एक दिन एक पण्डित जी तीव्रगति से अपनी पीठिका की ओर जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक परिचित भंगी और उनकी पत्नी सड़क की सफाई करते हुए दिखाई पड़े। उनका नन्हा बच्चा पास खड़ा चीख-पुकार कर रहा था। थोड़ी देर बाद सड़क पर भगदड़ मच गई। एक इक्के का घोड़ा बेकाबू होकर बेतहाशा दौड़ने लगा। इक्केवाले ने शोर मचाया, “बचो, बचो, घोड़ा काबू से बाहर हो गया है।” सहमे हुए लोग रास्ता छोड़ सड़क के किनारे हो गए। काबू से बाहर घोड़ा सरपट दौड़ता हुआ आगे बढ़ा चला आ रहा था। इक्केवाला बागें खैच रोकने की सरतोड़ कोशिश कर रहा था। घोड़ा रुकता ही न था; दौड़ता ही चला आ रहा था। भंगी का नन्हा मासूम बच्चा भी माँ-बाप को पास न पा रोता हुआ सरकता-सरकता उस समय सड़क के ऐन बीच आ खड़ा हुआ। पास से गुजर रहे पण्डित जी को लगा कि बच्चा घोड़े के पैरों तले कुचला जाएगा। उनके मन में दया आई। आगे बढ़कर उन्होंने बच्चे को उठाना चाहा, किन्तु अन्त्यज भंगी के बच्चे को छूने से धर्मभ्रष्ट होने के भय से हिचकिचा पीछे हट गए। उनके मन में पुनः दया ने जोर मारा। वे कभी बच्चे को उठाने के लिए आगे बढ़ते और फिर पाप लग जाने के डर से घबराकर पीछे हट जाते। धर्मसंकट में पड़ी बुद्धि निश्चय न कर पा रही थी। इतने में काबू से बाहर हुआ सरपट दौड़ता घोड़ा बच्चे के बिल्कुल समीप आ पहुँचा। दयाभाव से प्रेरित पण्डित जी बच्चे को उठाऊँ या न उठाऊँ, इस दुविधा में अभी उलझे हुए थे। इससे पहले कि घोड़ा आगे बढ़ बच्चे को पैरों तले रौंद देता, सड़क की दूसरी ओर से दयाद्रवित एक ईसाई पादरी आगे बढ़ा। झपट्टा मार उसने बच्चे को अपनी ओर बैंच लिया। बच्चा और भी अधिक चीखो-पुकार करने लगा। तांगा आनन-फानन उनके सामने से होकर गुजर गया। बच्चे को सही सलामत देख पण्डित जी बहुत प्रसन्न हुए, किन्तु उनकी यह प्रसन्नता अधिक समय तक स्थिर न रह सकी। शीघ्र ही उन्हें आत्मग्लानि ने आ दबाया। उन्हें लगा कि वे अपना कर्तव्य निभा नहीं पाए। बच्चे को बचाने के लिए बार-बार मन में उठी सच्ची धर्मभावना को अपनी झूठी धर्मभीरूता के कारण तिरस्कृत कर उन्होंने घोर पाप किया है। पश्चात्ताप के कारण रात भर उन्हें नींद नहीं आई। इसी उधेड़-बुन में वे सारी रात लगे रहे कि इस पाप का कैसे प्रायश्चित् किया जाए। सबेरा होते ही वे बिस्तर से उठे। नहा-धो सीधे गिरजाघर (चर्च) पहुँचे और वहाँ पादरी से बप्तिस्मा (दिक्षा) ले ईसाई बन गए। दिल में बैठे पाप-ताप से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने जो पहला काम किया वह था सुललित सुबोध संस्कृत में ‘बाइबल’ का अनुवाद। पण्डित जी द्वारा अनूदित बाइबल का यह संस्कृत संस्करण जब छपकर दुनिया के सामने आया तो आधुनिक संस्कृत साहित्य की उत्कृष्टतम कृति के रूप में सर्वत्र अभिनन्दित हुआ। आज भी ईसाई लोग इस संस्कृत बाइबल की प्रतियाँ संस्कृतज्ञों तक पहुँचाना अपना धार्मिक कर्त्तव्य मानते हैं।
ईसाईमत में बप्तिस्मा लेने वाले यह संस्कृतज्ञ पण्डित जी सुप्रसिद्ध पं. नीलकण्ठ शास्त्री गोरे थे। १९वीं शताब्दी में जिन कुलीन हिन्दुओं नें ईसाई मत अपनाया उनमें पं. नीलकण्ठ शास्त्री (बप्तिस्मा के बाद पादरी नेहेम्या गोरे ) का नाम सर्वाधिक चर्चित रहा है।
पं. नीलकण्ठ शास्त्री गोरे (फादर नेहेम्या गोरे) का जन्म ८ फरवरी १८२५ ई. में बुन्देलखण्ड अंचल में झाँसी के पास काशीपुर नामक गाँव में हुआ था। यह परिवार मूलतः महाराष्ट्रीय कोकणस्थ ब्राह्मण परिवार था। इनके पूर्वजों का मूल निवास स्थान रत्नागिरी जनपद में खेड़ नामक गाँव था। १४ मार्च १८४८ को आपने रेवरण्ड रॉबर्ट हाज से ईसाई मत की दीक्षा ग्रहण की थी। बाद में रेव. गोरे की धर्मपत्नी व कन्या ने भी ईसाई मत की दीक्षा ग्रहण की। उल्लेखनीय है कि पंजाब के सुप्रसिद्ध महाराजा रणजीतसिंह के पुत्र दिलीपसिंह ने भी ३ मार्च १८५३ को ईसाइयत को स्वीकार कर लिया था। अगले वर्ष १८५४ में नेहेम्या गोरे महाराजा दिलीपसिंह के शिक्षक व दुभाषिए के रूप में विलायत गए थे। इसी समय उनकी भेंट महारानी विक्टोरिया, प्रिंस अल्बर्ट और प्रख्यात विद्वान् मैक्समूलर से हुई थी।
