खुद यकीन होता नही, जिनको अपनी मंजिल का।
उनको राह के पत्थर, कभी रास्ता नही देते।
मगर याद रखो, जिन्हें अपने ऊपर विश्वास है अर्थात जो आत्मविश्वास और आत्माभिमान के साथ जीते हैं वे प्रत्येक परिस्थिति पर और प्रकृति के रहस्यों पर विजय पाने का प्रयास करते हैं। प्रकृति की दिव्य शक्तियां उनके अनुकूल हो जाया करती हैं। वे प्रत्येक बाधा को अपने साहस और विवेक से धैर्य के साथ पराजित करते हुए आगे बढ़ते हैं। अंतत: एक दिन वो आता है जब सफलता उनके चरण चूमती है। इस संदर्भ में भी कवि के ये प्रेरणादायक शब्द देखिये:-
कारवां चलते हैं, मंजिल का सहारा लेकर ।
मंजिल की कशिश, उनकी रहनुमा होती है।।
कहने का भाव यह है कि जैसा सोचोगे वैसा बन जाओगे। मत भूलो जहां चाह होती है, वहीं पर राह होती है। यह संसार संकल्प का है। जैसा आपका संकल्प होगा आप वैसा ही संसार निर्मित करेंगे। अरे सोचो, वह भी तो कोई माई का लाल होगा जिसने धरती से चांद पर जाने का संकल्प किया होगा, एक ख्वाब देखा होगा। बेशक देर से सही किंतु वह दिन आया जब वह संकल्प पूरा हुआ, देखा हुआ सपना संसार के सहयोग से साकार हुआ। 21 जुलाई 1969 को अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी एन.ए.एस.ए. ने अपने अंतरिक्ष यान अपोलो के द्वारा अंतरिक्ष यात्री नील आर्म स्ट्रांग और एल्ड्रिन को चांद पर भेजा किंतु सबसे पहले चांद के धरातल पर जिस विलक्षण विभूति के कदम पड़े वह धरती का लाल नील आर्म स्ट्रांग था। उस दिन पूरी दुनिया खुशी से झूम उठी थी क्योंकि वो दिन अंतरिक्ष इतिहास में ही नही अपितु मानव इतिहास में भी एक अद्भुत और स्वर्णिम अवसर था जब किसी मानव के कदम चांद पर पड़े थे। इसी श्रंखला में अंतरिक्ष विज्ञान के इतिहास में मानव की अप्रतिम और अद्वितीय सफलता का नवीनतम और सुनहरा अध्याय छह अगस्त 2012 को भारतीय समयानुसार दिन के ग्यारह बजकर एक मिनट पर जुड़ गया। जब अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी एन.ए.एस.ए. (नासा) का मानव रहित अंतरिक्ष यान क्योरियोसिटी रोवर सफलता पूर्व मंगल ग्रह के धरातल पर उतर गया। इसके अवतरण का सीधा प्रसारण सारी दुनिया ने अपने टी.वी. स्क्रीन पर बड़े कौतूहल से देखा और सारी दुनिया खुशी से झूम उठी। नासा के वैज्ञानिक भी खुशी के मारे झूम उठे थे। उनकी आंखों में खुशी के आंसू थे। वे एक दूसरे से गले मिल रहे थे, बधाईयां दे रहे थे। ये ऐसे अनुभूति पूर्ण और भाव विहलता से भरे हुए क्षण थे जिन्हें व्यक्त करने में लेखनी और बाणी अपने को असमर्थ पाती है।
मिशन मंगल की तैयारियां पिछले आठ वर्षों से निरंतर चल रही थी। मार्ग में अनेक बाधाएं आयीं किंतु वैज्ञानिकों ने हिम्मत नही हारी। नासा के चार सौ वैज्ञानिक निरंतर अपनी साधना में रत रहे। इस योजना पर पिछले आठ वर्षों में ढाई अरब डॉलर खर्च हुए। अकेले क्योरियोसिटी रोवर को भेजने और बनाने में करीब चौदह हजार करोड़ रूपया खर्च हुआ।
इसमें स्वचालित प्रयोगशाला है जो मंगलग्रह की चट्टानों, द्रव गैस और वातावरण का अध्ययन बड़ी सूक्ष्मता से करेगी और पृथ्वी को उनके आंकड़े भेजेगी तथा जीवन की संभावनाओं का भी पता लगाएगी। लेजर किरणों के द्वारा मंगल ग्रह पर पाए जाने वाले खनिज पदार्थ, पानी अति सूक्ष्म तत्वों का अध्ययन कर समय-समय पर डाटा भेजती रहेगी। इसमें सत्रह हाईटेक कैमरे लगे हुए हैं। जो पल-पल की तस्वीरें व विभिन्न जानकारी पृथ्वी को भेजती रहेंगी। मंगल से पृथ्वी तक सिग्नल भेजने में मात्र 14 मिनट लगते हैं। मंगल ग्रह का एक वर्ष 687 दिन का होता है जो पृथ्वी के लगभग दो वर्र्षों के बराबर होता है। मंगल ग्रह का दिन चौबीस घंटे पैंतीस मिनट उनचास सैकंड का होता है। जो पृथ्वी के एक दिन से बड़ा है। जिस समय रोवर मंगल ग्रह पर उतरा था उस समय पृथ्वी पर भारतीय समयानुसार दिन के ग्यारह बजकर एक मिनट हुए थे जबकि मंगल पर दिन के तीन बज रहे थे।
