राष्ट्र-चिंतन
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आचार्य विष्णु हरि सरस्वती
मुस्लिम वोटर क्या लवारिश हो गये हैं? क्या मुस्लिम वोटरों पर दांव लगाने अर्थ हार है? चुनावी कार्यक्रमों में मुस्लिम आबादी को अछूत बना दिया गया है क्या? भाजपा के लिए मुस्लिम वोटर अक्षूत तो थे पर कांग्रेस सहित अन्य धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के लिए भी मुस्लिम वोटर अक्षूत क्यों बन गये? क्या अब यह अवधारणा पूरी तरह से समाप्त हो गयी है कि मुस्लिम आबादी ही सरकार बनाती है और सरकार का विध्वंस करती है? क्या इसके लिए राजनीतिक पार्टियां ही दोषी हैं? क्या इस परिस्थिति के लिए मुस्लिम आबादी की गोलबंदी के तौर पर वोट करने की मानसिकता जिम्मेदार है? क्या हिन्दू कट्टरवादियों ने मुस्लिम आबादी की मजहब पर आधारित मतदान करने की परमपरा अपना लिया है? लोकतंत्र ऐसी परिस्थिति अस्वीकार होनी चाहिए।
इसी राजनीतिक मानिसकता का प्रतिनिधित्व करने वाली एक रहस्यमयी खबर मध्य प्रदेश से आयी है।आकलन करने पर यह रहस्यमयी सच्चाई सिर्फ मध्य प्रदेश की ही नहीं है बल्कि उन सभी प्रदेशों की है जहां पर मुसलमानो की आबादी दस प्रतिशत से नीचे हैं। जिन प्रदेशों में मुस्लिम आबादी दस प्रतिशत के नीचे हैं उन प्रदेशों में राजनीतिक पार्टियां मुस्लिम वोटों पर दांव लगाने में दिलचस्पी रखती ही नहीं, अगर रखती हैं तो उसकी दो श्रेणियां होती हैं, एक श्रेणी अप्रत्यक्ष होती है, दूसरी श्रेणी सीमित होती है। ऐसी स्थिति बहुत पहले कभी नहीं थी, क्योंकि कांग्रेस के बाद राजनीति में मजबूत हुई क्षेत्रीय और जातिवादी पार्टियां मुस्लिम वोटों की खरीददार होती थी, उन पर दांव लगाती थी और कहती भी थी कि मुस्लिम आबादी हमारे पास-पास है इसलिए जीत हमारी ही होगी। अब कितनी पार्टियों में इतनी हिम्मत है कि वह कहने का साहस करे कि मुस्लिम आबादी मेरे साथ है, इसलिए जीत हमारी ही होगी?
राजनीति में शुरू हुई नरेन्द्र मोदी युग के बाद मुस्लिम वोटों के संबंध में दांव-पेंच बदले गये, मुस्लिम वोटों का साथ लेने का अर्थ पराजित होना और हिन्दू विरोधी घोषित होना मान लिया गया है। इसलिए अतिरिक्त सावधानियां बरती जाती है, मुस्लिम आबादी को अछूत मान लिया जाता है, राजनीतिक चुनावी सभा मे मुस्लिम आबादी की उपस्थिति को नजरअंदाज कर देने की नीति बनती है, कहीं-कहीं सीधेतौर पर तो कहीं कहीं अप्रत्यक्ष तौर राजनीतिक चुनावी सभाओं में शामिल होने पर भी प्रतिबंध लगा दिया जाता है, कहने का अर्थ है कि चुनावी राजनीति से इन्हंें अलग कर दिया जाता है।
इस तरह के प्रश्न खड़े करने वाले कोई गैर मुस्लिम नेता नही हैं। इस तरह के प्रश्न खड़े करने वाले मुस्लिम नेता ही है। कांग्रेस जो अभी तक अपने आप को मुस्लिम समर्थक पार्टी होने का दावा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर करती आयी है उसके मुस्लिम नेता ही इस तरह के आरोप लगा रहे हैं। इस संबंध मे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व सांसद असलम शेर खान की बात और पीड़ा से अवगत होना जरूरी है। असलम शेर खान का कहना है कि मध्य प्रदेश मे मुस्लिम वोटरों को लेकर किसी की भी कोई दिलचस्पी नहीं है, लोकतंत्र में जब आपके वोटरों में किसी की दिलचस्पी नहीं होगी तब आपकी समस्याओं और सम्मान की भी किसी पार्टी चिंता नहीं करेगी, आपकी सुरक्षा नहीं करेगी। इसलिए मुस्लिम वोटरों में दिलचस्पी नहीं रखने का अर्थ मुस्लिम आबादी को हाशिये पर रखना और मुस्लिम आबादी को भाग्य भरोसे छोड़ देना है। असलम शेर खान अपनी पार्टी को भी निशाने पर लेते हैं। कांग्रेस पार्टी भी मध्य प्रदेश में मुस्लिम वोटरो को लेकर कोई सक्रिय दिलचस्पी और रूझान दिखाने के लिए तैयार नहीं है। कांग्रेस का चुनावी चेहरा कमलनाथ भगवा-पीले रंग में रंगे हैं।
