184
संसार नदिया बह रही, आशा जिसका नाम।
जल मनोरथ से भरी, कलकल कहे प्रभु नाम।।
कलकल कहे प्रभु नाम, उठती तरंग तिरसना।
राग द्वेष के मगर घूमते, मार रही है रसना।।
तर्क वितर्क के पक्षी जल में, करते खुले विहार।
अज्ञान रूपी भंवर देखकर, व्याकुल है संसार।।
185
जग नदिया के घाट पर, भई संतन की भीड़।
चिंता किनारे दो बने , बढ़ती जाती पीड़।।
बढ़ती जाती पीड़ , नहीं कुछ समझ में आता।
नदिया कैसे पार करूं, सोच के सिर चकराता।।
विवेकी – तपस्वी मानव, करे उलझन की काट।
विवेक से खोजो ब्रह्मानंद, जग नदिया के घाट।।
186
आधी सोते बीतती, करो गुणा और भाग।
शेष खेल और रोग में, बच्चों को दी बांट।।
बच्चों को दी बांट , रहा पालन-पोषण में।
मकसद पूरा करने को, लगा रहा शोषण में।।
जल की तरंगों जैसे , जीवन की हुई बर्बादी।
करी नहीं साधना , बात ना समझी आधी।।
दिनांक : 21 जुलाई 2023