उपरोक्त घटना घटित होने से पहले की एक किवदंती और भी है। कहते हैं कि हरिद्वार में गंगा के घाट पर एक साधु गंगा में स्नान कर रहा था। गंगाजल का प्रवाह बहुत तेज था। उस तेज प्रवाह में उस साधु की कोपीन (लंगोटी) बह गयी। उसी घाट के समीप कुछ महिलाएं भी गंगा स्नान कर रही थीं। गंगा का जल वेगवान तो था ही साथ ही शीतल बहुत था, वैसे ही सर्दी की ऋतु थी। साधु विस्फारित नेत्रों से घाट की तरफ देख रहा था। शीतल जल में खड़े रहने तथा सर्दी की वजह से उसके दांत से दांत बजने लगे थे। घाट पर खड़ी द्रोपदी की नजर उस साधु पर पड़ गयी। द्रोपदी ने साधु से पूछा बाबा आप इतनी देर से इस शीतल जल में खड़े हैं, न तो आप कोई जाप कर रहे हैं और न ही स्नान कर रहे हैं, आप क्रियाशून्य होकर खड़े हो, आखिर क्या बात है? साधु ने बड़े संकोचवश कहा बेटी! मेरी कोपीन इस जल में बह गई है और मैं निर्वस्त्र हूं जब ये महिलाएं चली जाएंगी तभी मैं जल से निकलूंगा। द्रोपदी ने कहा बाबा यदि ये महिलाएं चली जाएंगी तो दूसरी आ जाएंगी। ठहरो, मैं आप को कपड़ा देती हूं। तत्क्षण ही द्रोपदी ने अपनी साड़ी का पल्लू फाड़ा और उस साधु को दे दिया। साधु ने उसे कोपीन के स्थान पर बांध लिया और जल से बाहर निकल कर द्रोपदी के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देता हुआ बोला बेटी जैसे आज तुमने मेरी लाज की रक्षा की है, ऐसे ही भगवान आप की लाज की भी रक्षा करें।
उपरोक्त दोनों प्रसंगों से यह प्रेरणा मिलती है कि पुण्य बेशक छोटा हो, किंतु परमात्मा उसका फल अनंत गुणा करके देता है। इसलिए हमें अपने जीवन में दान पुण्य अवश्य करते रहना चाहिए।
जगद्गुरू शंकराचार्य अपनी प्रसिद्घ पुस्तक विवेक चूड़ामणि में दान-पुण्य के संदर्भ में कहते हैं जब कोई भिखारी आपके द्वार पर भीख मांगने आता है तो वह केवल भीख मांगने ही नही आता अपितु धनवानों को यह चेताने आता है कि दान पुण्य करते रहिए अन्यथा भीख का कटोरा जो आज हमारे हाथ में है। वह कल तुम्हारे हाथ में भी आ सकता है, याद रखो जो पहले कुछ दान पुण्य करके आए हैं वे ही फलते-फूलते नजर आ रहे हैं।
प्रभु कृपा से यदि आपके अंदर कोई ऐसी सामथ्र्य है जिसके कारण आप दान अथवा पुण्य का कार्य कर रहे हैं तो इसके लिए अपने मन में दम्भ अथवा अहंकार का भाव न आने दें और न ही किसी सत्कार्य पुण्य का अमुक व्यक्ति को ताना अथवा उलाहना दें अन्यथा भगवान कृष्ण गीता के दसवें अध्याय के पृष्ठ 707 पर अर्जुन से कहते हैं-हे कौन्तेय मेरी किसी भी विभूति को जो व्यक्ति अपनी मानता है अथवा इस पर अहंकार करता है उसका पुण्य नष्टï हो जाता है पतन हो जाता है और मैं उस विभूति (देन) के दिव्य गुण को वापिस ले लेता हूं। इसीलिए आम कहावत है यदि आपके एक हाथ से कोई दान पुण्य का कार्य हो जाए तो दूसरे हाथ को पता भी नही चलना चाहिए। पुण्य के किये हुए कर्म को ऐसे भूल जाओ जैसे हवन में आहूति डाल कर भूल जाते हैं। इस संदर्भ में हमें प्रकृति से भी यह शिक्षा लेनी चाहिए जैसे बीज पौधे को पैदा कर स्वयं मिट्टी में मिल जाता है और मिट्टी ही बन जाता है। ठीक इसी प्रकार यदि प्रभु कृपा से आपके हाथों से कोई पुण्य का कार्य हो गया है तो अपने अहंकार को मिट्टी में मिला दो और प्रभु के प्रति कृतज्ञता का भाव व्यक्त करते हुए मन ही मन धन्यवाद दो कि प्रभु तेरा लाख लाख शुक्र गुजार हूं, तूने मुझे इस लायक किया जो पुण्य का कार्य मेरे हाथों कराया। यह भाव ही तुम्हें ऊंचा उठाएगा, महान बनाएगा और स्वर्ग में स्थान सुरक्षित कराएगा। इस लोक में तुम्हारे धन और यश में वृद्घि कराएगा।
कैसी विडंबना है इस मानव नाम के प्राणी की? किसी से पूछकर देखो-मरने के बाद आप स्वर्ग में जाना चाहेंगे या नरक में? टोटके सा जवाब मिलता है-नरक में जायें हमारे दुश्मन, हम तो स्वर्ग में जाएंगे। अरे भोले भाई स्वर्ग तो सत्कर्मों से मिलता है, पुण्यों से मिलता है, इसलिए सत्कर्म किया करो, पुण्य किया करो ऐसा कहने पर मानव नाम का प्राणी बहाने पर बहाने बनाता है और तो और प्रभु भजन के लिए भी घड़ी दो घड़ी इसके पास नही, उसके लिए भी बहाने बनाता है। कैसी हास्यास्पद स्थिति है? जाना चाहता है स्वर्ग में और पुण्य करे और? परलोक की मुद्रा तो पुण्य है। इसका संचय करो। बिना पुण्य के स्वर्ग में प्रवेश कैसे मिलेगा? कवि प्रश्न करता है-
स्वर्ग की इच्छा सब करें
पर पुण्य करे कोई और।
बिना मुद्रा परलोक में,
कैसे मिलेंगी ठौर?
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