मंगल पर अक्सर तेज आंधी और तूफान आते रहते हैं। वहां मिट्टी लाल रंग की होती है जिसमे सल्फाइड की मात्रा अधिक होती है इस तरह मिट्टी दक्षिणी अमेरिका के चिली नाम देश के आटा काम मरूस्थल में पायी गयी है तथा भारत के भी गुजरात प्रांत कच्छ रन में पायी गयी है। जिसका वैज्ञानिक बड़ी सूक्ष्मता से बड़ा ही अध्ययन कर रहे हैं। मंगल का धरातल लाल चट्टानों से बना है। इसलिए इसे लालग्रह भी कहते हैं। इसके उत्तरी और दक्षिणी धु्रव बहुत ठंडे हैं। इसलिए यहां दिन गर्म रात ठंडी होती है।
क्योरियोसिटी रोवर की प्रयोगशाला एक चलता फिरता मानव मस्तिष्क है। वह मंगल ग्रह का बड़ी सूक्ष्मता से अध्ययन करेगी। जैसे मानव मस्तिष्क करता है। वास्तव में यह आधुनिक विज्ञान का एक बहुआयामी चमत्कार है। इस यान को नासा ने 26 नवंबर 2011 को छोड़ा था जिसे मंगलग्रह तक पहुंचने में 253 दिन लगे। इतने अंतराल में हमने 5.7 किलोमीटर की दूरी तय की। इस यान की चौडाई सात फुट लंबाई दस फीट और ऊंचाई तीन मीटर है इसका कुल वजन सौ किलोग्राम है यह परमाणु ऊर्जा से चलता है इसमें छह पहिए लगे हुए हैं इसमें आधुनिक तकनीक का प्रयोग बड़ी सूक्ष्मता और संवेदनशीलता के साथ संभावित खतरों से निपटने की दृष्टिï से किया गया है। जिस पर नासा को ही नही अब तो मानव मात्र को ही गर्व है क्योंकि यह मानव के बौद्घिक विकास व पराकाष्ठा का परिचायक है यह मंगल ग्रह पर पृथ्वी की धरोहर है। जैसे जैसे स्पेस क्राफ्ट क्योरियोसटी रोवर का मंगल ग्रह पर उतरने का समय नजदीक आ रहा था तो नासा के वैज्ञानिकों के हृदय की धड़कन बढ़ती और सांस फूलती जा रही थी क्योंकि नारास से कोई भी सिग्नल तुरंत नहीं दिया जा सकता था। जो कुछ करना था यान के कैमरों और कंयूटरों के माध्यमों से ही होना था। सैकंड के हजारवें हिस्से की चूक भी इस सारे अभियान को नेस्तनाबूद कर सकती है यान के उतरने के पहले सात मिनट बड़े ही जोखिम से भरे थे। जिन्हें वैज्ञानिकों ने सेविन मिनट ऑफ टेरर की संज्ञा दी। उस समय कोई तेज तूफान का आना अथवा स्पेसक्राफ्ट का झटके के साथ उतरना खाली नही था। क्योंकि मंगल के वातावरण में प्रवेश करते समय घर्षण के कारण तापमान सोलह सौ डिग्री सेल्सियस से दो हजार डिग्री सेल्सियस होने का अंदेशा था। तेज गति के कारण उतरने के स्थान पर धूल का बादल बन सकता था और यान जलकर स्वाहा हो सकता था।
किंतु यान को सही सलामत मंगल ग्रह के धरातल पर उतरने की तकनीक का आविष्कार करने वाली भारतीय मूल की महिला वैज्ञानिक अनीता सेन गुप्ता थी। इस तकनीक के अनुसार यान जैसे ही मंगल के वातावरण में प्रवेश करने लगा, तो यान की गति घटकर बीस हजार आठ सौ किलोमीटर प्रति घंटा की गयी और जब यान मंगल ग्रह के धरातल से आठ किलोमीटर की ऊंचाई तक आया तो सुपरसोनिक पैराशूट को खोला गया और गति को बीस किलोमीटर प्रतिघंटा किया। जब 80 किलोमीटर की ऊंचाई पर था।
तब साढ़े तीन किलोमीटर प्रति घंटा किया गया और धीरे धीरे रस्सियों की मदद से उतारा गया। यह देख नासा के वैज्ञानिकों का ही नही अब तो पृथ्वी के प्रत्येक मानव का सीना गर्व से चौड़ा हो गया, सच पूछो तो अंतरिक्ष विज्ञान के इतिहास में यह मानव की महान सफलता थी। यह मानव मस्तिष्क व वह उसके अदम्य साहस और उसके अनवरत संघर्ष की जीत थी। इस संदर्भ में कवि कितना सुंदर कहता है।
खाई के साथ दुनिया में, कहीं पर अर्श होता है।
तेरी नजरें इनायत हो, तो बड़ा उत्कर्ष होता है।।
पताका फहरती को देख, सभी को हर्ष होता है। मगर इस बुलंदी तक पहुंचने में, कड़ा संघर्ष होता है।।
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