भारतीय जनता पार्टी के वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लॉग के जरिए जो भावी राजनीतिक तस्वीर पेश की है उस पर बवाल मचना तय था। आडवाणी का मानना है कि मौजूदा राजनीतिक अस्थिरता के दौर को देखते हुए 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 100 सीटें भी नहीं मिलेंगी। यहां तक कि उनकी अपनी पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलने के आसार नहीं हैं। जहां तक तीसरे मोर्चे की सरकार का सवाल है तो उसको भी आडवाणी ने नकार दिया है। हां, उनका यह मानना जरूर है कि जो भी पार्टी सरकार गठन की स्थिति में होगी उसे बाहरी समर्थन की आवश्यता होगी और ऐसे में कोई भी प्रधानमंत्री पद की कुर्सी को सुशोभित कर सकता है। आडवाणी के लिखे पर लाख बवाल मचे पर उन्होंने जो कहा है उसे यूहीं नकारा भी नहीं जा सकता। यूपीए-2 के वर्तमान कार्यकाल की नाकामयाबियों को देखते हुए और पिछले एक वर्ष में हुए विधानसभा, लोकसभा उपचुनाव के परिणामों का कांग्रेस के खिलाफ जाना इस बात की पुष्टि करता है कि कांग्रेस की राह 2014 में और कठिन होने वाली है। देशहित से लेकर तमाम आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक मुद्दों पर फजीहत करवा चुकी यूपीए 2 के कर्णधार भी यह बात जानते हैं कि भावी राह उनके लिए कठिन होगी लिहाजा वे तो डैमेज कंट्रोल करने का भरसक प्रयास करेंगे पर मुख्य विपक्षी दल होने के नाते भाजपा को अधिक मेहनत करनी होगी। कुछ राजनीतिज्ञों के अनुसार आडवाणी का यह ब्लॉग एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री पद की दावेदारी से उनका नाम बाहर करने की खीज भी हो सकता है। हो सकता है मोदी से अपनी नाराजगी को ज़ाहिर न कर सकने की बजाए उन्होंने ब्लॉग का सहारा लिया हो ताकि मोदी की दावेदारी को चुनाव पूर्व ही मद्धम किया जा सके। हालांकि इसकी संभावना कम ही है पर आडवाणी की प्रधानमंत्री बनने की लालसा उनसे जब 82 वर्ष की उम्र में गांधीनगर के जिम ने डमबल्स उठवा सकती है, भ्रष्टाचार के विरुद्ध रथयात्रा निकलवा सकती है तो मोदी की पीएम इन वेटिंग की संभावनाओं को धूमिल क्यूँ नहीं कर सकती? हालांकि उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा वे ही जाने किन्तु आडवाणी ने अपने ब्लॉग में जो लिखा वह हकीकत में भी बदल सकता है पर क्या इससे भाजपा, कांग्रेस समेत तमाम दल इत्तेफाक रखेंगे? कांग्रेस के कमजोर संगठन व उसकी अगुवाई वाली सरकार की नाकामयाबियों ने भाजपा के समक्ष यह अवसर दिया था कि वह आम जनमानस की नजऱों में खुद को कांग्रेस से बेहतर विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर सकती थी पर पार्टी नेताओं पर प्रधानमंत्री बनने का ऐसा भूत सवार हुआ कि बिना जनाधार वाले उच्च सदन के नेता या अपने गृहप्रदेश को छोड़ दूसरे शासित प्रदेशों से चुनाव मैनेज कर संसद पहुँचने वाले कथित महारथी भी प्रधानमंत्री की रेस में शामिल होकर पार्टी की छवि को जनता की नजऱों में नकारा साबित कर गए। वहीं राष्ट्रीय अध्यक्ष का नागपुर पर अत्यधिक रूप से निर्भर होना व गुटबाजी पर लगाम न लगा पाना भी कमजोर नेतृत्व को उजागर कर गया। रही सही कसर अन्ना आंदोलन और बाबा रामदेव के अनशनों ने पूरी कर दी। जनता की जिस लड़ाई को मुख्य विपक्षी दल होने के नाते भाजपा को