धर्मनिरपेक्षता अथवा हिंदू जाति का सर्वनाश

भारत सरकार धर्मनिरपेक्षता का बहुत ढिंढोरा पीटती है। सन 1947 से लेकर सन 1993 तक के इन 45 वर्षों के दौरान इस सरकार के आचरण से यह सिद्घ होता है कि यह सरकार वास्तव में धर्मनिरपेक्षता को नही अपना रही है, अपितु इस सरकार के आचरण से यही सिद्घ होता है कि यह हिंदुओं को घाटे में रखकर मुसलमानों और ईसाईयों को अधिक हवा दे रही है। यह सरकार सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्षता का पालन न करके पार्टी भक्ति और कुर्सी भक्ति के कारण हिंदुओं के हितों को तिलांजली दे रही है। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि सरकार किसी धर्म विशेष का प्रचार नही करेगी और न ही उसे विशेष संरक्षण देगी जबकि यह सरकार ऐसा ही कर रही है, परंतु राष्ट्रीय नेताओं के दोहरे मानदण्ड और दोहरे आचरण बहुसंख्यक हिंदू जाति के हितों पर कुठाराघात करके और मुसलमानों व ईसाईयों को प्रोत्साहित करने हेतु राष्ट्रविरोधी तत्वों को बढ़ावा दे रही है। मुसलमानों के शासनकाल में भी हिंदुओं के जो राज्य मुस्लिम शासन में स्वतंत्र रहे अथवा जो दास होकर कालांतर में पुन: स्वतंत्र हो गये, वे सब राज्य वैदिक धर्म जो वैष्णव, शैव और शाक्त के विकृत रूप में था, उसके ही पोषक रहे हैं। भारत के जिन भागों पर मुसलमानों का अधिकार हो गया अथवा एक बार अधिकार हटने पर दोबारा अधिकार हो गया वे सभी मुस्लिम शासक इस्लाम को पोषक रहे और हिंदुओं को भय और लोभ के कारण मुसलमान बनाते रहे।
अंग्रेजों का राज्य भी ईसाई मत पोषक राज्य था। भारत के जितने जिने भाग पर अंग्रेजों का अधिकार होता गया, उतने उतने भाग पर वे ईसाइयत का प्रचार कराते रहे। अंग्रेजों ने जिन रियासतों का आंतरिक प्रबंध देशी नरेशों पर छोड़ दिया, वे हिंदू सिक्ख और मुस्लिम शासक भी वैदिक (हिंदू) धर्म, सिक्ख मत और इस्लाम मत के ही पोषक रहे हैं।
कहने का आशय यह है कि भारत के शासक आदिकाल से देश के विभाजन तक कभी भी धर्मनिरपेक्ष नही रहे बल्कि वे सदा ही धर्मसापेक्ष रहे हैं।
देश का विभाजन और धर्मनिरपेक्षता
भारतवर्ष का यह परम दुर्भाग्य था कि आदि सृष्टि से यह आर्यावत्र्त, देश बंटते बंटते अंतत: फिर दो भागों में अर्थात भारत और पाकिस्तान में बंट गया। देश के कुछ नेताओं ने प्रयत्न किया कि देश का बंटवारा न हो, परंतु गांधी अंग्रेजों की बदनीयती, कांग्रेस की मुस्लिम साम्प्रदायिकता के आगे घुटने टेकने की नीति जिन्नाह और मुस्लिम लीग की आरंभ से ही अनुचित मांगों को मानना मुहम्मद अली जिन्नाह के दुराग्रह के कारण भारत माता का बंटवारा टल न सका। इस बंटवारे में 8 से 10 लाख के बीच व्यक्ति मारे गये और एक करोड़ व्यक्ति घर से बेघर हो गये। इस समय बच्चों को तलवार की नौंक पर उछाला गया, स्त्री व पुरूर्षों को क्रूरता पूर्वक काटा गया, उन कटी हुई लाशों की टे्रनों में भरकर पाकिस्तान से भारत भेजा गया, जिसे देखकर यहां चारों तरफ एक भयाभय माहौल पैदा हो गया, परिणामस्वरूप बदले की आग सर्वत्र फैल गयी, ऐसी स्थिति हमें अब नही आने देना है। उस समय पाकिस्तान से उजड़ कर जो हिंदू भारत आये उन्हें आज भी जब अतीत की बंटवारे वाली घटनाओं का स्मरण होता है तो उनकी आत्मा कांप उठती है।
