अभी हमारे देश में कांवड़ का क्रम पूर्ण हुआ है। पिछले कुछ सालों से कांवडिय़ों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्घि हुई है। भारत की परंपराएं बहुत महान हैं, किंतु अधिकतर परंपराएं रूढि़वाद की जंग से ढकी हुई हैं, जिससे इन परंपराओं के पीछे का सच बहुत कम लोगों को पता होता है। अपने इसी परंपरावादी स्वरूप के कारण हमारा कमल जैसा स्वरूप और आचरण हमसे लुप्त होता चला गया। फिर एक समय ऐसा भी आया कि भारतवर्ष से वेद तक भी लुप्त हो गये।
कांवडिय़ों का, गंगा का और गंगाजल का बड़ा विचित्र संबंध है। गंगा और शिव के भक्त गंगाजल को लाकर अपने इष्टï पर चढ़ाते हैं, ताकि उनकी मनोकामनाएं पूर्ण हो सकें। इसलिए गंगा को पापतारिणी एवं भव-भयहारिणी कहा जाता है। प्राचीन काल से गंगा का गुणगान हमारे कवियों ने विशेष ढंग से किया है, इसलिए स्वाभाविक रूप से इस जड़ देव का मानवीयकरण कर दिया गया, जिससे यह चेतन देव बन गयी। आज विज्ञान के युग में यह बात बहुत ही विचारणीय है कि क्या जड़ कभी चेतन को सकता है? वास्तव में जड़ को चेतन मानना और अनात्मा में आत्मा खोजना ही तो अविद्या है। जड़ से चेतन बनी इस गंगा को ही लोगों ने पापतारिणी के रूप में पूजना आरंभ कर दिया। इस पूजा से हमारे पाप घटे नही, अपितु और बढ़ गये, क्योंकि हमारे भीतर यह धारणा रूढ़ हो गयी कि गंगा स्नान से सारे पास संताप कट जाते हैं, मिट जाते हैं। इसलिए लोगों ने अपनी पापवृत्ति को पाप नहीं माना। अपितु गंगा स्नान के समय यह धारणा बना ली कि मेरे अब तक के सारे पाप समाप्त हो गये। जबकि गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि शुभ-अशुभ किसी भी प्रकार के किये गये कार्यों का परिणाम अवश्य भोगना पड़ता है। यही सिद्घांत वेद का भी है। इस प्रकार कार्य के पीछे फल की व्यवस्था मिसाइल की भांति उसका पीछा कर रही है। उसी व्यवस्था के कारण मानव ही नहंी अपितु सभी जीवधारी जन्म और मृत्यु के चक्कर में पड़े हैं। जब किये गये शुभा अशुभ कृत्य का परिणाम फल के रूप में भोगना है तो गंगा पापों को धोने वाली कहां हुई और कहां कांवड़ पाप तारिणी बनी? लेकिन गंगा पाप निवारिणी भी है इसे समझने में हमसे भूल हुई है। समझें कि गंगा पाप निवारिणी कैसे हैं? इसका मर्म समझ लें कि इसमें किस प्रकार कैसे लोग पाप कार्य करके पाप पंक से छूट जाते हैं?
गंगा पाप निवारिणी इसलिए है कि यह गंधक के पर्वत से होकर आती है। गंधक का गुण है कोढ़, खाज, आदि चर्म रोगों को समाप्त करना। ऐसे रोगी को वैद्य लोग गंगा स्नान का परामर्श दिया करते थे। भारत में यह धारणा है कि ऐसे चर्म रोग पापियों को होते हैं। गंगा स्नानसे रोगों का निदान मिल जाने से गंगा को पाप निवारिणी माना जाने लगा।
गंगा अवतरण की घटना से हम सभी परीचित हैं। पुराणों में उल्लेखित यह घटना पुरातन इतिहास की एक बहुत महत्वपूर्ण घटना है। वास्तव में पुराण पुरातन इतिहास के ही दस्तावेज हैं, जिनमं बहुत सी ऐतिहासिक घटनाओं को पुराणकारों ने अपनी शैली में लिखा है। पौराणिक वृत्तों से यह सिद्घ हो चुका है कि गंगा प्राचीनकाल में हिमालय के तत्कालीन राजा से अनुनय विनय कर इस नदी को अपने देश देवलोक की ओर मोड़ लिया, जिससे उस देश में जल की समस्या का निदान हो गया, किंतु फिर भी इस नदी की एक धारा ही देवलोक आती थी। एक धारा स्वर्गलोक जाती थी, जबकि तीसरी धारा सरस्वती की भांति कुछ दूर चलने पर भूमि के अंदर ही समा गयी।
