अध्याय … 58 हिल जाए भूगोल ….
172
छाल के कपड़े पहन के, मुनि बहुत संतुष्ट।
हीरे सोने लाद कर , राजा हुआ संतुष्ट।।
राजा हुआ संतुष्ट, दोनों का संतोष बराबर।
दरिद्र वही होता मानव, तृष्णा करे उजागर।।
तृष्णा के वशीभूत हो, दरिद्र का बिगड़े हाल।
वह संतोषी धनवान है, पहने वृक्ष की छाल।।
173
मीत ! यह संभव नहीं, सज्जन बदले बोल।
अडिग रहे सदा एक सा, हिल जाए भूगोल।।
हिल जाए भूगोल , सूरज पश्चिम से निकले।
बर्फ सी ठंडी अग्नि होवे, लगते पर्वत चलने।।
निश्चय जिसका है अडिग , उसकी होती जीत।
हिला निश्चय जिसका, उसका पराभव मीत।।
174
भोजन करें और नींद लें, होते हैं भयभीत।
पैदा करें संतान को, ऐसे हैं सब जीव।।
ऐसे हैं सब जीव, करते हैं अपना कर्म।
मानव इनसे भिन्न है, रखता है निज धर्म।।
धर्म भ्रष्ट जो हो गया, दूजों का जो धन हरे ।
मानव वह होता नहीं, बिन बूझे भोजन करे।।
दिनांक : 20 जुलाई 2023
मुख्य संपादक, उगता भारत