देश का विभाजन इस आधार पर हुआ था कि भारत में दो प्रमुख धर्म हैं जिसमें पहला हिंदू धर्म और दूसरा इस्लाम इन दोनों धर्मों के आधार पर इसमें दो प्रमुख जातियां रहती हैं हिंदू और मुसलमान। इन दो जातियों के आधार पर ही द्विजातीय सिद्घांत बना। इसी द्विजातीय सिद्घांत के आधार पर देश का विभाजन हुआ। विभाजन के समय मुस्लिमलीगी नेताओं ने चालाकी दिखलाई कि विभाजन तो हो, परंतु जो भी हिंदू, मुसलमान सिक्ख व ईसाई जहां रहना चाहें, वे वहां रह सकते हैं, इस चालाकी को गांधी और जवाहरलाल नही समझ सके, बल्कि सरदार बल्लभ भाई पटेल समझते थे। इसी आधार को लेकर मुसलमान यहां बस गये, परंतु मुसलमानों की धर्मांता और असहिष्णुता के कारण भारत के मुस्लिम बाहुल्य प्रांतों सीमांत प्रदेश, पंजाब, बलोचिस्तान, सिंध और बंगाल से हिंदू निकाले जाने लगे।
मुसलमानों ने पाकिस्तान को इस्लामी राष्ट्र बनाया और भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाया। इतने रक्तचाप, नरसंहार और जन निर्वासन के पश्चात भारत का धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनना यह कांग्रेस की करोड़ों भूलों के समान एक भयंकर भूल थी, जिसका दुष्परिणाम आज हिंदू जाति के समक्ष प्रकट हो रहा है। जब देश स्वतंत्र हुआ तो विदेशी ईसाई पादरी अपना बोरिया विस्तर बांधकर अपने अपने देश को जा रहे हैं। जब देश स्वतंत्र हुआ तो विदेशी ईसाई पादरी अपना बोरिया बिस्तर बांधकर अपने अपने देश को जा रहे थे, परंतु जब उन्होंने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की घोषणा सुनी तो वे अपने बिस्तर खोलकर पुन: यही बैठ गये और भारतीय संविधान के अनुसार सभी धर्मों को अपने विचारों के प्रचार प्रसार करने की आज्ञा है। इसका अनुचित लाभ उठाने लग गये।
धर्मनिरपेक्षता हिंदू जाति व भारतीयता के लिए महान घातक
धर्मनिरपेक्षता का प्रयोग हिंदू जाति व भारतीय राष्ट्रीयता के लिए महान संकट का कारण सिद्घ हो रहा है। इस समय भारतवर्ष में अनेकों विदेशी पादरी ईसाइयत के प्रचार में संलग्न है और पश्चिमी देशों से बहुत बड़ी राशि प्रतिवर्ष भारत में आ रही है। यह राशि आती जनसेवा के नाम पर है, परंतु स्कूलों कालेजों अस्पतालों और अन्य जनसेवा कार्यों के माध्यम से वनवासियों को ईसाई बनाने के काम में लाई जाती है।
यदि मानवता के नाते इस राशि को जनसेवा के कार्यों में लगाया जाता तो कोई आपत्ति की बात नही थी, परंतु इसका लक्ष्य तो भारतीयों को ईसाई बनाना है। जब भारत का विभाजन हुआ तो उस समय भारत में ईसाईयों की संख्या 47 लाख थी जो इस समय तीन करोड़ से अधिक हो गयी है। इस संख्या से स्पष्ट होता है कि धर्मनिरपेक्षता हिंदू जाति के लिए कितनी महंगी पड़ रही है? जब धर्म बदलता है तो राजनीति बदलती है। इसके प्रत्यक्ष परिणाम हमें देखने को मिल रहे हैं। देखिये आसाम आज