महर्षि दयानन्द के जीवन चरित्रों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि सन् १८७५ में पुणे में स्वामी दयानन्द जी के व्याख्यानों का प्रभाव निष्प्रभ करने का बीडा फादर नेहम्या गोरे ने उठाया था, जिसमें उनके प्रयास पूर्णतया असफल रहे थे। यह भी प्रसिद्ध है कि महर्षि दयानन्द और फादर नेहम्या गोरे में सन् १८७४ में प्रयाग में वेद और बाइबिल पर परस्पर विचार-विमर्श हुआ था। प्रयाग में महर्षि कुल सात बार पधारे थे। छटी बार जुलाई से सितम्बर १८७४ के अन्त तक रहे। इसी अवधि में स्वामीजी से सर्वप्रथम मिलने वाले चर्चित व्यक्तियों में फादर गोरे भी थे। रेव. गोरे से वेदार्थ के विषय में चर्चा हुई। फादर गोरे अपने साथ मैक्समूलर का ऋग्वेदभाष्य यह बतलाने के लिए लाए थे कि ‘अग्नि’ शब्द केवल ‘आग’ का वाचक है, ‘ईश्वर’ का नहीं। उनका कहना था कि प्रो. मैक्समूलर ने ‘अग्नि’ का केवल ‘आग’ अर्थ ही ग्रहण किया है। दयानन्द जी ने प्रत्युत्तर में कहा कि मोक्षमूलर ईसाई मत के पक्षपाती हैं, अत: उन्होंने वेदों के अर्थों का अनर्थ किया है। उनके तो वेदभाष्य का उद्देश्य ही यह था कि भारतवासी वेदभाष्यों को देखकर भ्रम में पड़ जायें तथा वेदमत को छोड़कर ईसाई मत ग्रहण कर लें। इसलिए उनके अनुवाद को विश्वसनीय नहीं माना जा सकता।
स्वामी दयानन्द जी ने इसी प्रसंग में ईसाइयों के ईश्वर विषयक विचार किस प्रकार अज्ञानमूलक हैं, यह बतलाने के लिये तौरेत (बाईबल) की एक कहानी का उल्लेख किया, जिसमें यह लिखा है कि – एक बार बाबल नगर के लोगों ने स्वर्ग या देवमाला में प्रविष्ट होने के उद्देश्य से एक बहुत ऊँचा बुर्ज (मीनार) बनाना प्रारम्भ किया, जिसे देखकर बाइबिल के परमेश्वर को भय हुआ कि कहीं ये लोग आसमान पर चढ़ न जावें! इसलिए उसने उनकी भाषा में ऐसी गड़बड़ उत्पन्न कर दी कि जिससे वे एक-दूसरे की बात को समझने में असमर्थ हो जायें और बुर्ज बनाना छोड़ दें, तथा वह स्वयं भी मनुष्य के बर्बरता पूर्ण आक्रमण से बच जाए। स्वामीजी ने इस कहानी पर टिप्पणी करते हुए कहा कि इससे बाबल निवासियों की यह मूर्खता ही स्पष्ट होती है कि वे आसमान को ठोस पदार्थ समझकर उस पर चढ़ने का प्रयत्न करने लगे और उनके ईश्वर को भी यह पता नहीं था कि आसमान जब ठोस पदार्थ है ही नहीं, तो वे उस पर चढ़ेंगे कैसे? ईसाइयों के ईश्वर का अपने ही उत्पन्न किये जीवों से डर जाना आश्चर्यजनक व हास्योत्पादक है! इससे यही स्पष्ट होता है कि ईसाइयों का ईश्वर सर्वव्यापी नहीं, अपितु एकदेशी है। स्वामी जी की इस बात का फादर नेहेम्या गोरे के पास कोई उत्तर नहीं था और उन्होंने मौन साध लिया।
स्वामी दयानन्द के प्रति पादरी गोरे की घृणा सीमातीत थी। तभी तो वह स्वामी को ‘दुष्ट-पापी’ कहने से भी नहीं चूकता। फिर भी पादरी नेहेम्या गोरे ने अपने जीवन काल में ही स्वामी दयानन्द की शिक्षाओं को फलते-फूलते तथा आर्यसमाज के माध्यम से देश व्यापी होते देखा। स्वामी दयानन्द के इस कटु आलोचक को स्वामी की शिक्षाओं की अभूतपूर्व सफलताओं को अन्ततः स्वीकार करना पड़ा। एक अन्य पादरी को लिखे पत्र में पादरी गोरे ने दयानन्द की सफलता रहस्य समझाया है और आग्रा, दिल्ली, अमृतसर आदि नगरों में आर्यसमाजीयों की बढ़ती हुई संख्या का हवाला देकर खेद के साथ लिखा है कि इन नगरों में आर्यसमाज ने ईसाईयों की प्रगती को अवरुद्ध किया है।
पुणे के “पवित्र नाम देवालय” में सन् १८८९ से १८९३ तक नेहेम्या गोरे ने फादर के रूप में अपनी सेवाएँ सौपी थीं। मुम्बई के उमरवाडी स्थित एंग्लिकन चर्च में २९ अक्टूबर १८९५ को उनका ७० वर्ष की अवस्था में निधन हो गया।