लघु से विराट की ओर जाने का संकल्प लेकर भारतीयता लघुता में विराटता का प्रतिबिम्ब देखती है। लघु से विराट की ओर अग्रसर होने का संकल्प ही धर्म है। धर्म को सद्संकल्पों के बंधन से रक्षित किया गया है। रक्षा बंधन का पर्व उसी संकल्पधार्यता का प्रतीक है।
रक्षा बंधन पर्व हमें उस भाव की रक्षा करने के लिए प्रेरित करता है जिस भाव के लिये विराट प्रकृति, जीव-जन्तु और सृष्टि की रचना हुई है। यह पर्व ऋग्वैदिक काल से मनाया जाता है। वर्तमान में इसका स्वरूप अत्यंत सीमित हो गया है। मध्यकाल में विदेशी आक्रमणों के कारण पारिवारिक महिलाओं की रक्षा के लिये इसके प्रयोजन को सीमित कर दिया गया था। लेकिन आदिकाल में वृक्षों, गुरुजनों, उपयोगी वस्तुओं तथा गाय तक को रक्षा सूत्र बाँधा जाता था। कृषक कृषि में प्रयोग होने वाले यंत्रों, व्यापारी अपनी तुला और योद्धा अपने शस्त्रों पर रक्षा सूत्र बंधन करते थे। यह परम्परा आशिंक रूप में आज भी विद्यमान है।
रक्षा सूत्र के दो प्रयोजन होते थे। प्रथम जिसे बाँधा जाता है उसे अपनी रक्षा का सम्पूर्ण दायित्व सौंप दिया जाता है, दूसरा आशीष और सहयोग प्राप्त करने के लिए रक्षा सूत्र बाँधा जाता है। गुरु शिष्य को बाँधता है और शिष्य गुरु को बाँधता है। दोनों एक दूसरे की रक्षा का संकल्प लेते हैं। यंत्रों और शस्त्रों में रक्षा सूत्र बाँधने का भाव यह है कि ये भौतिक वस्तुएँ हमारे लिये कल्याणकारी हो और सदा हमें शुभ फल प्रदान करें।
विराट समाज इस रक्षा सूत्र के माध्यम से लघु की परिधि से बाहर आकर समग्रता ग्रहण करता है। कोई गैर नहीं, किसी से बैर नहीं इस भाव को सामाजिक जीवन में स्थापित करने के लिये हमारे महान ऋषियों ने रक्षाबंधन जैसे महान पर्व की परिकल्पना की। यदि गहनता से देखा जाये तो यह पर्व भारतीय जीवन दृष्टि का सात्विक प्रतिबिम्ब है। हमारी संस्कृति केवल व्यक्ति प्रधान नहीं है, उसकी सोच समग्रता में है। व्यक्ति के लिये जगत नहीं है, अपितु जगत के लिए व्यक्ति है।
अत: आत्म प्रतिष्ठा और आत्मरक्षा के भाव से ऊपर उठकर सम्पूर्ण राष्ट्र उसके जन और उससे भी आगे सम्पूर्ण सृष्टि की रक्षा के प्रति प्रतिबद्धता मानव का सहज गुण होना चाहिए। इसलिए ऋषि ऋग्वेद (10/173/1) में आह्वान करते हैं कि सावधान! तेरा राष्ट्र कभी अवनत न हो।Ó वैदिक दर्शन में राष्ट्र एक भौतिक तत्व नहीं है अपितु राष्ट्र एक निश्चित क्षेत्र में रहने वाले नागरिकों की भावनात्मक संरचना है। अत: राष्ट्र संस्कृति है, धर्म है, अध्यात्म है, नैतिकता है और सोच का ढंग है। इसलिये रक्षा बंधन के दिन पुरोहित जब रक्षा सूत्र बंधन करता है तो कहता है कि हे मातृभूमि तुम्हारे में उत्पन्न सब पदार्थ क्षय आदि रोगों से रहित होकर सबको प्राप्त हों, हम सबकी आयु लम्बी हो। हम ज्ञान-विज्ञान से युक्त हों और हम अपनी मातृभूमि के लिये सब कुछ त्याग व बलिदान देने को तैयार रहें। (12/166) अथर्ववेद में ऋषि नागरिकों को स्मरण दिलाते हैं कि सत्यता, दृढ़ अनुशासन, तेजस्विता, संकल्प शक्ति, कर्तव्य परायणता, तपस्वी वृत्ति और ज्ञान-विज्ञान राष्ट्र की सात महाशक्तियाँ हैं, इनकी रक्षा का संकल्प धारण करना चाहिए।
रक्षा बंधन पर्व को व्यापक संदर्भ देने की आवश्यकता है। इसे वैदिक मनीषियों के विस्तृत चिन्तन से जोडऩा होगा। व्यक्ति तो सम्मानित होगा, लेकिन तब जब उसने राष्ट्र और समाज को सम्मान दिया हो।
वस्तुत: रक्षा बंधन पर्व औपचारिकता मात्र नहीं है, यह गहन चिंतन-मनन और संकल्पों का पर्व है। इसकी सार्थकता है धागों में निहित भाव तत्व को समझना।
-स्वामी चक्रपाणि जी महाराज
राष्ट्रीय अध्यक्ष हिंदू महासभा