कॉवडिय़ों की श्रद्घा का सैलाब सड़कों पर उमड़ आया। भारत के लोगों की इस असीम श्रद्घाभक्ति को देखकर लगता है कि लोगों में अभी भी भगवान के प्रति कितनी अटूट आस्था है। जातपात के सारे बंधनों से ऊपर उठकर अब कांवडिय़ा केवल भोला रह गया। अपनी विशाल संख्या से कांवडिय़े हिंदू समाज की संगठन शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। मक्का मदीना में हजयात्री पूरी दुनिया की कुल ढाई अरब की मुस्लिम जनसंख्या में से अधिकतम पचास लाख निकल पाते हैं, और इसी से नाम कमा लेते हैं कि इस्लाम में धार्मिक आस्था की प्रबलता है। लेकिन पूरी दुनिया में लगभग 90 करोड़ हिंदुओं में से दो करोड़ कॉवडिय़े निकलते हैं, तो मालूम होता है कि धार्मिक आस्था हिंदू समाज में अधिक है।
पर हिंदू समाज की इस धार्मिक आस्था का दुरूपयोग कुछ पाखंडी अंध विश्वासी, ढोंगी और स्वार्थी लोगों ने जमकर किया है। दोष जनता का नही है। दोष एक वर्ग का है जिसने निहित स्वार्थों में हिंदू समाज की धार्मिकता का शोषण और दोहन किया है। लगता है कि धार्मिक कठमुल्लावाद और फतवा गीरी यहां मुस्लिमों से अधिक है। यह वर्ग धर्म की नई नई परिभाषायें देता है, धार्मिक आस्था की नई नई व्यवस्थाएं देता है और भारत की वैदिक संस्कृति के विरूद्घ कार्य करने के लिए लोगों को प्रेरित करता है। कांवडिय़ों की मात्र एक लाख की भीड़ के लिए कांवड़ निर्माता यदि कांवड़ तैयार कर रहे हैं और मात्र 100 रूपये का ही मुनाफा ले रहे हैं तो एक लाख लोगों से ही एक करोड़ वो कमा लेते हैं। जहां बात दो करोड़ श्रद्घालुओं की हो तो वहां कमाई कितनी होती है? अनुमान लगायें। मंदिरों पर यदि एक कांवडिय़ा 50 रूपये का भी दान कर रहा है तो एक मंदिर पर कितना दान चला जाता है? तनिक सोचिये। एक लाख कांवडिय़े जहां कॉवड़ चढ़ा रहे हैं वहां 50 लाख का दान तो निश्चित रूप से आता है। जबकि दानी लोग सैकड़ों में हजारों में और कभी कभी तो लाखों में भी दान करते हैं। क्या कभी ये देखा गया है कि कांवडिय़ों की इस दानराशि से कही किसी गांव में कोई सड़क, कोई विद्यालय, कोई अस्पताल, कोई अनाथालय या कोई गुरूकुल स्थापित किया गया? ये सारी धनराशि कहां चली जाती है, वही तो स्वार्थी लोग हैं जो कांवड़ परंपरा को चलाये रखना चाहते हैं। वह लोगों की श्रद्घा का अनुचित लाभ उठाते हैं, और लोगों को अंधश्रद्घालु बनाये रखना चाहते हैं। भावना के प्रति लोगों में असीम श्रद्घा है भारत के विषय में यह मानना पड़ेगा। पर उस श्रद्घा को सही दिशा नही दी गयी है। इसके लिए श्रद्घालु दोषी नही हैं उन्हें गलत कहना एक और गलती करनी होगी। गलत वो हैं जो श्रद्घालु की श्रद्घा को गलत दिशा देते हैं। विज्ञान सम्मत वेद धर्म को स्थापित करने में आर्यसमाज कभी अग्रणी रहा था-लेकिन अब ये लोग भी केवल नुक्ताचीनी करने वाले होकर रह गये हैं। आस्था पर चोट करना तो इन्हें आता है पर आस्था