शांति निकेतन:उजालों की खुदकुशी का सबूत
गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर के भव्य जीवन का भव्य स्मारक है शांति निकेतन। बहुत समय तक लोग जाने वालों की यादों को सहेज कर रखने का प्रयास किया करते हैं। जाने वालों की समाधियों पर स्मारकों पर उनके चित्रों पर और उनकी यादों पर अपने श्रद्घा पुष्प चढ़ाते रहते हैं। यादों को यहां हमने इसलिए प्रयोग किया है कि यदि यादों का एक भव्य स्मारक हर जाने वाले का हमारे मानस मण्डल में न बन सकता तो और उसकी यादों का कोई अर्थ नही होता। समाधि, स्मारक आदि जो कि उन्हें श्रद्घा सुमनअर्जित करने के माध्यम होते हैं, तो गरीब आदमी श्रद्घांजलि अर्पित करने का अर्थ भी नहीं समझ पाता। गुरूदेव का शांति निकेतन पूरे भारत वर्ष के हर नागरिक के लिएश्रद्घा और सम्मान का प्रतीक रहा है। उसी शांति निकेतन ने एक अनैतिक कृत्य के लिए पिछले दिनों अखबारों में सुर्खियां प्राप्त कीं। एक वार्डन ने पांचवीं कक्षा की बालिका को बिस्तर में पेशाब करने पर सजा देते हुए उसे पेशाब से गीले बिस्तर को चाटने को विवश किया। दण्ड का घृणास्पद स्वरूप गुरूदेव के शांतिनिकेतन में देखने केा मिला। सारे प्रकरण में दोषी कौन है-गुरूदेव का शांतिनिकेतन उसका प्रबंधन तंत्र समाज या वार्डन? यहां पर विचारणीय बात है कि गुरूदेव ने जिस शांति निकेतन की नींव रखी थी उसका ढांचा तो आज भी खड़ा है लेकिन ये ढांचा तो पांच तत्वों का मिलन मात्र है। इसकी आत्मा तो गुरूदेव स्वयं थे। इतिहास के ऐसे भव्य भवनों, स्मारकों और स्थलों को लोग देखने इसलिए नहीं जाते कि उन्होंने ईंट, रोड़ी, सीमेंट, बदरपुर, लोहे का ऐसा अद्भुत संगम और कहीं नहीं देखा, अपितु वो देखने जाते हैं- किसी टैगौर की स्मृतियों को, उनके जीवन से जुड़ी घटनाओं के कुछ पदचिन्हों को, ताकि उससे वह स्वयं भी रूबरू हो सकें और जाने वाले को अपनी श्रद्घांजलि दे सकें। किसी महापुरूष के जाने के पश्चात उसके मिशन में गिरावट आती है। उत्तराधिकारी महापुरूषों की महानता को उतनी ऊंचाई तक नहीं रखा पाते जितनी ऊंचाई पर वह अपनी विरासत को छोड़कर गया था। इसलिए प्रबंधन तंत्र कुछ सीमा तक ही दोषी है। इतना तो उसके विषय में मानकर ही चलना चाहिए कि वह जिस पीढ़ी का प्रबंधन तंत्र है, उसी पीढ़ी के अनुपात में उसमें शिथिलता होगी। पहली पीढ़ी कुछ कम शिथिल होती है-अगली उससे ज्यादा और तीसरी उससे ज्यादा…। दूसरी पीढ़ी से ही एक दोष आ जाता है कि नाम को कैश करो और खाओ-पिओ। इसके पश्चात बात आती है समाज की। समाज ने दिशाहीन शिक्षा प्रणाली को भारत के लिए उपयुक्त समझ लिया। संस्कार आधारित शिक्षा प्रणाली को विस्मृत कर दिया गया। जिस शिक्षा से विनम्रता और धैर्य बच्चों में डाले जाते थे और सारा प्रबंधन तंत्र अध्यापक, आचार्य और वार्डन आदि सभी उच्च नैतिक संस्कारों का प्रदर्शन किया करते थे वो आज शिक्षा जगत के लिए बीते हुए जमाने की बातें हो गयी हैं। उसी शिक्षा ने वार्डन को जन्म दिया है और उस वार्डन ने इस आचरण को जन्म दिया है। पूरी तरह फ्रस्टे्रटेड समाज का निर्माण करने वाली शिक्षा ने जिस समाज का निर्माण किया है उसी समाज से वार्डन संबंध रखती है। वार्डन को दोषी न मानकर समाज को ही दोषी माना जाये। जो समाज अपने भविष्य के लिए अपने वर्तमान के प्रति पूर्णत: लापरवाह हो उससे बड़ा दोषी और कौन हो सकता है? शांति निकेतन के विषय में तो महज इतना ही कहा जा सकता है :-
जब-जब अंधेरों ने उजालों से दोस्ती की है,
जलाके अपना ही घर हमने रोशनी की है।
सुबूत हैं मेरे घर में धुएं के ये धब्बे,
कि कभी यहां उजालों ने खुदकुशी की है।।