इक़बाल हिंदुस्तानी
इतिहास के जानकार बताते हैं कि फ्रांस की महारानी मेरी एंटोनी ने भूख से परेशान लोगों द्वारा एक बार बगावत से पहले राजमहल घेर लेने पर आश्चर्य के साथ लोगों से यह सवाल पूछा था कि अगर रोटी नहीं मिल रही तो क्या हुआ वे केक क्यों नहीं खाते? इसी तरह का मासूम दिखने वाला क्रूर सवाल हमारे केंद्रीय गृहमंत्री चिदंबरम साहब ने लोगों से पूछा है कि जब वे 15 रू. की पानी की बोतल और 20 रू. का आइसक्रीम का कोन खा सकते हैं तो उनको गेंहूं चावल के दाम में एक रू. की मामूली बढ़ोत्तरी होने पर इतनी तकलीफ क्यों होती है? चिदंबरम पहले लंबे समय तक हमारे देश के वित्त मंत्री भी रह चुके हैं। हमें इस बात पर आश्चर्य होता है कि देश के केंद्रीय मंत्री चिदंबरम जैसे ऐसा आदमी बने हुए हैं जिनको देशवासियों की असली हालत का ही पता नहीं है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की सर्वे रिपोर्ट में आय और व्यय को लेकर किये गये सरकारी सर्वेक्षण में एक और चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है। 60 फीसदी ग्रामीण जहां 35 रू. रोज में गुजर बसर कर रहे हैं वहीं इतने ही शहरी 66 रू. रोज़ में जीवन यापन कर रहे हैं। संगठन के महानिदेशक जे दास ने बताया जुलाई 2009 और जून 2010 के दौरान हुए 66 वें सर्वेक्षण के मुताबिक अखिल भारतीय औसत मासिक प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय का स्तर ग्रामीण इलाकों में 1054 रू. और नगरीय क्षेत्रों में 1984 रू. रहा है। सर्वे में यह भी कहा गया है कि ग्रामीण इलाके में सबसे निचले पायदान पर 10 फीसदी आबादी ऐसी भी है जो मात्र 15 रू. रोज़ और शहरी इलाके में यह आंकड़ा 20 रू. रोज़ का है। ग्रामीण क्षेत्र के हिसाब से देखें तो यह आंकड़ा सबसे कम बिहार और छत्तीसगढ़ में 780 और उड़ीसा और झारखंड में 820 रू. मासिक रहा है। दूसरी तरफ सबसे अधिक आय वाले राज्यों में केरल 1835 रू. और पंजाब और हरियाणा क्रमश: 1649 रू. और 1510 रू. रहा है। शहरी क्षेत्र के अनुसार महाराष्ट्र 2437 रू. के साथ सबसे आगे जबकि केरल 2413 रू. और हरियाणा 2321 रू. के साथ दूसरे तीसरे स्थान पर रहे हैं। इस मामले में बिहार सबसे कम यानी 1238 रू. रहा है। चिदंबरम को याद दिलाना पड़ेगा कि उनकी ही सरकार द्वारा नियुक्त अर्जुनसेन गुप्ता के नेतृत्व में गठित आयोग ने रिपोर्ट दी थी कि इस देश के 77 प्रतिशत लोग 20 रू. से कम में गुज़ारा करते हैं। अब चिदंबरम खुद ही बतायें कि जिस देश की तीन चौथाई आबादी 20 रू. प्रतिदिन से कम राशि में अपनी गुजऱ बसर करती हो वहां कोई मामूली आदमी 15 रू. की मिनरल वाटर की बोतल और 20 रू. की आइसक्रीम कोन कैसे खऱीद सकता है। जहां तक उन्होंने मीडियम क्लास मानसिकता की दुहाई दी है तो मीडियम क्लास में भी निम्न, मध्यम और उच्च मीडियम क्लास आता है चिदंबरम कौन से क्लास की बात कर रहे हैं? चिदंबरम साहब अगर कभी समय मिले तो अपना भेस बदलकर उस मध्यम वर्ग के किसी परिवार में जा कर देखिये जहां बच्चे अपने मांबाप से अकसर यह जि़द करते रहते हैं कि उनको भी कभी 20 रू. वाली आइसक्रीम खऱीद कर खिलाई जाये लेकिन वे अपने बच्चो को ठेले पर बिकने वाली चीनी की जगह सेक्रीन और मलाई की जगह बची खुची ब्रेड से बनी सेहत की दुश्मन दो रू. वाली आइसक्रीम दिलाने को मजबूर होते हैं।
माना एक तबका मीडियम क्लास में ऐसा भी हो सकता है जो कभी त्यौहार या शादी के मौके पर मिनरल वाटर और आइसक्रीम कोन भी खऱीद ले लेकिन क्या यह संभव है कि यह मुट्ठीभर तबका भी रोज़ यह शगल अंजाम दे सके? इसके बरअक्स गेंहू और चावल के दाम एक रू. भी बढऩे पर वह इसलिये चिल्लाता है क्योंकि उसको वह बढ़ी हुयी रकम रोज़ ख़र्च करनी होगी। चिदंबरम जी कभी हिसाब जोड़ा है कि अगर मात्र एक रू. आटे चावल के दाम में प्रति किलो बढ़ता है तो गरीब आदमी को महीने में कितने रू. फालतू ख़र्च करने होते हैं? चाहे मज़दूर असंगठित क्षेत्र का हो या उत्पादन से जुड़ी इकाइयों का उसको आपकी सरकार ने ठेका प्रथा के रहमो करम पर छोड़ दिया है। ऐसे ही करोड़ों रिक्शा और ठेले वाले अपनी भरपूर मेहनत के बावजूद अपने परिवार का पेट नहीं पाल सकते तो ऐसे में अगर उसकी दो जून की रोटी को और महंगा कर दिया जायेगा तो वह शोर नहीं मचायेगा तो क्या करेगा?