को परिवर्तित करना नही आता, जबकि महत्वपूर्ण आस्था को परिवर्तित करना ही होता है। शिव परमात्मा का ही नाम है, क्योंकि शिव का अर्थ कल्याणकारी है। ईश्वर से बड़ा कल्याणकर्ता कोई नही है। अभी पिछले दिनों भयंकर गर्मी पड़ी, वह उस शिव का कल्याणकारी स्वरूप था। बिना किसी व्यवधान के और बिना लोगों को तंग किये उसने समुद्र को तपाया और मानसून की प्रक्रिया को जन्म दिया। अब सारे देश में बारिश हो रही है। पूरे देश की सारी रेलों को और बस, ट्रक आदि को आप लगा दें कि जाओ समुद्र से पानी उठाकर लाओ और खेतों में बखेरो, बरसाओ, तो क्या यह संभव है? उस शिव का एक मेह भी जितना काम कर गया उतना काम करने के लिए भी आदमी के इन वाहनों को सालों लग जाएंगे। इसलिए उसे अनंत कृपालु कहा जाता है। हमारे वाहन यदि समुद्र से जल लाने लगें तो पहली बात तो यह है कि वो उसे खारे रूप में ही उठाएंगे, दूसरी ये कि वह खारा पानी हर किसान के खेत को भारी मुनाफे पर दिया जाएगा, तीसरी ये कि पानी की सप्लाई में भारी भ्रष्टïाचार होगा। चौथी ये कि पानी के टैंकरों की चोरी आदि होगी, पांचवीं ये कि अव्यवस्था और अराजकता की स्थिति आ जाएगी, छठी ये कि खारे पानी से ना तो फसल पैदा होगी और ना ही जीवधारी जीवित रहेंगे।
उस अनंत कृपालु शिव की रिफाइनरी को किसी ने नही देखा, उसके न्याय को किसी ने नही देखा जो हर व्यक्ति के दरबाजे पर, हर किसान के खेत में बिना पक्षपात के जाकर बरसता है, वह परमपिता शिव हमारे कांवड़ की छोटी सी गगरी में आ जाएगा यह कैसे संभव है? शिव का मजाक बनाकर रख दिया गया है। जिस शिव ने गंगा बनायी और गंगाजल से सारे उत्तर भारत की भूमि को सोना उगलने वाली बनाया वह शिव अपना शिवस्वरूप हमें नित्य प्रति दिखाता है। पूरे उत्तर भारत में भूजल स्तर के सही होने का कारण गंगा की अविरलता है। गंगा का अस्तित्व में बने रहना है। इसलिए जो शक्ति और धन कांवड़ों पर व्यय किया जाता है वह जीवनदायिनी गंगा को बचाये रखने के लिए किया जाना चाहिए। बहुत ही शांतमना होकर विचारने की आवश्यकता है। हमारा मकसद किसी की भावनाओं को चोट पहुंचाना नही है। शिव पार्वती के विषय में अश्लील कैसेट्स भजनों के नाम पर सड़कों पर बजती रही भोले और भोली उस पर नाचते रहे। भंगेड़ी भांग पीते रहे। शोर शराबा, कोलाहल और पूरी तरह सड़कों का अपहरण सा कर लेने की स्थिति ला दी गयी-यह किस शास्त्र में लिखा है-पूजा का ढंग? भोजन, भजन और विद्या तो एकांत के बताये गये हैं और हम क्या कर रहे हैं? कोलाहल? क्यों? इससे भगवान तो मिलने नहीं। हम वैज्ञानिक और तर्क संगत वैदिक धर्म के अनुयायी हैं। हमारे धर्म पर जिन पाखंडियों का अवैध नियंत्रण है आवश्यकता उन्हें समझने की है। विज्ञान के काल में विज्ञान की बातें होना ही अच्छा है। हमारा धर्म विज्ञान सम्मत है, इसलिए तो और भी आवश्यकता है।
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