निर्मल रानी
जिस युग में भारतवर्ष को विश्वगुरु कहा जाता था उस समय भी शायद इस देश में इतने तथाकथित गुरु नहीं रहे होंगे जितने कि अब देखे जा रहे हैं। टीवी चैनल्स ने इनकी दुकानदारी कुछ ज़्यादा ही बढ़ा दी है। जिसे देखो वही अध्यात्म की अपनी अलग दुकान सजाए बैठा है। इस प्रकार के लगभग प्रत्येक अध्यात्मवादी धर्मगुरु स्वयं को ईश्वर का अवतार,उसका प्रतिनिधि या ईश्वर का कृपापात्र बताने से भी नहीं चूकते। रही-सही कसर उनके भक्तजन पूरी कर देते हैं जोकि ऐसे गुरुओं की आशीर्वाद देती हुई मुद्रा में उतारी गई फ़ोटो को अपने मंदिरों में सजाकर उन्हें भगवान के बराबर का रुतबा बख्श देते हैं। इनमें कई चतुर धर्मगुरु तो ऐसे भी हैं जो अपने अंधविश्वासी भक्तजनों को यह भी समझा देते हैं कि जहां उनका चित्र लगाया जाए वहां किसी अन्य भगवान या देवी-देवता का चित्र या मूर्ति लगाने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। और तमाम अंधविश्वासी भक्तजन उनकी सलाह मानकर ऐसा करते भी हैं। इस बात से साफ़ ज़ाहिर होता है कि इस प्रकार के तथाकथित अध्यात्मवादी धर्मगुरु अपने अंधविश्वासी भक्तों को उनके मुख्य धर्म व संस्कारों से भटकाकर केवल और केवल अपनी ओर आकर्षित करना चाहते हैं तथा अपने बताए हुए मार्गों पर चलाने की कोशिश करते हैं। इसके पीछे के मनोविज्ञान पर नजऱ डालना भी ज़रूरी है। मानवजाति का स्वभाव ही राज करने का है। चाहे वह अपने घर व परिवार पर राज करे या मोहल्ला,शहर या राज्य पर अथवा समाज के किसी वर्ग विशेष पर। और प्रत्येक व्यक्ति अपने राज करने के इस क्षेत्र में निरंतर इज़ाफा भी करना चाहता है। अब यह उसकी सामथ्र्य,उसकी बुद्धि व चतुराई पर निर्भर करता है कि वह किस रूप में स्वयं को जनता के समक्ष पेश करे ताकि वह लोगों के दिलों पर राज कर सके। हालांकि राजनीति भी लगभग इसी प्रकार का एक पेशा है। परंतु इसमें उतार-चढ़ाव तथा कठोर परिश्रम जैसी चीज़ें चूंकि शामिल होती हैं इसलिए प्रत्येक व्यक्ति राजनीति के माध्यम से लोगों के दिलों पर राज नहीं कर सकता। और इस क्षेत्र के कुछ विशेष खिलाड़ी ही ऐसा कर पाने में सक्षम होते हैं। परंतु अध्यात्मवाद की दुकानदारी एक ऐसी चीज़ है जिससे हर खास-ओ -आम बड़ी आसानी से न केवल प्रभावित होता है बल्कि इस ओर आकर्षित भी हो जाता है। खासतौर पर महिलाएं तथाकथित अध्यात्मवादी धर्मगुरुओं की ओर जल्दी आकर्षित हो जाती हैं और वही अपने परिवार के लोगों को भी इस ओर खींच ले जाती हैं। और यदि किसी ऐसे ढोंगी अध्यात्मवादी के संपर्क में आने के पश्चात किसी का कोई काम संवर गया फिर तो गोया उस धर्मगुरु की पौ बारह हो जाती है। उसके भक्त का पूरा का पूरा परिवार यही समझ बैठता है कि यह सब कुछ हमारे गुरु जी के आशीर्वाद से ही हुआ है। और ऐसे में यह परिवार