इधर इक्ष्वाकु वंश के राजा सगन बड़े प्रतापी सम्राट हुए हैं। उनकी केशिनी और सुमति नाम की दो रानियां थीं। संतान न होने पर यह दंपत्ति महर्षि भृगु के पास गया, जहां महर्षि ने प्रसन्न हो वर दे दिया नृपश्रेष्ठ! तुम्हारे घर में बहुत से पुत्र होंगे और तुम्हारी कीर्ति इस संसार में फेेलेगी। तत्पश्चात रानी के शिनी को असमंज नाम का एक पुत्र हुआ जबकि सुमति को अनेकों संतानें हुईं। सुमति की अनेकों संतानों को साठ हजार पुत्रों (राजा सगर की सेना) के रूप में वर्णित किया गया है, जबकि यह संभव नहीं है। वास्तव में राजा सगर की सेना के सिपाहियों की यह संख्या थी, जिसके माता-पिता रानी और राजा ही होते हैं, इसलिए एक रूपक के द्वारा घटना का वर्णन किया गया है। रानी केशिनी का पुत्र असमंज बड़ा दुष्टï था। उसके द्वारा प्रजा पर होने वाले अत्याचारों को देखकर राजा ने उसे अपने राज्य से बाहर निकाल दिया दिया था। इस असमंज के पुत्र का नाम अंशुमान था, जो अपने दादा राजा सगर के साथ ही रहा। अंशुमान के बड़ा होने पर राजा ने अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन करना चाहा। राजा ने घोड़ा छोड़कर उसकी रक्षा का दायित्व अंशुमान को दिया। राजा इंद्र ने इस घोड़े का अपहरण कर लिया और इसे तपस्यारत महर्षि कपिल के आश्रम में छोड़ दिया। घोड़े की खोज की जाने लगीं खोज करने वाली सेना (राजा सगर के साठ हजार बेटे) ने अपने अभियान में जनता पर बड़े भारी अत्याचार ढहाये, जिससे प्रज्ञा त्राहिमाम कर उठी। कई वर्ष अश्व नहंी मिला तब किसी प्रकार ये लोग महर्षि कपिल के आश्रम तक भी पहुंच गये। इनके अत्याचारों के विषय में जब लोगों ने ब्रहाजी से कहा तो उन्होंने अपने विवेक से भविष्यवाणी कर दी कि इनका विनाश अवश्यभावी है। यज्ञ में ज्यों ज्यों विलंब हो रहा था, त्यों त्यों राजा सगर और उसके सैनिकों का प्रकोप बढ़ता जा रहा था। जिससे देश में सर्वत्र अशांति व्याप्त हो गयी उधर, महर्षि कपिल अपने आश्रम में सारी घटना से अनभिज्ञ हो साधनारत थे। राजा सगर के सैनिकों ने उन्हें ही चोर समझकर अपमानित करना आरंभ कर दिया, जिससे क्रोधवश महर्षि ने इन सभी को अपने शाप से भस्म कर डाला। सगर के इन पुत्रों के भस्म हो जाने पर उनकी अस्थियों का ढेर लग गया।
बहुत विलंब होने पर राजा सगर ने अपने पुत्रों की खोज के लिए अपने पोते अंशुमान को भेजा। अंशुमान ढूंढ़ता हुआ जब महर्षि कपिल के आश्रम में पहुंचा तो उसे सब कुछ समझ आ गया। उसने महर्षि के प्रति असीम श्रद्घा प्रदर्शित की और उन्हें सारा वृतांत कह सुनाया। तब महर्षि भी पश्चाताप करने लगे। इस पर उन्होंने अंशुमान को बताया कि जितनी प्रजा को कष्टï पहुंचाकर दुखी किया गया है, उस पास की निवृत्ति के लिए यदि गंगा को पृथ्वी लोक में लाकर जन उपकार किया जाए तो उस महती कार्य से तुम्हें जनता की जो दुआएं मिलेंगी, उससे तुम्हारी कीर्ति पर लगा दाग मिट सकता है। इस प्रकार गंगा को पर्वतों से पृथ्वी पर लाने का प्रयास प्रारंभ हुआ। राजा सगर उनके पश्चात अंशुमान और महाराज दिलीप गंगा को पर्वतों से पृथ्वी पर लाने के अपने प्रयास में असफल रहे, तब दिलीप के पुत्र भगीरथ को इस कार्य में सफलता मिली। उन्होंने अपनी तपस्या से ब्रहमा को प्रसन्न कर इंद्र को राजी किया। अंत में हिमालय के राजा से गंगा निकासी की स्वीकृति प्राप्त की। इन सबके शुभाशीर्वाद को पाकर भगीरथ गंगा को भारत में लाने में सफल हुए। इस लोकोपकारी कृत्य से अभिभूत जनता की मंगल कामना से इक्ष्वाकु कुल पर प्रजा उत्पीड़क का लगा दाग मिट गया। गंगा अवतरण का सच ये है कि गंगा के अवतरण से इच्वाकु कुल पर लगा पापों का दाग समाप्त हो गया कदाचित इसी कारण लोगों में यह धारणा रूढ़ हुई कि गंगा स्नान से पापों का नाश होता है।
-राकेश कुमार आर्य