सात खण्डों में बंटा हुआ है। यह ईसाई पादरियों की करतूतों का परिणाम है। नागालैंड मिजोरम और मेघालय एक प्रकार से ईसाईस्थल बन ही चुके हैं। छोटा नागपुर भी ईसाईस्थान बनाने की योजना का शिकार हो रहा है। सभी पर्वतीय प्रदेशों में ईसाई पादरियों का जाल बिछा हुआ है। ईसाई पादरी कहीं भारतीयों की निर्धनता का लाभ उठाकर धन प्रलोभन से, कही अशिक्षा का लाभ उठाकर स्कूलों और कालेजों द्वारा कही अस्वस्थता का लाभ उठाकर अस्पतालों के और चिकित्सा उपचार द्वारा कहीं आजीविकाहीनता का लाभ उठाकर आजीविका का साधन जुटाने के बहाने से, कहीं विदेश भ्रमण और विदेश में शिक्षा दिलाने के बहाने और कही शिक्षित अविवाहित युवकों को सुंदर और सुशिक्षित युवतियों का प्रलोभन देकर ईसाई बना रहे हैं। सारांश यह है कि ईसाई पादरियों का लक्ष्य बानवता के नाते भारतीयों की सेवा करना नही है, अपितु उन्हें ईसाई बनाकर ईसा की भेड़ों की संख्या को बढ़ाना है और अंतत्वोगत्वा यूरोप, उत्तरी अमेरिका, दक्षिण अमेरिका और ऑस्टे्रलिया की भांति, ईसाई राष्ट्र बनाना है। दूसरे शब्दों में वेद, गीता, शिवशंकर श्रीराम और श्रीकृष्ण के स्थान पर बाइबिल और ईसा की स्थापना करना है।
क्या यही धर्म प्रचार है?
धर्म धारण करने की वस्तु होती है। धर्म का आशय यह है कि मनुष्य व्यसनों जैसे शराब, मांसाहार, जुआ, अश्लीलता और व्यभिचार को त्यागे, ईश्वर की उपासना को अपनाये और सदग्रंथों का पाठ करे। काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार आदि विकारों पर विजय प्राप्त करे। ईष्र्या, द्वेष घृणा और मानसिक निकृष्टïताआदि दुर्भावनाओं को दूर करके आध्यात्मिक उन्नति करे और परोपकारी बने। यही धर्मप्रचार अब दल प्रसार का रूप धारण कर गया है। अब मनुष्यों की नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति न कराकर अब लक्ष्य केवल ईसाई दल की संख्या को बढाना ही शेष रह गया है।
जब मत बदलता है तो खान पान बदलता है, अपने महापुरूर्षों को छोड़कर अन्य महापुरूर्षों के प्रति श्रद्घा बदलती है, उपासना पद्वति में परिवर्तन होता है और धर्मग्रंथ बदलते हैं। अपने तीर्थ स्थलों की श्रद्घा दूसरे तीर्थ स्थलों के प्रति बदलती है। अपनी संस्कृति और सभ्यता के प्रति अनुराग समाप्त होकर अन्य संस्कृति और सभ्यता के प्रति उत्पन्न होता है। ज्यों ज्यों किसी विशेष मतावलंबियों की संख्या बढ़ती जाती है, त्यों त्यों राजनीतिक सत्ता का हस्तांतरण भी होता जाता है और अंतत: किसी भी राष्ट्र की राष्ट्रीयता बदलने लगती है। यही भारत में हो रहा है और यदि आज इस धर्मांतरण को रोका नही गया तो भारत में वही बातें होंगी और हो रही हैं। जिनका संकेत ऊपर दिया गया है आज जो भी हिंदू ईसाई बनता है, उसकी श्रद्घा शिव शंकर, मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम, योगीराज कृष्णा आदि शंकराचार्य और ऋषि दयानंद जी महाराज $कृष्णा आदि शंकराचार्य और ऋषि दयानंद जी महाराज के प्रति न रहकर ईसा और ईसाई मत के प्रमुख संतों के प्रति हो जाती है।

Comment: