वैदिक सम्पत्ति : गतांक से आगे…

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शिर के विषय में वेद में लिखा है कि-

तद्वा अथर्वणः शिरो देवकोशः समुब्जितः ।
तत् प्राणो अभिरक्षति शिरो अन्नमथो मनः ॥ (अथर्व० 10/2/27)

अर्थात् ज्ञान का केन्द्र शिर है जो देवताओं का सुरक्षित कोश है। इस कोश की प्राण, मन और अन्न रक्षा करते हैं। ऐसे ज्ञानकोश शिर की वृद्धि के समय से गर्भिणी को चाहिये कि वह वीरों की कथाएँ सुने, उत्तम चित्र देखे और उत्तम कर्मों (यज्ञों) का अनुष्ठान करे, जिससे गर्भस्थ का मस्तिष्क उत्तम संस्कारों से संस्कृत हो जाय । इस संस्कार के आगे जातकर्मसंस्कार है । यह संस्कार बालक के उत्पन्न होने पर किया जाता है। जिस समय बालक उत्पन्न होने लगता है, उस समय की प्रार्थना का अर्थात् कुदरत की वैज्ञानिक क्रिया का वर्णन वेदों ने इस प्रकार किया है-

यथा वातः पुष्करिणीं समिङ्गयति सर्वतः । एवा ते गर्भ एजतु निरैतु दशमास्यः ॥7॥
यथा वातो यथा वनं यथा समुद्र एजति । एवा त्वं दशमास्य सहावेहि जरायुजा ॥8॥
दश मासाञ्छशयानः कुमारो अघि मातरि । निरैतु जीवो अक्षतो जीवो जीवन्त्या अधि ॥9॥

(ऋ० 5/78/7-9)

अर्थात् जिस प्रकार हवा से छोटा तड़ाग सब ओर से हिलने लगता है, वैसे ही दश मास में तेरा गर्भ हिले और बच्चा बाहर आवे । जिस तरह हवा, वन और समुद्र हिलते हैं, वैसे ही हे बालक ! तू जरायु के सहित आ। जीती हुई माता के जीवन पर जीनेवाला हे जीव (बालक) ! तू माता के गर्भ में दश महीने सोकर अक्षत निकल। इन मन्त्रों के द्वारा बतलाया गया है कि गर्भिणी के पेट में जो चारों ओर से दर्द पैदा होता है, उससे विचलित होकर वह गर्भस्थ के प्रति बुरे भाव न सोचे कि जिसका प्रभाव बालक पर बुरा पड़े, प्रत्युत वह यह समझे कि यह दर्द बालक का पैदा किया हुआ नहीं है, किन्तु प्राकृतिक शक्तियों के कारण हो रहा है। इसके आगे सबसे प्रथम दुग्धपान की क्रिया पर वेद कहते हैं कि-

इमं स्तनमजंस्वन्तं धयापां प्रपीनमग्ने सरिरस्य मध्ये ।
उत्सं जुषस्व मधुमन्तमर्वन्त्समुद्रियं सदनमाविशस्व ।। (यजु०17/87)
यस्ते स्तनः शशयो यो मयोभूर्येन विश्वा पुष्यति वार्याणि ।
यो रत्नधा वसुविद्यः सुदत्रः सरस्वति तमिह धातवे कः ।। (ऋ०1/164/49)
अर्थात् हे अग्नितुल्य बालक ! तू सम्बन्धियों के बीच में पाकर इस जलीय रस से स्थूल हुए स्तन को पी और स्वादिष्ट, गतिशील तथा समुद्र के समान ज्ञान देनेवाले इस स्तन का सेवन कर। हे ज्ञानवती प्रसूता ! तू अपना यह सुख देनेवाला शरीरस्थ स्तन जो बालक के अङ्गों को पुष्ट करनेवाला, दुग्धरूप रत्न का धारण करनेवाला और शोभा का देनेवाला है, इस बालक के मुँह में दे । इन मन्त्रों में आरम्भिक दुग्धपान की शिक्षा दी गई है। इस शिक्षा के द्वारा बच्चे में माता के दुग्ध के गुणों का संस्कार डाला जाता है, जिससे बच्चा आजीवन माता का भक्त बना रहे और प्रसव के समय माता के कष्ट के कारण जो बच्चे में खराब असर हुआ है, वह दूर हो जाय। इसी का नाम जातकर्म अर्थात् पैदा होने का कर्म है । जातकर्म के धागे नामकरणसंस्कार है। वेद में आया है कि-
कोsसि कतमोऽसि कस्यासि को नामासि ।
यस्य ते नामामन्महि यं त्वा सोमेनातीतृपाम ।
भूभुर्वः स्वः सुप्रजाः प्रजाभिः स्यां सुवीरो वीरै: सुपोषः पोषैः (यजु०7/29)

अर्थात् तू कौन है और तेरा नाम क्या है ? तू बड़े नामवाला हो और पृथिवी से लेकर अन्तरिक्ष और द्यौ तक पूजा और पोषण के साथ बढ़। इस मन्त्र में नामकरणसंस्कार की शिक्षा है। इस संस्कार का तात्पर्य बच्चे के नाम से है। नाम का मनुष्य पर बहुत बड़ा असर होता है । उत्तम, सार्थक और उच्चभाव का बोध करानेवाला नाम नामी को हर समय अपने नाम की सूचना देकर उसे अनेक दुर्व्यवहारों से बचाता है और उच्च बनने की प्रेरणा करता है। इसलिए वेद ने इस संस्कार की आज्ञा दी है। इस नामकरणसंस्कार के आगे निष्क्रमणसंस्कार है। इस संस्कार के द्वारा बालक घर से बाहर लाया जाता है। इसी संस्कार के द्वारा बालक का पहिलेपहिले संसार से परिचय होता है।
क्रमशः

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