स्वतंत्रता दिवस और बिकाऊ लोकतंत्र
देश अपनी स्वतंत्रता की 65वीं वर्षगांठ मना रहा है। इस अवसर पर हमारी शान और आन बान का प्रतीक तिरंगा बड़ी शान से लहराया जा रहा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अब तक के सर्वाधिक निराशाजनक परिवेश में लगातार नौवीं बार ध्वजारोहण कर राष्ट्र को संबोधित करेंगे। यह पहली बार है कि जब देश के लोगों में अपने प्रधानमंत्री का भाषण सुनने के लिए तनिक भी जोश नही है। ऐसी परिस्थितियों में अपने इस राष्ट्रीय दिवस के प्रति आई नीरसता के भाव पर विचार करना बहुत आवश्यक हो गया है। यदि वास्तव में देखा जाए तो इस स्थिति के लिए हमारे देश में प्रचलित राजनैतिक व्यवस्था के व्यवस्थापक जिम्मेदार हैं। जनादेश का सम्मान करना लोकतंत्र का प्राण है। जिससे ये लोग बचने का प्रयास करते हैं, एक समय था जब पक्ष में रहकर भी हमारे नेता लोग विपक्ष की राजनीति किया करते थे। नेहरू जी के सामने उनकी नीतियों की आलोचना विपक्ष ही नही करता था बल्कि सत्तापक्ष के लोग भी अपनी असहमति व्यक्त करने में पीछे नही हटते थे। नेहरू जी उस आलोचना को सही अर्थों और संदर्भों में लिया करते थे लेकिन उन्हीं की बेटी इंदिरा गांधी ने बात-बात पर व्हिप जारी करने की ऐसी परंपरा चलाई कि लोगों की जुबान पर ताले डाल दिये। आज अधिकांश सांसद या विधायक वही बोलते हैं जिसे उनके नेता चाहते हैं। इसलिए लोकतंत्र का क्षरण और हनन हुआ है और हमारी राजनैतिक व्यवस्था पतन के गर्त में धंसती चली जा रही है। लोगों की जमीरों का सौदा करके उन्हें टिकट दिया जाता है और पार्टी के नेता ऐसे लोगों को जन प्रतिनिधि बनाने विश्वास रखते हैं जो संसद में या विधान मंडलों में उनके समर्थन में हाथ उठाने वाले हों। योग्यता को यहां पर प्राथमिकता नही दी जाती फलस्वरूप समय आने पर ये बिकी हुई जमीरें अपने आपको नीलाम कर देती हैं।
सरदार पटेल, लालबहादुर शास्त्री, प्रकाशवीर शास्त्री, जी.बी.पंत जैसे कितने ही नेताओं की आज अनायास ही याद आ रही है। जिनकी स्पष्टïवादिता और प्रखर वक्तृत्व शैली से देश में लोकतांत्रिक मूल्यों की नींव रखी गयी। इन नेताओं का जनता से सीधे सीधे लगाव था और अपना एक आधार था। इसलिए जनता के प्रति निष्ठा को राजधर्म के रूप में वरीयता दी जाती थी। आज हरेक दल लगभग उसी लीक का अनुकरण कर रहा है जो इंदिरा गांधी ने चलाई थी। यद्यपि इंदिरा गांधी को कई लोग तानाशाही प्रवृत्ति वाली नेता कहकर कोसते हैं किंतु ये सभी नेता अपने अपने दलों में अनुशासन के नाम पर तानाशाही का भय भी बनाये रखते हैं। जिस नेहरू गांधी परिवार को परिवारवाद की राजनीति की शुरूआत करने का दोषी माना जाता है, उसी परिवारवाद को देश में सपा, बसपा, जैसी कितनी ही पार्टियां यथावत लागू कर रही हैं। इस स्थिति को देखकर लगता है कि 1947 में हमसे चूक हुई तो हमने राजतंत्रात्मक लोकतंत्र की नींव रखी जिससे सारे शासन की बागडोर एक व्यक्ति के हाथों में आ गयी। नेहरू जी को बेताज का बादशाह कहा गया। बाद में कांग्रेस ने इस स्थिति को भुनाते रहने का प्रयास किया। अब उसी का अनुकरण अन्य दल कर रहे हैं। इस लिए देश की चिंता किसी को नही है बल्कि स्वार्थों की दल दल में फंसे राजनीतिक दल अपने अपने स्वार्थों का सौदा कर रहे हैं-स्वतंत्रता की 65वीं वर्षगांठ के अवसर पर ऐसे बिकाऊ लोकतंत्र को देखकर सचमुच तरस आता है और अपने इन राजनीतिज्ञों की हरकतों पर हर देशवासी को क्षोभ पैदा होता है।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।