चिदंबरम साहब यह भी कोरा झूठ बोल रहे हैं कि किसानों को उनकी उपज का वाजिब मूल्य देने के लिये गेंहू चावल के दाम में कुछ इज़ाफा करना ही पड़ता है। पहली बात तो सरकार को किसानों को सब्सिडी देकर इसकी भरपाई करनी चाहिये क्योंकि यूपीए सरकार की आक़ा अमेरिकी सरकार भी अपने देश के किसानों को इसी तरह की मदद देती है। दूसरी बात यह है कि हमारी सरकार तो अपने किसानों से सस्ते में अनाज खऱीदती है और उसको गोदाम में जगह ना होने पर उससे कम रेट पर विदेशों को निर्यात कर देती है। इसके बाद देश में अनाज की कमी होने पर फिर उन्हीं देशों से उसी अनाज को महंगे दामों पर वापस खऱीद लेती है। सरकार चाहती तो यही काम अपने देश के किसानों को अधिक समर्थन मूल्य देकर भी इस सारी कवायद को अंजाम दे सकती थी लेकिन जाहिर बात है कि ऐसा सरकार जानबूझकर नहीं करती क्योंकि इससे उसके मंत्रियों का भारी भरकम कमीशन मारा जायेगा।
सरकार राइट टू फूड का ढिंढोरा काफी समय से पीट रही है लेकिन वह आज तक दो रू. किलो की दर पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिये 35 किलो मोटा अनाज सभी परिवारों को देने को तैयार नहीं है। अगर सरकार ऐसा करती है तो किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य चाहे जितना भी बढ़ाकर वह दे सकती है। जहां तक संसाधनों और अनाज की मात्रा का सवाल है उसकी हालत यह है कि हमारे देश में अनाज रखने के लिये गोदाम तक नहीं बचे हैं और करोड़ों टन अनाज खुले में पड़ा सड़ रहा है। इसके लिये हमारी बेशर्म और ढीट सरकार को बार बार सुप्रीम कोर्ट द्वारा लताडऩे और फालतू अनाज गरीब और भूखे लोगों में बांटने के आदेश के बावजूद कान पर जूं तक नहीं रेंगती। आरोप यहां तक है कि हमारी सरकार जानबूझकर पहले अनाज को खुले में बरसात के मौसम में सडऩे को छाड़ देती है और उसके बाद इस अनाज को शराब कारोबारियों को औने पौने दाम में बेचकर नाजायज़ लाभ पहुंचाती है। इससे पहले योजना आयोग 35 लाख की लागत से विदेशी मेहमानों के लिये टॉयलेट बनवाकर अपनी शाहख़र्ची का प्रदर्शन कर चुका है। एक मंत्री महोदय ने हवाई जहाज़ में सरकारी यात्रा इकॉनोमी क्लास में करने का सुझाव दिये जाने पर उसको कैटिल यानी जानवरों का बाड़ा तक कह दिया था। अगर चिदंबरम यह आंकड़ा देते कि देश के अधिकांश लोगों के पास घरों में टॉयलेट नहीं है लेकिन मोबाइल फोन मौजूद हैं तो बात किसी हद तक समझ में आ सकती थी हालांकि इसके लिये जागरूकता ना होने और लोगों में शिक्षा के साथ के साथ सही समझ विकसित ना होने की जि़म्मेदारी काफी सीमा तक सरकार पर भी आती क्योंकि वह दूरसंचार क्रांति को जिस तरह से देश में फैला रही है उतना ध्यान उसका देश में खुले में शोच से छुटकारा दिलाने को स्वच्छता अभियान चलाने में नहीं है। ऐसे ही पानी और आइसक्रीम की सेल जहां तक बढऩे का सवाल है उसके लिये भी हमारी पूंजीवादी और बाज़ारवादी नीतियां ही जि़म्मेदार हैं। चिदंबरम एक बात साफ साफ समझ लें कि वे आंख बंद करके देश में पूंजीवादी और अमेरिकी व यूरूपीय नीतियां लागू करके अगर यह समझ रहे हों कि भारत उनकी इन मूर्खताओं और अपनी ही जनता का मखौल उड़ाने की आत्मघाती और अपमानजनक भ्रष्ट नीतियों को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेगा तो मुंगेरी लाल के हसीन सपने देख रहे हैं। कांग्रेस ही नहीं अब समय आ गया है कि जनता भाजपा की भी एल पी जी यानी लिब्रल, प्राइवेट और ग्लोबल नीतियों को ठुकराने का मन बना चुकी है। लोकसभा का चुनाव आने दीजिये मतदाता ना केवल यूपीए को उसकी औकात बतायेगा बल्कि एनडीए को भी भी यूपीए की कार्बन कॉपी बन जाने के कारण ठुकराने जा रहा है। इसका नतीजा क्षेत्रीय दलों की सीटें पहले से और बढ़कर आने के रूप में मिलेगा।