लोकतंत्र सिर्फ धर्मनिरपेक्षता पर ही टिका नहीं है, लोकतंत्र सिर्फ समानता पर ही टिका नहीं है, संविधान जरूर समानता की बात करता है पर संविधान की रक्षा करने वाली विधायिका की स्थिति सिर्फ समानता पर निर्भर नहीं है, विधायिका जो बनती है उसके पीछे कई कारक काम करते हैं। इन कारकों का जब आप विश्लेषण करेंगे तो पायेंगे कि विधायिका के निर्वाचन और कार्यपालिका के निर्माण में कहीं धर्म की उपस्थिति होती है, कहीं जाति की उपस्थिति होती है, कहीं क्षेत्र की उपस्थिति होती है, कहीं भाषा की उपस्थिति होती है, कहीं वंशवाद की उपस्थिति होती है। विधायिका में संसद और विधायक में चुनकर आने वालों की पहचान भी धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा, वंश की होती है। क्या यह सही नहीं है कि नरेन्द्र मोदी की सरकार धर्म पर आधारित बनी हुई है, क्या यह सही नहीं है कि अकबरूउदीन ओवैशी जैसे लोग मजहब आधारित वोट से चुनकर आते हैं, क्या यह सही नहीं है कि लालू-मुलायम का कुनबा जातिवाद के आधार पर निर्वाचित होते हैं, क्या यह सही नहीं है कि जगन रेड़डी और वाइसीआर जैसी हस्तियां क्षेत्रवाद पर आधारित सरकार बनाती हैं, क्या यह सही नहीं है कि सोनिया गांधी-राहुल गांध्ी, देवगौडा, बादल, पवार आदि का कुनबा वंशवाद के आधार पर राजनीति में चकमता है? जिस आधार पर जो चमकते हैं उस आधार को मजबूत करने की कोशिश होती है।
ऐसी परिस्थियां कैसे बनी हैं? ऐसी स्थितियों को समझने के लिए हमें 2014 के क्रांति को समझना होगा। 2014 में नरेन्द्र मोदी की अविश्सनीय जीत एक क्रांति से कम नहीं थी और एक बहुत बड़ा परिवर्तन था, एक बनी बनायी सोच को ध्वस्त करने वाली थी। आप सब इस सच्चाई को कभी भी कुतर्को से नहीं दबा सकते हैं। अब तक धारणा यही थी कि देश में मुस्लिम आबादी ही सरकार बनाती है और सरकार गिराती है, सरकार का विध्वंस करती है, मुस्लिम आबादी जिसके साथ है उसकी किस्मत चमकनी तय है। ण्ेसा माना गया कि आजादी के बाद जितने में चुनाव हुए उन सभी चुनावों में मुस्लिम आबादी के रहमोकरम पर जीत दर्ज हुई। यही कारण था कि जवाहर लाल नेहरू से लेकर राहुल गांधी तक, लालू-मुलायम से लेकर उनके वंशजों ने मुस्लिम आबादी पर दांव लगाये। नरेन्द्र मोदी ने मुस्लिम वोटरो की कोई परवाह नहीं की थी, मुस्लिम वोटर नरेन्द्र मोदी के खिलाफ था, गुजरात दंगो को लेकर मुस्लिम आबादी को परेशानी थी, गुजरात दंगों के लिए नरेन्द्र मोदी को खलनायक माना जाता है। इसके अलावा मुस्लिम वोटर उसी को वोट करते हैं जो भाजपा को हराने की शक्ति रखते हैं। कहने का अर्थ यह है कि मुस्लिम आबादी के समर्थन के बिना नरेन्द्र मोदी ने देश में पहली बार सरकार बनाने की क्रांति और पराकर्म दिखाया था। नरेन्द्र मोदी ने इस अवधारणा का विध्वंस कर दिया था कि देश में मुस्लिम आबादी ही सरकार बनाती है और विध्वंस करती है।
दो उदाहरण भी यहां प्रस्तुत किया जाना स्वाभाविक है। पहला उदाहरण उत्तराखंड का है और दूसरा उदाहरण बिहार का है। उत्तराखंड में भाजपा के भ्रष्टाचार और अकर्मणयता के कारण चुनावी हवा खिलाफ में बह रही थी। अचानक कांग्रेस के मूर्ख और आत्मघाती नेताओं ने उत्तराखंड में मुस्लिम आबादी का खुश करने के लिए एक पर एक योजनाओं की घोषणा करने लगे, कोई मुस्लिम विश्वविद्यालय तो कोई सामूहिक नमाज के दिन अवकाश घोषित करने और मुस्लिम आबादी को विशेष दर्जा देने की बात करने लगे। हवा बदल गयी और भाजपा ने हारी हुई बाजी जीत ली। दूसरा उदाहरण बिहार का है। बिहार मे मुस्लिम आबादी 20 प्रतिशत के आसपास है। पिछले विधान सभा चुनाव में लालू वंश के मुस्लिमवाद का दुष्प्रभाव से भाजपा ने करिश्माई प्रदर्शन करने की शक्ति हासिल की थी। कोसी क्षेत्र में भाजपा ने अप्रत्याशित प्रदर्शन कर राजद को सरकार बनाने का सपना तोड़ दिया था। अखिलेश यादव दो बार अति मुस्लिम प्रेम के कारण सत्ता प्राप्त करने से दूर हुए।कई अन्य उदाहरण भी हैं।
इसके लिए मुस्लिम आबादी भी कितनी जिम्मेदार है? आजादी के बाद सभी चुनावों में मुस्लिम आबादी समूह के तौर पर मतदान करती है, एक तरफा मतदान करती है। मुस्लिम आबादी मतदान भी महंगाई या फिर विकास के नाम पर नहीं बल्कि मजहब और इस्लाम के नाम पर करती है। भाजपा को हराने की शक्ति रखने वाली पार्टी को मुस्लिम समर्थन करते हैं। मुस्लिम आबादी की इस परमपरा को कट्टरवादी हिन्दुओं ने अपना लिया है। बस बात इतनी सी ही है।
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आचार्य विष्णु हरि सरस्वती
नई दिल्ली