लडऩा चाहिए था, उसे यदि अन्ना और बाबा का सहारा मिले तो यह पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी है। निश्चित रूप से इसका दूरगामी परिणाम देखने को मिलेगा। भाजपा को कांग्रेस की कमजोरियों का लाख फायदा मिलता रहे उसके कर्णधार कभी सर उठा कर यह नहीं कह पायेंगे कि हमने जनता की लड़ाई लड़कर सत्ता पाई है। यदि आडवाणी की माने तो भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलने से रहा, सच साबित हो सकता है। साम्प्रदायिकता का चोला व मोदी की प्रधानमंत्री पद हेतु दावेदारी भाजपा को गैर-कांग्रेसी दलों से दूर कर सकती है। हां, जयललिता, नवीन पटनायक, बाल ठाकरे जैसे साथी मोदी का उत्साह तो बढ़ा सकते हैं किन्तु उन्हें प्रधानमंत्री पद तक नहीं पहुंचा सकते। वैसे भी उनकी इस पद हेतु दावेदारी पर यदा-कदा संशय के बादल छाए रहते हैं और ताजा समाचार के अनुसार गडकरी-नीतीश मुलाक़ात के दौरान भाजपा अध्यक्ष ने उन्हें यह विश्वास दिलाया है कि एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री पद का दावेदार गठबंधन धर्म का निर्वहन कर तय होगा।
कुल मिलाकर भाजपा में इस कदर दुविधाओं ने घर कर लिया है कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व भी फैसले लेने में स्वयं को असहाय महसूस कर रहा है। पार्टी की नई चिंता का विषय टीम अन्ना का राजनीतिक दल के रूप में परिवर्तित होना है जिसके लिए कहा जा रहा है कि टीम अन्ना यदि सक्रिय राजनीति में आती है तो उसका वोट बैंक भाजपा की कीमत पर बनेगा।
जहां तक कांग्रेस की बात है तो उसकी 8 वर्षों की नाकामी के बारे में कहाँ तक लिखा जाए? वाम दल इस लायक नहीं बचे हैं कि उनपर तीसरे मोर्चे का दारोमदार उठाने की नौबत आए। बाकी क्षेत्रीय क्षत्रपों में मुलायम, मायावती, ममता, लालू यादव आदि का कांग्रेसी खेमे में आना संभावित है ही। तो तीसरे मोर्चे की अगुवाई करेगा कौन? देखा जाए तो तीसरे मोर्चे की संभावना नगण्य ही है। इतना अवश्य है कि चंद्रशेखर, इंद्रकुमार गुजराल, वीपी सिंह, एचडी देवगौड़ा जैसी ही किस्मत किसी की चमक जाए और वह एनडीए या यूपीए का समर्थन लेकर प्रधानमंत्री पद को सुशोभित करने लगे। यदि ऐसा हुआ तो यह भाजपा-कांग्रेस दोनों के गाल पर करारा तमाचा होगा। आखिर क्षेत्रीय दलों का आधार क्षेत्रीय ही होता है भले की उनकी राजनीतिक ताकत दिल्ली दरबार तक क्यूँ न पहुँच जाए? नीतीश कुमार का मोदी विरोध इसी रणनीति के तहत है और कांग्रेस के भावी समर्थन के दम पर उनकी छुपी आशंका फलीभूत भी हो सकती है पर नीतीश को कांग्रेस की गोद में बैठने से पहले लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान जैसे नेताओं का हश्र देख लेना चाहिए। 2014 आने में अभी समय है और यह भी संभव है कि लोकसभा के चुनाव तय समय से पूर्व ही हो जाए, अत: सियासी दलों की ओर से जोड़तोड़ की राजनीति का चरण शुरू हो चुका है।
इस परिपेक्ष्य में देखें तो आडवाणी आशंका या भविष्यवाणी पर अभी कुछ कहना जल्दबाजी ही होगा पर राजनीति में अपनी पूरी ज़िन्दगी खपा देने वाले अनुभवी व्यक्ति के व्यक्तिगत विचार को यूँ नकारा भी नहीं जा सकता। वैसे भी भावी राजनीति पर वर्तमान में जो प्रश्न-चिन्ह लगा है उसे देखते हुए कुछ भी संभव है।
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