अपने गुरुजी की मार्किटिंग का जि़म्मा भी संभाल लेता है। नतीजतन ऐसे बाबाओं का नेटवर्क बढ़ता चला जाता है। जहां आज हमारे देश में कुकुरमुत्ते की तरह धर्मगुरुओं व अध्यात्मवादियों की फसल उगी हुई है। और आए दिन इन्हीं में से कोई न कोई तथाकथित पाखंडी धर्मगुरु अपने पाखंड या काले कारनामों के लिए भी बेनक़ाब होता जा रहा है। अब तक कम से कम दर्जनों पाखंडी धर्मगुरु अपने किसी न किसी पाखंड या काले कारनामों के लिए बेनकाब हो चुके हैं। परंतु भक्तगण हैं कि अपनी आंखें खोलने का नाम ही नहीं लेते।
आए दिन कोई न कोई धर्मगुरु अपनी नई साज-सज्जा व प्रवचन की नई शैली के साथ टेलीविजऩ को माध्यम बनाकर आम लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने में लगा रहता है। इनमें से कई तथाकथित धर्मगुरुओं द्वारा अपने बैंक खाता नंबर टीवी पर दिखाए जाते हैं तथा भक्तजनों से उसमें दानराशि जमा करवाने के लिए कहा जाता है। गोया कथित अध्यात्मवाद को सीधे तौर पर बेचने की कोशिश की जाती है। और कभी-कभी यही धर्मगुरु किसी न किसी पाखंड यहां तक कि सेक्स स्कैंडल तक में शामिल पाए जाते हैं। परंतु इनके प्रति श्रद्धा व विश्वास का भाव रखने वाले भक्तजन इनके काले कारनामों के उजागर होने के बाद अपनी आंखें खोलने के बजाए इस बात पर अड़े रहते हैं कि हमारे गुरु जी को बदनाम किया जा रहा है तथा यह सबकुछ एक साजि़श का नतीजा है। यहां तक कि कई कथित गुरुओं की सेक्स सीडी सामने आने के बावजूद उनके भक्तजनों का विश्वास अपने उन पापी कथित गुरुओं पर से नहीं डगमगाता। पाखंड की दुकानदारी चलाने वाले निर्मलजीत सिंह नरूला उर्फ निर्मल बाबा आज टेलीविजऩ के पर्दे से गायब हो चुके हैं। सबसे पहले मैंने अपने एक लेख के माध्यम से निर्मल बाबा द्वारा बताए जाने वाले संकटमोचक हास्यास्पद उपायों पर संदेह ज़ाहिर किया था। कितनी फूहड़पने व बेवकूफी वाली बात है कि -आप समौसे के साथ लाल चटनी खाते हो और हरी चटनी नहीं खाते। जाओ समौसे के साथ हरी चटनी खाओ तो सब ठीक हो जाएगा। और निर्मल बाबा के ऐसे उपाय सुनकर भक्तजन स्वयं को धन्य समझने लगते थे। नाई से दाड़ी बनवाओ,काला चश्मा माथे पर लगाकर रखो, सेंडविच खाओ, ब्यूटी पार्लर जाओ, आखिर यह सब कहां के उपाय हैं और ऐसे उपायों को बताने के पीछे क्या रहस्य है आम आदमी इस विषय पर सोचने-समझने या चिंतन करने की आवश्यकता ही नहीं महसूस करता था। बजाए इसके ऐसे उपायों को सुनकर उनके भक्तों की भीड़ में दिन-प्रतिदिन इज़ाफा होता जाता था। उनके द्वारा बताए जाने वाले उनके बैंक खाते में प्रतिदिन भारी धनवर्षा होने लगती थी। अपने अंधभक्तों की बढ़ती भीड़ से निर्मल बाबा के इस पाखंड में और इज़ाफा होता जाता था और आखिरकार उनके पाखंड का यह घड़ा फूट ही गया। अब यह उनके भक्तजनों को सोचना चाहिए