वादित्यों रक्षतां सूर्याचन्द्रमसावुभा ।। 15।। (अथर्व०8/2)
अर्थात हे बालक ! तेरे लिए यह द्यौ और पृथिवीलोक दुःख न देनेवाले, कल्याणकारी और शोभा तथा ऐश्वर्य को देनेवाले हों। यह सूर्य तेरे लिये प्रकाश का देनेवाला हो, वायु तेरे हृदय को शान्त करनेवाला हो और जल तेरे लिए सुन्दर स्वादवाला हो कर बहे। तुझे भीतर से बाहर इसीलिए लाया हूँ कि तेरे लिए औषधियाँ कल्याणकारी हों और सूर्यचन्द्र दोनों तेरी रक्षा करें। इन मन्त्रों में निष्क्रमण के दो मतलब बतलाये गये हैं। एक तो बालक को पदार्थों का परिचय कराना। दूसरा शीतोष्ण सहन करने का अभ्यास कराना। इसलिए यह संस्कार आवश्यक समझा जाता है । इसके आगे अन्नप्राशन है। इस संस्कार के द्वारा पदार्थों के स्वाद का ज्ञान कराना और हानिकारक पदार्थों के तिरस्कार का संस्कार जमाना है। इसके सम्बन्ध में वेद उपदेश करते हैं कि-
अन्नपतेऽन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः ।
प्रप्र दातारं तारिष ऊर्ज नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे ।। (यजु०11/83)
अर्थात हे अन्न के स्वामी परमात्मन् ! आप हमारे लिए, हमारे पशुओं के लिए और अन्य मनुष्यों के लिए रोगरहित और बलकारक अन्न को दीजिए और उसी को बढ़ाइये। इस प्रार्थना का यही मतलब है कि हम रोगरहित, बलकारक अन्नों का ही सेवन करें और उसी प्रकार के अन्नसेवन के संस्कार बालकपन से ही सन्तति में डालने का प्रयत्न करें। इस संस्कार के आगे मुण्डनसंस्कार है। वेद में उसके लिए इस प्रकार आज्ञा है कि-
येनावपत्सविता क्षुरेण सोमस्य राज्ञो वरुणस्य विद्वान् ।
तेन ब्रह्माणो वपतेदमस्य गोमानश्ववानयमस्तु प्रजावान् ।। (अथर्व०6/68/3)
अर्थात् जिस प्रकार छुरे से सोम और वरुण का क्षौर सविता विद्वान् करता है, उसी तरह ब्राह्मण को चाहिये कि वह इस बालक का मुण्डन करे जिससे यह बालक धनवान् और प्रजावान् हो । यहाँ बालक की हजामत का तरीका बतलाया गया है कि जिस प्रकार सोम अर्थात् जलतत्व पर सूर्य अर्थात् अग्नितत्व अपना संचार करता है, उसी तरह बालक की ठंडी खोपड़ी पर गर्म जल डालकर हजामत की जाय। यह मुण्डनसंस्कार गर्भ के अपवित्र वालों को काटने के लिये किया जाता है, जिससे शुद्धता आवे और आरोग्यता बढ़े। इस संस्कार के आगे करणवेधसंस्कार की आवश्यकता बतलाई गई है । कर्णवेध से अण्डवृद्धि की बीमारी नहीं होती और इसी से आरोग्यता के लिए सुवर्ण पहिनने का काम भी निकल जाता है। वेद उपदेश करते हैं कि-
लोहितेन स्वधितिना मिथुनं कर्णयोः कृधि ।
अकर्तामश्विना लक्ष्य तदस्तु प्रजया बहु । (अथर्व०6/141/2)
अर्थात् दोनों कानों में अश्विन देवताओं ने पहिले ही चिह्न किया है, उसी चिह्न पर लोहे के शस्त्र से है वैद्यो !! बहुत सी प्रजा के देनेवाले छिद्र को कीजिये । इस छिद्र को सुश्रुत में ‘देवकृते छिद्रे’ लिखा हुआ है । कानों में तीन नसों के बीच में जो स्थान है, वही देवछिद्र है। उसी के छेदन करने से और उसमें सुवर्ण पहिनने से अण्डवृद्धि नहीं होती और अण्डदोष न होने से ही संतान होती है। इसीलिए यह संस्कार आवश्यक है। ये दोनों मुण्डन और कर्णवेधसंस्कार बालक में आरोग्यरक्षा के संस्कारों का प्रभाव डालना शुरू करते हैं। इस तरह से इन छोटे बड़े किन्तु महत्वपूर्ण संस्कारों के बाद उपनयनसंस्कार होता है।
क्रमशः