उत्तर प्रदेश की गठबंधन की राजनीति और कांग्रेस का भविष्य
स्वदेश कुमार
उत्तर प्रदेश कांग्रेस की कमान हाथ में आने के बाद जिस तरह से कांग्रेस के नवनियुक्त अध्यक्ष अजय राय ने राहुल-प्रियंका के क्रमशः अमेठी-वाराणसी से लोकसभा चुनाव लड़ने को लेकर राग छेड़ा है, उससे पार्टी के कार्यकर्ताओं में नया जोश भर गया है। यहां तक कि कांग्रेस आलाकमान को भी लगने लगा है कि उसने यूपी कांग्रेस की जिम्मेदारी अजय राय को सौंप कर तीर निशाने पर मार दिया है। सपा के आईएनडीआई गठबंधन और अजय राय के धमाकेदार अंदाज के सहारे कांग्रेस एक बार फिर से यूपी में अपनी खोई जमीन को मजबूत करने की कोशिश में जुट गई है। वैसे यह प्रयोग कोई नया नहीं है, 2017 के विधान सभा चुनाव में भी इसी तरह का गठबंधन हुआ था, मगर यूपी के वोटरों को यह साथ पसंद नहीं आया था। इसलिए राजनैतिक पंडित इस बार भी गठबंधन को लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं हैं। परंतु इसके उलट इस बार कांग्रेस की नजर यूपी की ऐसी एक चौथाई सीटों पर है, जिन पर पार्टी अपने आप को मजबूत स्थिति में समझती है। खैर, कांग्रेस के दावों से अलग बात की जाए तो उसके (कांग्रेस) लिए सबसे बड़ी चिंता यूपी में घटते हुए जनाधार की है। ऐसे में जब एनडीए को हराने के लिए आईएनडीआईए गठबंधन के साथ कांग्रेस आगे बढ़ रही है तो पार्टी का फोकस उन सीटों पर है, जहां पार्टी पिछले चुनाव में दूसरे या तीसरे स्थान पर रही थी।
कांग्रेसियों का कहना है कि करीब दो दर्जन लोकसभा सीटों पर पार्टी अपनी दावेदारी ठोक सकती है। इनमें रायबरेली व अमेठी के साथ वाराणसी, महाराजगंज, कुशीनगर, फैजाबाद, डुमरियागंज, बांसगांव, गोंडा, श्रावस्ती, शाहजहांपुर, खीरी, कानपुर, उन्नाव, प्रतापगढ़, बरेली, पीलीभीत, रामपुर, फर्रुखाबाद, बाराबंकी व मुरादाबाद जैसी सीटें शामिल हैं। बात पिछले चार लोकसभा चुनाव के नतीजों की कि जाए तो कांग्रेस का सबसे बेहतर प्रदर्शन 2009 में ही रहा था। आज सिर्फ सोनिया गाँधी की एक लोकसभा सीट वाली कांग्रेस ने 2009 में 21 सीटों पर जीत दर्ज की थी। तब इसका श्रेय राहुल गांधी को दिया गया था। 2009 में कांग्रेस द्वारा जीती गयी सीटों में अमेठी, रायबरेली, मुरादाबाद, धौराहरा, उन्नाव, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, फर्रुखाबाद, कानपुर, अकबरपुर और झांसी जैसी सीटें शामिल थीं। पार्टी चाहती है कि एक बार फिर से इन सीटों पर अपनी पूरी ताकत लगाई जाए। कांग्रेस का फोकस सीट के जातीय समीकरण के साथ पार्टी के पूर्व के प्रदर्शन पर भी निर्भर करता है।
2009 के बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को जबरदस्त झटका लगा था और कांग्रेस सिर्फ अपनी दो परंपरागत सीटों- रायबरेली व अमेठी में ही जीत हासिल कर सकी थी। 2019 के चुनाव में तो कांग्रेस की सिर्फ एक सीट ही रह गई थी। इन चुनावों में सपा-बसपा के गठबंधन की वजह से कांग्रेस ने कई सीटों पर अपने प्रत्याशी नहीं उतारे थे, जबकि कई सीटों पर कांग्रेस तीसरे नबंर पर रही थी। रामपुर, बरेली, शाहजहांपुर, खीरी, उन्नाव, फर्रुखाबाद, बाराबंकी, फैजाबाद, डुमरियागंज, बस्ती व कुशीनगर में भी कांग्रेस के प्रत्याशी तीसरे नंबर पर रहे थे। अमेठी में राहुल गांधी व कानपुर में श्रीप्रकाश जायसवाल दूसरे स्थान पर रहे थे। रायबरेली की सीट कांग्रेस के खाते में इसलिए आई थी क्योंकि अमेठी के साथ-साथ यहां से सपा ने अपना प्रत्याशी नहीं उतारा था। इसके बावजूद राहुल गांधी अमेठी से हार गए थे।
बहरहाल, कांग्रेस भले ही उत्तर प्रदेश में बड़ी उड़ान के सपने देख रही है, लेकिन यह मिशन समाजवादी पार्टी के बिना पूरा होते दिखाई नहीं दे रहा है, ऐसे में सवाल यह भी है कि क्या समाजवादी पार्टी का नेतृत्व कांग्रेस की उम्मीद के अनुसार उसे लोकसभा की सीटें दे देगा। अगर नहीं देगा तो गठबंधन में दरार भी पड़ सकती है। ऐन मौके पर यदि बसपा भी इस गठबंधन में शामिल हो गई तो वह भी इससे कम सीटें अपने लिए नहीं चाहेगी। फिर राष्ट्रीय लोकदल भी 8-10 सीटों पर उम्मीद लगाए बैठा है। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने यूपी में अपनी हकीकत को समझने की बजाय हसरतों पर ज्यादा ध्यान दिया तो सपा के लिए कांग्रेस से दूरी बनाए रखने का रास्ता खुल जाएगा। ऐसा मुश्किल भी नहीं है क्योंकि 2017 में कांग्रेस के साथ समाजवादी पार्टी गठबंधन करके देख चुकी है, तब उसे विधानसभा चुनाव में कोई खास फायदा नहीं हुआ था।