कि वे क़ानून के शिकंजे से बचाने के लिए खुद ही समौसे के साथ हरी चटनी खाकर या प्लास्टिक के टंग क्लीनर का इस्तेमाल कर स्वयं को संकट से क्यों नहीं उबार लेते? आखिरकार उनके झांसे में कोई बुद्धिजीवी या न्यायधीश क्यों नहीं आ जाता? निश्चित रूप से दूरदर्शन के तमाम चैनल भी इस प्रकार के पाखंडी तथाकथित धर्मगुरुओं को आसमान पर चढ़ाने व सीधे-सादे व परेशान हाल आम लोगों पर थोपने के जि़म्मेदार हैं जोकि मात्र अपने व्यवसाय के लिए इस प्रकार के ऊटपटांग तर्कविहीन तथा निरर्थक बातें करने वाले पाखंडी कथित अध्यात्मवादियों को जनता से रूबरू कराते हैं। परंतु इसके साथ-साथ आम जनता भी ऐसे पाखंडियों को व उनकी बकवास को आसानी से पचाने की जि़म्मेदार है। आम लोगों को स्वयं यह सोचना चाहिए कि आखिर कौन सी ऐसी शिक्षा या सद्मार्ग है जोकि उनके अपने पारंपरिक धर्मग्रंथो में नहीं पाया जाता। गीता,रामायण, कुरान,बाईबल व गुरुग्रंथ साहब जैसे हमारे प्राचीन धर्मग्रंथ असीमित उपदेशों, सद्वचनों व सद्मार्ग पर चलने वाली शिक्षाओं से भरे पड़े हैं। जब हम इन धर्मग्रंथों के अध्ययन से कोई लाभ हासिल नहीं कर सकते फिर आखिर हमें यह हरी चटनी से समौसा खिलाने वाले व चश्मा बालों पर लगाने जैसे बेहूदा निर्देश देने वाले पाखंडी अध्यात्मवादी क्या फायदा पहुंचा सकेंगे? बजाए इसके यदि हम इनके बताए हुए उपायों पर गौर करें तो यह उपाय हमें नुकसान पहुंचाने वाले ही प्रतीत होंगे। लिहाज़ा ज़रूरत इस बात की है कि अध्यात्मवाद की दुकानदारी करने वाले तथाकथित गुरुजनों को उनके भक्तजन बाज़ार की उस कसौटी पर तौलने का प्रयास हरगिज़ न करें जिसमें कि यह कहावत प्रचलित है कि ‘जो दिखता है वह बिकता है। आम लोगों की आस्था, श्रद्धा और विश्वास एक ऐसी नाज़ुक चीज़ है जिसे भावनात्मक रूप से इस प्रकार के पाखंडी धर्मगुरु अपनी ओर आकर्षित करना चाहते हैं तथा अपने साम्राज्य को निरंतर बढ़ाने के लिए इसका भरपूर इस्तेमाल करना चाहते हैं।
प्राकृतिक रूप से अपने चाहने वालों की संख्या में इज़ाफा करना प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा भी होती है। लिहाज़ा अब यह सीधे-सादे व भोले-भाले श्रद्धालुओं व भक्तजनों पर निर्भर करता है कि वे विरासत में मिले अपने पारंपरिक आस्था के केंद्रों तथा अपने पारंपरिक ईष्ट देवों व धर्मग्रंथों पर ही विश्वास करें, उन्हीं रास्तों पर चलें तथा ज़रूरत पडऩे पर उन्हीं के माध्यम से अपने संकट के समाधान व उपाय तलाशने की कोशिश करें। अन्यथा इस प्रकार के पाखंडी धर्मगुरुओं के चंगुल में फंसना न केवल निरर्थक है बल्कि इससे उनके समय व धन की बर्बादी भी होती है। साथ-साथ ऐसे ढोंगी धर्मगुरुओं की उपासना व उनकी अंधभक्ति उनके भक्तजनों को उनके अपने आस्था के मुख्य केंद्र से भी दूर ले जाती है।